शोक के साथ मैत्री संदेश
ऐसे क्षण दुर्लभ ही होते हैं, जब सक्रिय राजनीति से किनारा कर चुके किसी राजनेता के अंतिम संस्कार में उसकी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ दूसरे दलों के नेताओं के साथ बड़ी संख्या में आम लोग भी जुटें। अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा के वक्त ऐसा ही देखने को मिला तो इसीलिए कि वह केवल एक बड़े राजनेता ही नहीं, लोगों के दिलों पर राज करने वाली शख्सियत थे। उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री करीब छह साल के अपने कार्यकाल में किस तरह देश के साथ-साथ देश के बाहर भी अपनी छाप छोड़ी, इसकी पुष्टि अमेरिका और रूस सरीखे देशों की ओर से व्यक्त की गई संवेदनाओं से भी होती है और पड़ोसी देशों के उन प्रतिनिधियों के भारत आगमन से भी, जो उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए। नि:संदेह ये प्रतिनिधि इसलिए भी नई दिल्ली आए कि वे इससे परिचित हैं कि भारत ने अपने सबसे चहेते राजनेता को खोया है और वह उनके विछोह में शोकाकुल है। श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल आदि के साथ ही पाकिस्तान के प्रतिनिधि ने भारत के शोक में श्ाामिल होकर केवल अटल बिहारी वाजपेयी को ही श्रद्धांजलि अर्पित नहीं की, बल्कि भारत के प्रति अपने मैत्री भाव को भी प्रकट किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते हुए इस मैत्री भाव को किस तरह पुष्ट किया, इससे सभी अच्छी तरह परिचित हैं और शायद पाकिस्तान सबसे अधिक। उसे यह अच्छी तरह याद होना चाहिए कि उन्होंने पड़ोसी देशों और खासकर पाकिस्तान को यह भरोसा दिलाने की हरसंभव कोशिश की थी कि भारत उसके हित में अपना हित देखता है। उन्होंने पाकिस्तान की धरती पर बिना किसी संकोच कहा था कि आपका मुल्क तो अपनी ही मुहर से चलता है। दुर्भाग्य से इसके बाद भी उन्हें धोखा मिला। उस धोखे को भूला नहीं जा सकता। यह बात और है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने इस धोखे के बावजूद पाकिस्तान को एक और मौका दिया। वह भी व्यर्थ गया।
यह एक तथ्य है कि अटल बिहारी वाजपेयी अपने कार्यकाल में न केवल कश्मीर समस्या का समाधान चाहते थे, बल्कि पाकिस्तान से संबंध भी पटरी पर लाना चाहते थे। उनके बाद बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इसके लिए खूब कोशिश की कि पाकिस्तान से संबंध सुधर जाएं। वह भी नाकाम रहे। इस सिलसिले को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी गति दी। वह भी अटल बिहारी वाजपेयी की तरह लाहौर गए, लेकिन उन्हें भी धोखा मिला। कहना कठिन है कि अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने जा रहे इमरान खान की ओर से संवेदना प्रकट करने और फिर पाकिस्तान से एक प्रतिनिधिमंडल आने के पीछे भारत को मैत्री संदेश देना है या फिर औपचारिकता का निर्वाह भर करना, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि शोक और संवेदना के ऐसे अवसर भी राजनीति के साथ-साथ कूटनीति की दशा-दिशा पर असर डालते हैं। यह समय बताएगा कि पाकिस्तान अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति अपना श्रद्धाभाव व्यक्त करने से आगे बढ़ना चाहता है या नहीं, लेकिन उसे उनकी यह उक्ति याद रहे तो बेहतर कि आप दोस्त बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं।