पोषण के मामले में भारत की स्थिति काफी पिछड़ी हुई है। जबकि मानव विकास के लिए पोषण एक आधारभूत स्तंभ का काम करता है। संयुक्त राष्ट्र की 2017 की पोषण पर आधारित रिपोर्ट में पोषण नीति में सुधार हेतु संकेत दिए गए हैं।
- पाँच एजेंसियों की इकट्ठी वैश्विक रिपोर्ट में 2000 में कुपोषण के जिस स्तर में कमी आई थी, वह 2013 से क्रमशः बढ़ते हुए 2016 में चिंताजनक स्थिति पर पहुँच गई।
- विश्व के संघर्षरत एवं जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में पोषण की अत्यधिक कमी है।
- बच्चों में, आज भी चार में से एक बच्चा कुपोषित कहा जा सकता है।
- वैश्विक आर्थिक मंदी, अनेक हिंसात्मक संघर्ष, कृषि की विफलता आदि से खाद्य सामग्री का दुर्लभ और महंगे होते जाना, कुपोषण का मुख्य कारण है
भारत की स्थिति
- भारत में खाद्य सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित करने और पोषण के स्तर को बनाए रखने का काम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत आता है।
- महिलाओं और बच्चों में पोषण के स्तर को बनाए रखने के लिए विशेष योजनाएं चलाई जाती हैं। इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र के 2015-16 के आकलन के अनुसार भारत में 14.5 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषण का शिकार है।
- राष्ट्रीय स्तर पर 53 प्रतिशत महिलाएं रक्ताल्पता की शिकार हैं।
- केन्द्र सरकार के अनुसार, पिछले पाँच वर्षों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से संबंधित 3,888 शिकायतें दर्ज की गई हैं। यह केन्द्र एवं राज्य सरकारों की, कुपोषण को खत्म करने की प्रतिबद्धता की पोल खोलता है।
- नीति आयोग द्वारा दो वर्ष पूर्व जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया था कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों ने दूध के बजाय गेहू और चावल का अधिक सेवन किया है। जबकि पोषण के लिए अनाज के साथ-साथ डेयरी उत्पाद का भी बराबर का महत्व है।
पोषण की कमी से संबंधित रिपोर्ट का उद्देश्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से इस पर निर्भर रहने वाले लोगों में आहार-विविधता का आकलन करना है। परंतु राज्य खाद्य आयोग की कार्यप्रणाली में अभी भी कोई बदलाव नहीं आया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य को लक्ष्य बनाकर पोषक भोजन का वितरण करना, अभी भी राजनैतिक एजेंडे में शामिल नहीं हो पाया है। जिन राज्यों में इसका महत्व समझा गया है, वहाँ सरकारी नीतियों की जटिलताओं से इसे लागू करने में अनके मुश्किलें आती हैं।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 25 जून, 2018