(1-11-2021) समाचारपत्रों-के-संपादक
पर्यावरण बचाने के लिए हर साल की तरह इस बार भी दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देश ब्रिटेन के ग्लासगो में जुटे हैं। सीओपी (कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज) 26 सम्मेलन में सभी देश एक बार फिर इस मुद्दे पर गहन चर्चा करेंगे कि कार्बन उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि धरती का पर्यावरण लगातार बिगड़ रहा है। वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा। इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं चेती तो इक्कीसवीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। ग्लासगो में हो रहे इस पर्यावरण सम्मेलन का महत्त्व इसलिए भी बढ़ गया है क्योंकि अब पर्यावरण बिगाड़ने के जिम्मेदार देशों को भविष्य का खाका तैयार करना है। उन्हें बताना है कि कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए वे क्या करने जा रहे हैं। धरती को बचाने के प्रयासों में सबसे बड़ी मुश्किल यह आ रही है कि अमीर देश अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटते रहे हैं और कार्बन उत्सर्जन के लिए गरीब मुल्कों को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। इसलिए सम्मेलनों का मकसद कभी पूरा नहीं हो पाता।
दुनिया का शायद ही कोई देश होगा जो जलवायु संकट की मार नहीं झेल रहा होगा। हालांकि यह संकट कोई एकाध दशक की देन नहीं है। पिछली दो सदियों में हुए औद्योगिक विकास की अति ने पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर पिछले करीब पांच दशकों में यह संकट कहीं ज्यादा गहराया है। इसी का नतीजा है कि अब हम बेमौसम की बारिश, बाढ़, सूखा, धधकते जंगल, पिघलते ग्लेशियर, समुद्रों का बढ़ता जलस्तर और इससे तटीय शहरों और द्वीपों के डूबने के खतरे और बढ़ते वायु प्रदूषण जैसे संकट झेल रहे हैं।
कुछ महीने पहले यूरोप के देशों में जैसी बाढ़ आई, वैसी तो कई सदियों में नहीं देखी गई। अमेरिका सहित कई देशों में जंगलों में आग की घटनाएं वायुमंडल में कितनी कार्बन आक्साइड छोड़ रही होंगी, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। ये घटनाएं हमें चेतावनी दे रही हैं। पर हैरानी की बात की बात यह कि दुनिया के ताकतवर मुल्क सम्मेलनों से आगे नहीं बढ़ पा रहे।
कुछ महीने पहले यूरोप के देशों में जैसी बाढ़ आई, वैसी तो कई सदियों में नहीं देखी गई। अमेरिका सहित कई देशों में जंगलों में आग की घटनाएं वायुमंडल में कितनी कार्बन आक्साइड छोड़ रही होंगी, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। ये घटनाएं हमें चेतावनी दे रही हैं। पर हैरानी की बात की बात यह कि दुनिया के ताकतवर मुल्क सम्मेलनों से आगे नहीं बढ़ पा रहे।
धरती को बचाने के लिए काम किसी एक देश को नहीं, बल्कि सबको मिल कर करना है। इसलिए यह जिम्मेदारी सबकी बनती है कि सम्मेलन में जो सहमति बने और समझौते हों, उन पर ईमानदारी से अमल हो। पर व्यवहार में ऐसा देखने में आता कहां है! अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य दूसरे देशों पर तो थोप रहे हैं, पर वही इस दिशा में बढ़ने से कन्नी काट रहे हैं। सवाल है कि आखिर क्यों अमेरिका, ब्रिटेन, चीन जैसे देश अपने यहां कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को बंद कर नहीं कर रहे। यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका 2017 में पेरिस समझौते से सिर्फ अपने हितों के कारण पीछे हट गया था।कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए विकसित और विकासशील देशों के लक्ष्य भी स्पष्ट होने चाहिए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए विकासशील देशों को जितना पैसा मिलना चाहिए, वह मिल नहीं रहा। ऐसे में वे अपने यहां उन योजनाओं को लागू ही नहीं कर पा रहे, जिनसे कार्बन उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है। वैश्विक पर्यावरण सम्मेलनों की सार्थकता तभी है जब इसे अमीर बनाम गरीब न बनाया जाए। सारे देश मिल कर साझा एजंडे पर बढ़ें। वरना पर्यावरण बिगाड़ने का ठीकरा गरीब देशों पर फूटता रहेगा और धरती का खतरा बढ़ता जाएगा।
भारत नई रोशनी बनकर उभरा
अश्विनी कुमार चौबे, ( लेखक केंद्रीय पर्यावरण‚ वन एवं जलवायु परिवर्तन तथा उपभोक्ता मामले‚ खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण, प्रणाली राज्य मंत्री हैं )
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए जो वैश्विक प्रयास चल रहे हैं‚ उनसे बेशक‚ भारत नई रोशनी बनकर उभरा है। पर्यावरण प्रदूषण के विकराल संकट के विरुद्ध बड़ी ताकत बन रहा है। हम न केवल पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में कार्य कर रहे हैं‚ बल्कि इससे भी आगे जाकर नये कदम उठा रहे हैं। भारत का संचयी और वर्तमान प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक कार्बन बजट के अपने उचित हिस्से से काफी नीचे और बहुत कम है।
पर्यावरण के मद्देनजर किए जाने वाले प्रयासों में अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना‚ आपदा प्रतिरोधी ढांचे के लिए गठबंधन‚ घरेलू नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य को वर्ष 2030 तक 450 गीगा वॉट तक बढ़ाना और महत्वकांक्षी राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन की स्थापना के साथ ही अपने उत्सर्जन को आर्थिक विकास से अलग करने के निरंतर प्रयास शामिल हैं। इस कड़ी में भारत तेजी से अक्षय ऊर्जा के अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहा है। पिछले सात सालों में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की भागीदारी कई गुना बढ़ी है। इसी क्रम में भारत में इस समय दुनिया का सबसे बड़ा स्वच्छ ऊर्जा कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
इस कार्यक्रम के तहत 175 गीगा वॉट की क्षमता हासिल करने का लक्ष्य है। इसके तहत वर्ष 2022 तक 100 गीगा वॉट और वर्ष 2030 तक 450 गीगा वॉट सौर ऊर्जा का उत्पादन लक्ष्य रखा गया है। कहना न होगा कि उत्साही सार्वजनिक प्रयासों से प्रेरित हम पेरिस संबंधी अपनी प्रतिबद्धताओं और लक्ष्यों को पार करने के रास्ते पर हैं। वर्ष 2005 के स्तर से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता 33 से 35 प्रतिशत तक घटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसके अलावा‚ भूमि क्षरण तटस्थता संबंधी अपनी प्रतिबद्धता को लेकर भी भारत लगातार प्रगति कर रहा है। भारत में नवीकरणीय ऊर्जा भी रफ्तार पकड़ रही है। कहने की जरूरत नहीं कि न्यायसंगत पहुंच के बगैर सतत विकास अधूरा है। इस दिशा में भी भारत ने अच्छी प्रगति की है। मार्च‚ 2019 में ही भारत ने लगभग सौ प्रतिशत विद्युतीकरण करने का लक्ष्य हासिल कर लिया था। ऐसा सतत तकनीक और नवाचार मॉडलों के जरिए ही संभव हुआ। उत्साहजनक बात है कि उजाला कार्यक्रम के माध्यम से 36.7 करोड़ एलईडी बल्ब लोगों के जीवन का अटूट हिस्सा बन गए हैं। इनके इस्तेमाल से भारत में सालाना 80 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन घटाया जा सका है। इसी प्रकार जल जीवन मिशन ने लगभग 18 महीनों में ही 3.40 करोड़ से ज्यादा परिवारों को नल कनेक्शन से जोड़ा है। पीएम उज्ज्वला योजना भी गरीबों का सशक्तिकरण कर रही है। इस महत्वकांक्षी योजना के जरिए गरीबी रेखा से नीचे रहने को विवश 8 करोड़ से ज्यादा परिवारों को खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन मुहैया कराया जा सका है। ऊर्जा संबंधी योजनाओं के परिणामोन्मुख परिणामों से उत्साहित भारत एनर्जी बास्केट में प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी को मौजूदा 6 से बढ़ाकर 15 प्रतिशत करने को तत्पर है। जिस तरह से प्रतिबद्धताओं को पूरा किया जा रहा है‚ उससे कहा जा सकता है कि भारत शुद्ध पर्यावरण की दिशा में अपने लक्ष्यों को अच्छे से पूरा कर सकेगा। जैसा कि मैंने पहले बताया कि वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में 33 से 35 प्रतिशत की कमी के लक्ष्य के मुकाबले भारत वर्ष 2005 के उत्सर्जन स्तर से 28 प्रतिशत की कमी पहले ही हासिल कर चुका है। इस गति से वर्ष 2030 से पहले ही अपनी एनडीसी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए पूरी तरह तैयार है। गौरतलब है कि भारत नवीकरणीय ऊर्जा में 38.5 प्रतिशत स्थापित क्षमता पहले ही हासिल कर चुका है। मौजूदा समय में यदि निर्माणाधीन नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का भी हिसाब लगाया जाए तो कुल स्थापित क्षमता में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी 48 प्रतिशत से अधिक हो जाती है‚ जो पेरिस समझौते के तहत की गई प्रतिबद्धताओं से काफी अधिक है।
राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन की घोषणा के साथ–साथ हमारा उद्देश्य देश को हरित हाइड्रोजन के उत्पादन और निर्यात के लिए वैश्विक केंद्र बनाना है। जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले की प्राचीर से 75वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था‚ हरित हाइड्रोजन भारत को अपने लक्ष्यों को हासिल करने में ऊंची छलांग के साथ मददगार होगा। भारत सरकार के ऐसे कई महत्वपूर्ण प्रयास जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने में मील के पत्थर साबित हो रहे हैं।