News cliping 30-06-2018
खस्ताहाल रुपया
विडंबना यह है कि रुपए का रिकार्ड अवमूल्यन मोदी के राज में हो रहा है, जिन्होंने 2014 के चुनाव में डॉलर के मुकाबले रुपए की कमजोरी के लिए कांग्रेस को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब शायद मोदी उन दिनों कही गई अपनी बातों को याद न करना चाहें! रुपए की कीमत गिरने की तीन बड़ी वजहें मानी जा रही हैं। एक तो यह कि ट्रंप के रुख के कारण विश्व-अर्थव्यवस्था में जो हलचल मची है, जिसे व्यापार युद्ध कहा जा रहा है, उसके फलस्वरूप एशियाई देशों की मुद्रा कमजोर हुई है। ईरान पर व्यापारिक प्रतिबंध थोपने के ट्रंप के फैसले ने भी आग में घी का काम किया है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में बढ़ोतरी का रुझान महीनों से था। पर ईरान से तेल आयात बंद करने या घटाने के अमेरिकी दबाव के चलते तेल का दाम और चढ़ गया है और अब यह अठहत्तर डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गया है। फरवरी से अब तक इसमें चौबीस फीसद की बढ़ोतरी हो चुकी है। जो तीसरी वजह है वह विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतने और एफडीआइ की आवक बढ़ाने के सरकार के दावे को मुंह चिढ़ा रही है। विदेशी निवेशक शेयर बाजार से पैसा निकाल रहे हैं। रुपए की कमजोरी से कच्चे तेल के आयात का खर्च और बढ़ेगा। दूसरी चीजों के आयात का बिल भी बढ़ जाएगा।
इससे जहां एक तरफ व्यापार घाटा बढ़ेगा, वहीं दूसरी तरफ पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से परिवहन और माल ढुलाई की लागत बढ़ेगी, और इसका असर तमाम चीजों की मूल्यवृद्धि के रूप में आएगा। विदेश जाना, वहां पढ़ना व घूमना भी महंगा हो जाएगा। लेकिन रुपए की कमजोरी से निर्यात क्षेत्र को जो फायदा हो सकता था, उसके कोई आसार नहीं दिखते, क्योंकि अमेरिका और चीन की कारोबारी जंग से संरक्षणवाद को बल मिल रहा है, जो निर्यात-वृद्धि के प्रयासों पर पानी फेर सकता है। इन तमाम बातों के साथ ही, रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट ने भी चिंता बढ़ाई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक बैंकिंग क्षेत्र की हालत और खस्ता हो सकती है; मौजूदा वित्तवर्ष के अंत तक सभी बैंकों का कुल एनपीए 12.2 फीसद तक जा सकता है। क्या सरकार रिजर्व बैंक की रिपोर्ट को भी झुठला सकती है? क्या इसी तरह से दो अंक की वृद्धि दर हासिल की जाएगी? ये अर्थव्यवस्था की मजबूती के लक्षण हैं, या चिंताजनक संकेत?
यूजीसी की जगह एचईसी
निजी क्षेत्र की समस्या
टी. एन. नाइनन
प्रभावशाली हलकों में यह एक स्वीकार्य धारणा है कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र का बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता रहा है जबकि निजी क्षेत्र ने भविष्य की राह दिखाने का काम किया है। इस धारणा को कुछ उदाहरणों से बल मिला। एयरटेल ने दूरसंचार बाजार में जबरदस्त कामयाबी हासिल की जबकि भारत संचार निगम लिमिटेड ने इसे नष्टï किया। निजी विमानन कंपनियों ने विमानन क्षेत्र के विस्तार में मदद की जबकि एयर इंडिया की हालत दिन प्रति दिन बिगड़ती चली गई। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में धातु कंपनियों की तकदीर निजीकरण के बाद बदल गई। इसके अलावा प्रौद्योगिकी उद्योग ने इसमें अहम भूमिका निभाई। उन्होंने पारंपरिक भारतीय उद्यमियों के कारोबारी व्यवहार से अलग छवि बनाई।
यह तो तब की बात है। अब हालात एकदम अलग हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के घोटालों में सरकार के लोग शामिल थे लेकिन उनके इस अपराध में कोयला और दूरसंचार क्षेत्र के निजी कारोबारी घराने सहभागी थे। जो बैंक ऋण फंसे हुए कर्ज में तब्दील हुआ उसका बहुत बड़ा हिस्सा निजी उद्यमियों को दिया गया था। नुकसान बैंकों को ही उठाना पड़ा लेकिन घाटा निजी उद्यमों के खाते गया। अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में एक बार फिर निजी क्षेत्र की नाकामी और गड़बडिय़ों की खबरें सामने आ रही हैं। एक समय अपनी चमक बिखेर रहा निजी क्षेत्र गलत वजहों से सुर्खियों में बन रहा है।
जरा हालिया घटनाओं पर विचार कीजिए। आईसीआईसीआई बैंक की समस्या एक समय मुख्य कार्याधिकारी तक सीमित थी जिसे हितों के टकराव की समझ नहीं थी। इसका ताल्लुक एक ऐसे बोर्ड से था जिसे अपने काम की समझ नहीं थी। परंतु अब यह समस्या कहीं अधिक बड़ी और व्यापक रूप लेती जा रही है। मामला खातों की वित्तीय स्थिति सुधार कर पेश करने तथा अन्य बातों तक पहुंच गया है। आमतौर पर देखा जाए तो इससे निजी क्षेत्र के बैंकों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है। हालांकि उनका प्रदर्शन सरकारी बैंकों से बेहतर रहा है। उसके बाद नीरव मोदी-मेहुल चौकसी के मामले ने अपेक्षाकृत सफल हीरा प्रसंस्करण उद्योग को लेकर आशंका पैदा कर दी है। सवाल यह उठ रहा है कि आखिर इस क्षेत्र के वित्तीय लेनदेन में परदे के पीछे क्या गड़बडिय़ां हैं?
विमानन में एयर एशिया इंडिया पर भुगतान से जुड़े कुछ आरोप हैं और उसके मुख्य कार्याधिकारी को निकाला जा चुका है। इस मामले से भी टाटा घराने का नाम जुड़ा हुआ है। सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी इन्फोसिस को एक कॉर्पोरेट अधिग्रहण के मूल्य के मामले में कड़े सवालों का सामना करना पड़ा। कंपनी छोड़कर जाने वाले वित्तीय अधिकारियों के भुगतान का मसला भी उठा। सभी दूरसंचार कंपनियों पर प्राय: अपने आंकड़ों में फर्जीवाड़ा करने का आरोप लगता है। खनन आदि कारोबार पर्यावरण और सुरक्षा मानकों को लेकर सवालों के घेरे में रहते हैं। इन मामलों में जन विरोध, हिंसा और मौत की घटनाएं आम हैं। इस बीच फोर्टिस अस्पताल और रैनबैक्सी लैबोरेटरीज चलाने वाले सिंह बंधुओं का मामला चर्चा में है। उनके द्वारा फर्जी शोध नतीजों और खराब गुणवत्ता वाली इकाइयों के इस्तेमाल की जानकारी सामने आई है।
यह सूची बहुत विस्तृत नहीं है लेकिन इसमें सुधार के बाद के दौर के अधिकांश सफल कारोबारों का नाम शामिल है। इस्पात और बिजली क्षेत्र के कारण उपजी बैंकिंग समस्याओं को दुर्भाग्य माना जा सकता है क्योंकि उनका कारोबारी चक्र उठता-गिरता रहता है। परंतु बैंकों के जोखिम आकलन के साथ-साथ प्रमुख उद्यमों के कारोबारी निर्णय पर सवाल क्यों नहीं उठाया जाता? निजी क्षेत्र से जुड़े गठजोड़ की खबरें जो फिर सामने आने लगी हैं उनकी भी चर्चा नहीं हो रही। ऐसा हो सकता है कि एक भ्रष्टï राजनीतिक व्यवस्था में कारोबार भी भ्रष्टï हों। फंड चाहने वाले राजनेता सांठगांठ वाले पूंजीवाद को बढ़ावा देंगे। ऐसे राजनेता और राज्य के हस्तक्षेप के हिमायती सरकार की भूमिका को बढ़ाने की वजह मुहैया कराते हैं। कारोबारी अनिश्चितता की बातों के बीच जिनको कर, जांच या प्रवर्तन अधिकारियों के छापे का भय है वे देश छोड़कर चले जाएंगे। कई लोग जा भी चुके हैं। निजी कारोबारियों की विफलता ने बाजार आधारित सुधार की प्रक्रिया को झटका दिया है। हालांकि आगे जाने की एकमात्र राह वही है। निजीकरण राजनीतिक दृष्टिï से जोखिमभरा हो गया है। सुधारों को लेकर बहस बंद है और लोकलुभावन वादे बढ़ते जा रहे हैं।