(06-01-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक
Date:06-01-22
प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध देश की छवि पर चोट है
संपादकीय
पाकिस्तान सीमा से सटे पंजाब के इलाके में प्रधानमंत्री के काफिले को 20 मिनट तक रोका जाना स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक अशोभनीय घटना है। आईएसआई की गतिविधि, अशांति का इतिहास और किसानों की नाराजगी के मद्देनजर राज्य सरकार को सुरक्षा प्रबंधों को लेकर अतिरिक्त व्यवस्था करनी चाहिए थी। प्रजातंत्र में सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ प्रदर्शन एक आम प्रक्रिया है लेकिन उस देश में जहां हमारे प्रधानमंत्री तक आतंकी गतिविधियों की भेंट चढ़ चुके हों, ऐसी चूक अक्षम्य है। कांग्रेस की प्रतिक्रिया बेहद हल्की और सतही है, क्योंकि सुरक्षा चूक की कीमत संभवत: उससे ज्यादा कोई अन्य नहीं जानता होगा। आउटर सुरक्षा रिंग या सभी अन्य किस्म की सुरक्षा भारतीय संघीय ढांचे में राज्य सरकार की जिम्मेदारी होती है। उसे पीएमओ के साथ समन्वय करके मुख्य और वैकल्पिक रूट्स की तैयारी करनी होती है। यह कोई बचाव नहीं हो सकता कि अंतिम समय रूट बदला गया। अगर राज्य के पुलिस चीफ ने सहमति दे दी है तो उसके बाद वह यह नहीं कह सकता कि भीड़ अचानक आ गई। काफिले को अवरुद्ध किया गया था जिससे पीएम को फ्लाईओवर पर रुकना पड़ा। बहरहाल राज्य सरकार ने स्थानीय एसएसपी को सस्पेंड करके कुछ हद तक गलती मानी है जो एक अच्छा संदेश है। मुख्यमंत्री को यह भी देखना होगा कि क्या डीजीपी ने अन्य जिलों से फोर्स भेजने की समुचित व्यवस्था की थी? ध्यान रहे कि पीएम की सुरक्षा में सेंध का संदेश दुनिया में हमारी छवि खराब करता है। दूसरा, अगर यह राजनीतिक विद्वेष के भाव से किया गया है तो यूपी और उत्तराखंड में भी चुनाव हैं और जहां राजनीतिक परिदृश्य ठीक उलट है यानी भाजपा शासन में और कांग्रेस के प्रमुख नेता चुनावी जंग में हैं। हम संवैधानिक मर्यादाओं की बलि राजनीति की चौखट पर न दें।
Date:06-01-22
बदलाव के साथ लौटी शक्ति की राजनीति
हर्ष वी पंत, ( लेखक किंग्स कॉलेज लंदन में प्रोफेसर और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में शोध निदेशक हैं )
अब यह सुझाव देना घिसा-पिटा हो चुका है कि कोविड-19 महामारी का वैश्विक राजनीति पर बदलावकारी असर पड़ा है। असल में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में किसी स्वास्थ्य मुद्दे का केंद्र बिंदु बनना दुर्लभ है, लेकिन पहले भी महामारियों ने काफी हद तक वैश्विक समीकरणों को बदला है। पिछले कई दशकों से सुरक्षा की बदलती प्रकृति पर बहस चल रही थीं, लेकिन कोविड-19 के हमले ने दुनिया को अहसास करा दिया कि ये तथाकथित गैर-परंपरागत सुरक्षा मुद्दे असल में परंपरागत मुद्दे हैं। दुनिया अब भी एक स्वास्थ्य संकट से जूझ रही है, जो अब एक संपत्ति संकट में तब्दील हो चुका है। ऐसे में नीति-निर्माताओं को बड़े स्तर पर अपने अनुमानों का फिर से आकलन करना पड़ रहा है।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति का भी अपना एक तर्क है। महामारी से और इसके बिना भी 1945 के बाद की वैश्विक व्यवस्था बदलने लगी थी। कोविड ने कई तरह से उन रुझानों की रफ्तार बढ़ाई है, जो पिछले साल वुहान से तबाही आने से पहले भी नजर आ रहे थे। असल में बड़ी राजनीतिक शक्तियों को खुद को उजागर करने के लिए किसी महामारी की जरूरत नहीं होती है। चीन के उभार ने वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था हिला दी है। महामारी से इसने उन वििवध आयामों को उजागर किया है, जो 21वीं सदी के तीसरे दशक में एक शक्ति के उभार से प्रभावित हुए हैं। यह शक्ति असल में यथास्थिति को बदलना चाहती है।
शी चिनफिंग की अगुआई में चीन अपनी ताकत को छिपा या उचित मौके का इंतजार नहीं कर रहा है। चीन के शासक ने घोषणा कर दी है कि चीन का समय आ गया है और दुनिया को इस पर ध्यान देना चाहिए। भले ही आज का चीन हिटलर के जर्मनी जैसा नहीं हो, लेकिन उसका व्यवहार दूसरे विश्व युद्ध से पहले यूरोप में ताकत की होड़ जैसा ही है। एक उभरती ताकत वैश्विक व्यवस्था के आधार को चुनौती दे रही है, जिसे शेष दुनिया में ज्यादातर ने स्वीकार करना शुरू कर दिया था। मौजूदा शक्ति अमेरिका अब तक अपने जवाब में कमजोर नजर आई है, जिसके नतीजतन बड़ी उठापटक के दौर के हालात पैदा हो चुके हैं।
इस साल ने यह साफ किया है कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा महज डॉनल्ड ट्रंप की कल्पना नहीं है। उनकी जगह लेने वाले जो बाइडन ने इस मुद्दे को धार दी है और उन मुद्दों का दायरा बढ़ा दिया है, जिनमें प्रतिस्पर्धा होने के आसार हैं। यह विवाद बढ़ रहा है, जिसमें मानवाधिकार से लेकर तकनीक और आपूर्ति शृंखला से लेकर रक्षा तक शामिल हैं। इससे न केवल अन्य देशों (मित्र और शत्रु दोनों) बल्कि वैश्विक व्यवस्था के संस्थागत ताने-बाने पर भी दबाव पैदा हो रहा है।
यह एशिया-प्रशांत से ज्यादा कहीं भी स्पष्ट नहीं है, जहां नई शक्तियां उभर रही हैं और स्थापित शक्तियां जंग के नए नियम तैयार करने की कोशिश कर रही हैं। इस पूरे क्षेत्र में कोई अहम संगठन नहीं होने से क्वाड और ऑकस जैसे संगठन उभर रहे हैं। इस क्षेत्र में समीकरण बदल रहे हैं क्योंकि इच्छुक देशों के गठबंधन तेजी से उभरते हैं। हालांकि अमेरिका-चीन की प्रतिद्वंद्विता बदलता रुझान है, जिससे क्षेत्र नया आकार ले रहा है। लेकिन मध्यवर्ती शक्तियां आखिरकार मानक और संस्थागत क्षेत्र को आकार देने और चीन की आक्रामकता के खिलाफ खड़े होने जैसे कदम उठा रही हैं। यह भी धारणा है कि अमेरिका भी अपनी घरेलू मजबूरियों से बंधा हो सकता है, जिससे मध्यवर्ती शक्तियों को ज्यादा स्वायत्तता मिल रही है। वे इसका कैसे इस्तेमाल कर पाती हैं, यह तो बाद में ही पता चल जाएगा।
लोकतंत्रों और अधिनायकवादी मॉडलों के बीच खाई भी बीते साल चौड़ी हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा बुलाए गए ‘लोकतंत्र सम्मेलन’ का मकसद न केवल साथी लोकतांत्रिक देशों में एकता की भावना पैदा करना था बल्कि यह वैश्विक नेताओं को आह्वान था कि वे लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने के लिए उनके साथ मिलकर काम करें, जिस समय चीन एवं रूस जैसी अधिनायकवादी शासन व्यवस्थाएं आगे बढ़ रही हैं और दुनिया भर में लोकतंत्र पीछे जा रहे हैं। अमेरिका का ध्यान चीन की तरफ से दी जा रही राजनीति चुनौती पर केंद्रित हो गया है, इसलिए वह आर्थिक साझेदारों को भी पटरी पर आने को कह रहा है। हाल में अमेरिका के आर्थिक वृद्धि, ऊर्जा और पर्यावरण उप मंत्री जोस डब्ल्यू फर्नांडिस ने अमेरिकी कारोबारी समुदाय से आग्रह किया कि वे अमेरिका-चीन की रणनीतिक प्रतिस्पर्धा में खुद को महज तमाशबीन के रूप में न देखें बल्कि इस बात का ध्यान रखें कि आपकी गतिविधियां कैसे अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा और हमारे लिए अत्यंत प्रिय बुनियादी मूल्यों को प्रभावित कर सकती है। यह राजनीति को आर्थिक हितों से कम अहम मानने की नीति में अहम बदलाव है, जिसमें राजनीतिक लक्ष्यों की सर्वोच्चता का फिर से आकलन किया जा रहा है।
ताकत की तगड़ी राजनीति वैश्विक व्यवस्था के हर आयाम- जलवायु परिवर्तन एवं सतत विकास, बुनियादी ढांचा एवं संपर्क, व्यापार साझेदारी की राह, चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए तकनीकी विकास और वैश्विक स्वास्थ्य प्रतिमानों को फिर से आकार दे रही है। भारत की विदेश एवं सुरक्षा नीति को अन्य देशों की तरह इन बदलावों से तालमेल बैठाना पड़ेगा। लेकिन इस बार हम इसे सही दिशा दे सके और अपने वैचारिक सिद्धांतों को छोड़ सके तो वैश्विक राजनीति में बदलाव का पड़ाव भारत को सही मायनों में अग्रणी ताकत के रूप में उभरने का मौका दे सकता है।
Date:06-01-22
सुरक्षा में चूक
संपादकीय
प्रधानमंत्री का काफिला पंद्रह से बीस मिनट तक इसलिए रुका रहा कि किसान आंदोलनकारियों ने रास्ता रोक रखा था। आखिरकार उन्हें वापस लौटना पड़ा। पंजाब के फिरोजपुर में उनका तय कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। यह निस्संदेह प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर बड़ी चूक है। हालांकि प्रधानमंत्री के उस सड़क से होकर गुजरने की सूचना पंजाब पुलिस को पहले ही दे दी गई थी, फिर भी अगर किसान आंदोलनाकारियों को वहां से नहीं हटाया जा सका, तो इससे पुलिस की भारी लापरवाही जाहिर होती है। इसे लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पंजाब पुलिस से स्पष्टीकरण मांगा है। हुआ यों कि प्रधानमंत्री को बठिंडा से फिरोजपुर के हुसैनीवाला राष्ट्रीय शहीद स्मारक जाना था। यह यात्रा पहले उन्हें हेलिकाप्टर से करनी थी, मगर मौसम खराब होने और दृश्यता कम होने के कारण हेलिकाप्टर के बजाय उन्हें सड़क मार्ग से ले जाने का आकस्मिक कार्यक्रम तय कर दिया गया। उन्हें बठिंडा से फिरोजपुर तक पहुंचने में दो घंटे लगने थे। इसके बारे में पंजाब पुलिस को सूचित कर दिया गया। यों पहले से वहां की पुलिस को प्रधानमंत्री के कार्यक्रम की जानकारी दे दी गई थी, जिसके अनुसार उसे सड़क पर सुरक्षा व्यवस्था रखनी थी, मगर वह नहीं की गई। आमतौर पर प्रधानमंत्री के दौरों के वक्त पहले से सड़कों के किनारे पुख्ता सुरक्षा इंतजाम किए जाते हैं। इसलिए इस घटना को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
इस घटना को भाजपा साजिश करार दे रही है। खुद प्रधानमंत्री ने भी पंजाब के मुख्यमंत्री को आड़े हाथों लेते हुए संदेश लिखा। यह समझ से परे है कि पंजाब पुलिस और खुफिया विभाग को उस रास्ते की स्थिति की जानकारी कैसे नहीं थी, जिससे होकर प्रधानमंत्री का काफिला गुजरना था। अगर उस सड़क पर किसान पहले से धरना दे रहे थे, तो उन्हें हटाया क्यों नहीं गया। क्या उन्हें वहां से हटाना इतना मुश्किल काम था। अगर मुश्किल काम था, तो प्रधानमंत्री के काफिले की सुरक्षा संभाल रहे कर्मियों को इसकी सूचना समय रहते क्यों नहीं दी गई, ताकि दूसरा कोई सुरक्षित रास्ता चुना जा सके। अगर किसान वहां पहले से मौजूद नहीं थे, तो फिर उन्हें अचानक इसकी सूचना कैसे मिल गई कि प्रधानमंत्री उधर से होकर गुजरने वाले हैं और वे इतने कम समय में इतनी बड़ी तादाद में जमा कैसे हो गए। पंजाब पुलिस का किसान आंदोलनकारियों के प्रति नरम रवैया समझ में आता है, मगर प्रधानमंत्री की सुरक्षा को ताक पर रख यह नरमी बरतना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर काफी सख्त नियम-कायदे हैं। किसी राज्य में बेशक भिन्न दल की सरकार हो, पर वह प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर किसी प्रकार की लापरवाही नहीं बरत सकती। हालांकि प्रधानमंत्री के सुरक्षा घेरे में शामिल अधिकारियों को पल-पल की सूचनाएं मिलती रहती हैं और वे अपने दम पर सुरक्षा के लिए पर्याप्त होते हैं, पर वे भी बिना राज्य पुलिस की मदद के आगे नहीं बढ़ सकते। इस मामले में सरकारों के दलगत या वैचारिक आग्रह आडे नहीं आने चाहिए। इसलिए यह ज्यादा गंभीर मामला माना जा रहा है कि खुफिया सूचनाएं कैसे प्रधानमंत्री के सुरक्षा दस्ते को ठीक से नहीं पहुंचाई जा पाई, जिससे यह व्यवधान पैदा हो गया। बेशक किसानों को अपनी आपत्ति दर्ज कराने का अधिकार है और अब तक उनके आंदोलन शांतिपूर्ण ही रहे हैं, पर इस आधार पर प्रधानमंत्री की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।
Date:06-01-22
घृणा भाषण के विरुद्ध
संपादकीय
देश में जारी असहिष्णुता के माहौल के बीच उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने केरल में कैथोलिक समुदाय के आध्यात्मिक नेता संत कुरियाकोस इलियास चावरा की 150वीं पुण्यतिथि के अवसर पर दूसरे धर्मो की बुराई करने और समाज में विभाजन पैदा करने के प्रयासों के विरुद्ध असंतोष जाहिर किया और कहा कि प्रत्येक नागरिक को देश में अपने धार्मिक विश्वासों का पालन करने का अधिकार है। उन्होंने यह भी कहा कि अपने धर्म का पालन करें, लेकिन घृणा भाषण और लेखनी से दूर रहें। धर्मनिरपेक्षता प्रत्येक भारतीय के रक्त में है। उपराष्ट्रपति नायडू के उद्बोधन का स्वागत किया जाना चाहिए। वास्तव में उनके इस विचार को देश में अल्पसंख्यक समूहों को कुछ कथित संतों द्वारा लगातार निशाना बनाए जाने के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। देश के शीषर्स्थ पद पर बैठे नायडू पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अल्पसंख्यक समूहों के विरुद्ध दिए जा रहे घृणा भाषणों की आलोचना की है। पिछले दिनों हरिद्वार और रायपुर में आयोजित हिंदू संस्था धर्म संसद में कथित संत धर्म दास, साध्वी अन्नपूर्णा और कालीचरण ने अपने भाषणों में मुसलमानों के प्रति विद्वेष भरी बातें कही थीं। इन संतों ने इस्लाम को देश के लिए खतरा बताया और हिंदुओं को एकजुट होने का आह्वान भी कर दिया। देश के कुछ प्रबुद्ध जनों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इन संतों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की मांग की है। अनेक वरिष्ठ वकीलों ने भी प्रधान न्यायाधीश से इस मसले का स्वत: संज्ञान लेने का आग्रह किया है। भारत धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी देश है, जिसका उल्लेख उपराष्ट्रपति नायडू ने अपने उदबोधन में किया है। बहुलवाद का अर्थ उस समाज या सरकार से है जो विभिन्न अल्पसंख्यक समूहों को बहुसंख्यक समूहों के साथ रहकर अपनी सांस्कृतिक पहचान, मूल्यों तथा परंपराओं को बचाए रखने की स्वीकृति प्रदान करता है। विविधता में एकता भारतीय राज्य की विशिष्टता है। जाहिर है कि घृणा भाषणों और लेखनी से देश की यह विशिष्टता कमजोर होती है। उपराष्ट्रपति नायडू ने अपने उद्बोधन में इसी खतरे के प्रति लोगों को सतर्क किया है। देश की किसी भी गंभीर समस्या या मुद्दों पर शीषर्स्थ राजनीतिक व्यक्तियों के उद्बोधन का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। किसी विशेष समुदाय के प्रति घृणा भाषण या लेखन को रोकने के लिए देश के अन्य शीषर्स्थ राजनीतिक व्यक्तियों को भी आगे आकर इस तरह की नकारात्मक और समाज विरोधी प्रवृत्तियों की आलोचना करनी चाहिए। हालांकि संत कालीचरण को गिरफ्तार किया जा चुका है और हरिद्वार की घटना के लिए उत्तराखंड की सरकार ने एसआईटी से जांच कराने की घोषणा की है लेकिन इस तरह के विभाजनकारी भाषणों की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को एकजुट होकर ठोस कदम उठाने चाहिए।
Date:06-01-22
पहचान पत्र को करेगा एकीकृत?
प्रभात सिन्हा, ( लेखक आईटी विषयों के विशेषज्ञ हैं )
पिछले वर्षो में आधार कार्ड की महत्ता तेजी से बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना हो, सार्वजनिक वितरण प्रणाली हो, वृद्धावस्था पेंशन हो या बेरोजगारी भत्ता, किसी भी योजना का उपभोग आधार कार्ड के बिना नामुमकिन नहीं तो कठिन अवश्य हो गया है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में हालिया संशोधन, जिसके अंतर्गत मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोड़ा जाना है, आधार कार्ड के बढ़ते महत्त्व का ही परिचायक है
देश में संसदीय चुनावों को सुचारु रूप से चलाने के लिए 1950 में ही लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम बनाया गया था। 1950 का अधिनियम चुनावों के लिए सीटों के आवंटन और निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन, मतदाताओं की योग्यता और मतदाता सूची तैयार करने की व्याख्या करता है। 1951 में अधिनियम का विस्तार कर चुनावों के संचालन और चुनावों से संबंधित अपराधों और विवादों का प्रावधान किया गया। भारतीय चुनाव आयोग की स्थापना लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत स्वायत्त संस्था के तौर पर की गई थी। चुनाव आयोग ने पिछले कई वर्षो में तकनीक के उपयोग से त्रुटिहीन, पारदर्शी और पक्षपातरहित चुनाव कराने की दिशा में नये आयाम हासिल किए हैं। हालांकि फर्जी वोटिंग और एक ही नागरिक का अनेक जगहों पर मतदाता के तौर पर नामांकित होना अभी भी बड़ी समस्या है। इन्हीं समस्याओं के निदान के लिए भारत सरकार ने 20 दिसम्बर, 2021 को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया, जिसको संसद के दोनों सदनों ने पारित भी कर दिया।
नये संशोधित नियम के अनुसार अब मतदाता पंजीकरण के लिए पहचान पत्र के तौर पर आधार कार्ड प्रस्तुत करना होगा। मतदाता पहले से ही पंजीकृत है तो उसके पहचान का सत्यापन आधार कार्ड से किया जाएगा। हालांकि आधार कार्ड की अनुपलब्धता और त्रुटि होने की स्थिति में दूसरे पहचान पत्र को पेश करने का प्रावधान भी है। पहले मतदाता पंजी में अर्हता सिर्फ साल की शुरु आत में 1 जनवरी को तय की जाती थी। इसका मतलब 2 जनवरी को 18 वर्ष पुरा करने वाले नागरिक को मतदाता सूची में सम्मिलित होने के लिए अगले वर्ष की 1 जनवरी तक इंतजार करना पड़ता था। संशोधित नियम के अनुसार अब वर्ष में 4 बार 1 जनवरी, 1 अप्रैल, 1 जुलाई और 1 अक्टूबर को 18 वर्ष पुरा करने वाले नागरिक भी मतदाता सूची में शामिल हो सकते हैं।
आधार कार्ड में व्यक्ति से जुड़े बायोमेट्रिक डाटा के अलावा अन्य निजी जानकारी को संग्रहित किया जाता है, जिसके कारण सत्यापन आसान हो जाता है। लेकिन आधार कार्ड में संग्रहित व्यक्तिगत जानकारी का दुरु पयोग भी संभव है। 2021 में पुदुचेरी के निकाय चुनाव में आधार डाटा के गलत इस्तेमाल की बात सामने आई। आधार कार्ड में कई विसंगतियां पाई गई हैं, जैसे नाम, पिता का नाम, पता इत्यादि में त्रुटियां, फिंगरप्रिंट अथवा अन्य बायोमेट्रिक डाटा में असमानता। 2018 में प्राप्त डाटा के अनुसार सरकारी सेवाओं के सत्यापन में विफलता 12% तक थी, उसी प्रकार अन्य सुविधाओं से आधार कार्ड को जोड़ने की कवायद में विसंगतियों में वृद्धि ही पाई गई। जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के बाद सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की भूमिका अहम हो जाती है। संबंधित अधिकारियों को सुनिश्चित करना होगा कि आधार में त्रुटियों और अन्य विसंगतियों की स्थिति में मतदाताओं को ज्यादा परेशानी न हो। उन्हें सरकारी दफ्तरों के चक्कर और लंबी कतारों से भी बचाना होगा अन्यथा भविष्य में मतदान के लिए इच्छुक होने के बावजूद कुछ मतदाता अपने अधिकार का उपयोग नहीं कर पाएंगे। यह सुनिश्चित करना भी अनिवार्य हो जाता है कि किसी भी परिस्थिति में नागरिकों के व्यक्तिगत आंकड़ों का दुरु पयोग न हो पाए। दरअसल, आधार कार्ड को ज्यादा सुरक्षित बनाया जाना चाहिए और साइबर खतरों से बचने के लिए डेटा को एन्क्रिप्टेड रूप में स्टोर किया जाना चाहिए।
विभिन्न आईडी काडरे के लिंकेज से उत्पन्न परेशानियों से बचने के लिए एक एकीकृत राष्ट्रीय पहचान पत्र बनाने की संभावनाओं का विश्लेषण करना चाहिए। पिछले कुछ वर्षो में, सरकारी पहलों के कारण, आधार कार्ड को अधिकांश सरकारी, स्वायत्त और निजी संगठनों में पहचान का स्वीकार्य प्रमाण माना जाने लगा है। वोटर आईडी कार्ड से लिंक होने के बाद पहचान पत्र के रूप में आधार की स्वीकार्य और बढ़ेगी। आधार पहले से ही पैन कार्ड, बैंक खातों, राशन कार्ड और ज्यादातर सरकारी योजनाओं के साथ जुड़ा हुआ है; आगे चलकर ड्राइविंग लाइसेंस और अन्य आवश्यक पहचान पत्रों को जोड़कर आधार को एकीकृत पहचान पत्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकांश फैसलों में आधार के जबरन इस्तेमाल पर रोक लगाने का आदेश दिया है, लेकिन नागरिकों, निवासियों और प्रवासियों से जुड़ी जरूरी जानकारी को एक ही पहचान पत्र में शामिल करने से बेहतर प्रशासन सुनिश्चित होगा।
डिजिटल इंडिया पहलों और तकनीकी प्रगति को देखते हुए, इस लक्ष्य को प्राप्त करना अब दुर्गम नहीं है।
Date:06-01-22
सुरक्षा से समझौता
संपादकीय
प्रधानमंत्री का काफिला अगर किसी फ्लाईओवर पर 15-20 मिनट के लिए रुक जाए, तो यह न सिर्फ चिंता की बात, बल्कि गंभीर लापरवाही का प्रदर्शन है। प्रधानमंत्री का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था, उन्हें फिरोजपुर में एक रैली को संबोधित करना था, लेकिन जब काफिला रुक गया, तो उन्हें लौटना पड़ा। विशेषज्ञ इसे सुरक्षा में भारी चूक मान रहे हैं। पंजाब पहले आतंकवाद की जमीन रह चुका है, अत: वहां विशिष्ट लोगों की सुरक्षा चाक-चौबंद होनी चाहिए। प्रधानमंत्री की सुरक्षा तो विशेष रूप से सुनिश्चित होनी चाहिए, लेकिन पंजाब में यह शायद सरकार के स्तर पर हुई बड़ी चूक है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पंजाब सरकार से रिपोर्ट मांगी है और राज्य सरकार ने भी तत्काल कदम उठाते हुए फिरोजपुर के एसएसपी को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है। पंजाब सरकार को इस चूक की तह में जाना चाहिए। अगर यह चूक प्रशासन के स्तर पर हुई है, तो ऐसे लापरवाह अधिकारियों के लिए सेवा में कोई जगह नहीं होनी चाहिए और यदि इसके पीछे कोई सियासत है, तो इससे घृणित कुछ नहीं हो सकता। प्रदर्शनकारियों को पता था कि प्रधानमंत्री का काफिला गुजरने वाला है, लेकिन क्या यह बात सुरक्षा अधिकारियों को नहीं पता थी कि प्रधानमंत्री का रास्ता प्रदर्शनकारी रोकने वाले हैं?
यह बात कतई छिपी नहीं है कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां दुश्मन तत्वों की सक्रियता अक्सर सामने आती रहती है। ऐसे तत्वों के साथ अपराधी तत्वों का घालमेल हमें पहले भी मुसीबत में डाल चुका है। बेशक, इस देश के लोगों को प्रधानमंत्री से कुछ मांगने का पूरा हक है, लेकिन उनका रास्ता रोकने की हिमाकत किसी अपराध से कम नहीं है। गया वह जमाना, जब प्रधानमंत्री की लोगों के बीच सहज उपस्थिति संभव थी, अब पहले जैसा खतरा हम नहीं उठा सकते। क्या हमने एक प्रधानमंत्री और एक पूर्व प्रधानमंत्री को खोकर कुछ सीखा है? दिल्ली की सीमाओं पर महीनों तक बैठने और पंजाब में सीधे प्रधानमंत्री का रास्ता रोकने के बीच जमीन-आकाश का फासला है।
अब इसमें शक नहीं कि राजनीति तेज हो जाएगी, क्योंकि पंजाब में हुई इस चूक ने मौका दे दिया है। बताया जाता है कि प्रधानमंत्री ने भी इस चूक पर नाराजगी जताई है। अत: इस चूक को पूरी गंभीरता से लेते हुए पंजाब सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि उस राज्य में रास्ता रोकने की राजनीति अपनी हदों में रहे। ऐसे रास्ता रोकने की दुष्प्रवृत्ति पर तत्काल प्रहार की जरूरत है, ताकि आगे के लिए एक मिसाल बन जाए। आशंका है कि ऐसे रास्ता रोकने वालों को किसी प्रकार की कार्रवाई से बचाने के लिए भी पंजाब में राजनीति होगी। कोई आश्चर्य नहीं, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध की खबर के बाद वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर दी है। गंभीर राजनीति को ठोस समाधान के बारे में सोचना व बताना चाहिए, राष्ट्रपति शासन समाधान नहीं है। यह दुखद है कि अपने देश में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के बीच अक्सर समस्या जस की तस बनी रह जाती है। अपना तात्कालिक राजनीतिक मकसद हल करने के बाद नेता भी ऐसी मूलभूत चूक या समस्या को भुला देते हैं। इस बार ऐसा न हो, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी पंजाब सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय की है। उम्मीद कीजिए, पूरा सच और समाधान सामने आएगा।
क्या हम सिंगापुर से चुनाव सीखेंगे?
कमर वहीद नकवी, ( वरिष्ठ पत्रकार )
बरेली में लड़कियों की मैराथन में मची भगदड़ के बाद कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में चुनावी रैलियों और भीड़भाड़ वाले तमाम कार्यक्रमों को रद्द करने की घोषणा कर दी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी नोएडा में कोविड के बढ़ते मामलों के मद्देनजर 6 जनवरी की अपनी नोएडा रैली रद्द कर दी है। तेजी से संक्रमण फैलाने वाले ओमीक्रोन वेरिएंट और कोविड संक्रमण की तीसरी लहर के उभार का जो खतरा हमें दिख रहा है, उसमें राजनेताओं और राजनीतिक दलों की ऐसी सावधानी भरी पहल यकीनन स्वागत योग्य है।
लेकिन हम ऐसे कदम तब उठाने को सोचते हैं, जब कोई हादसा हो जाता है। कांग्रेस के मैराथन में जब हजारों लड़कियां बिना मास्क के शामिल हो रही थीं, तब किसी ने क्यों नहीं सोचा कि कोविड के इस दौर में इतनी भीड़ जुटाई जानी चाहिए थी या नहीं? और कुछ नहीं, तो कम से कम मास्क की पाबंदी तो लगाई होती? फिर कांग्रेस ही क्यों, राजनीति को बदलने के दावों के साथ आए अरविंद केजरीवाल खुद बिना मास्क अपनी चुनावी पदयात्राओं में भारी भीड़ के बीच घूम रहे थे और कोविड की चपेट में आ गए। सिर्फ केजरीवाल ही क्यों, भीड़ भरे कई कार्यक्रमों में बिना मास्क के शामिल होने पर अनेक नेता आलोचना का निशाना बन चुके हैं। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में तो चुनावी रैलियां न करने का एलान कर दिया, जहां उसकी उपस्थिति अब न के बराबर रह गई है, लेकिन पंजाब और उत्तराखंड में चुनावी रैलियां बंद करने या जारी रखने पर लगे हाथ घोषणा नहीं हुई।
सवाल यही है कि कोविड की तीसरी लहर का जो खतरा अब सिर पर आ चुका है, उसमें अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कैसे कराएं जाएं? कहने को तो चुनाव आयोग अगस्त 2020 में ही विस्तृत गाइडलाइन जारी कर चुका है कि कोविड काल में नामांकन, चुनाव-प्रचार और मतगणना के दौरान किस तरह के कोविड प्रोटोकॉल का पालन किया जाना चाहिए, पर व्यवहार में इसका पालन होता कहां है? 2021 के शुरू में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में न कहीं राजनेताओं ने, न राजनीतिक दलों ने इसकी कोई परवाह की और न ही उन अफसरों ने, जिनकी जिम्मेदारी थी कि वे निगरानी करें कि कोविड गाइडलाइन का पालन हो रहा है या नहीं।
हम देख चुके हैं कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा समेत सभी राजनीतिक दलों ने कैसे कोविड प्रोटोकॉल की खुलकर धज्जियां उड़ाईं और जैसे-जैसे चुनाव-प्रचार वहां नए इलाकों में बढ़ता गया, वैसे-वैसे वहां कोविड संक्रमण तेजी से बढ़ा और कई उम्मीदवारों की मौत भी हो गई। बाद में मद्रास हाइकोर्ट की कड़ी टिप्पणी के बाद चुनाव आयोग जागा और उसने चुनावी रैलियों में पांच सौ से ज्यादा की भीड़ पर रोक लगा दी। लेकिन उसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का पूरी तरह उल्लंघन हुआ। नतीजा, कोविड के मामले बेहद खतरनाक तौर पर बढ़े। उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ ने तो 1,621 शिक्षकों व दूसरे कर्मचारियों की सूची जारी कर दावा किया कि इनकी मौत कोविड से संक्रमित हो जाने से हुई।
चुनाव समय पर होना तो जरूरी है, उसे रोका नहीं जाना चाहिए। सवाल यही है कि चुनाव के समय क्या कोविड प्रोटोकॉल अपनाएं जाएं। चुनाव के दौरान कोविड गाइडलाइन के उल्लंघन के सबसे ज्यादा मामले नामांकन और चुनाव-प्रचार के दौरान आते हैं, जहां राजनीतिक दल बड़ी से बड़ी भीड़ जुटाकर शक्ति प्रदर्शन करते हैं। समय की मांग है कि अब इस तरीके को बदला जाना चाहिए। अगर कोविड ने ‘वर्क फ्रॉम होम’ की एक बिल्कुल नई कार्य-संस्कृति को जन्म दे दिया, तो क्या हम चुनाव-प्रचार और प्रक्रिया के नए व ऐसे सभ्य तरीके नहीं ढूंढ़ सकते, जिसमें भीड़, हो-हल्ला और बेमतलब का गुल-गपाड़ा किए बिना चुनाव हो जाएं।
आप में से कुछ बड़ी उम्र वालों को याद होगा कि पहले चुनावों के दौरान गली-गली दिन-रात छोटे-छोटे जुलूस निकलते थे, नारों और लाउडस्पीकरों के शोर से सिर भन्ना जाता था, पोस्टरों और झंडियों से दीवारें पटी रहती थीं। इन सबके बिना पहले हम चुनाव की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, लेकिन आज यह सब कुछ नहीं होता। ठीक इसी तरह वोट कभी मतपत्र से पड़ते थे, आज ईवीएम से पड़ते हैं और चटपट मतगणना हो जाती है। अगर ये सारी चीजें बदली जा चुकी हैं, तो आज के तरीके हम क्यों नहीं बदल सकते, जब हमारे पास कहीं बेहतर तकनीक और शानदार इंटरनेट कनेक्टिविटी है।
इसलिए यही सही समय है, जब चुनाव आयोग और राजनीतिक दल मिलकर इस बारे में सोचें कि भीड़ जुटाए बिना चुनाव कैसे कराए जाएं? यह इसलिए जरूरी है कि चुनाव आयोग चाहे जितनी ही कड़ी गाइडलाइन बना ले, तमाम कोशिशों के बावजूद उसका पालन करा पाना संभव नहीं होगा। तरह-तरह के विवाद उठेंगे, सो अलग और कुछ मामलों में तो चुनाव आयोग की साख को भी विवादों में घसीटा जा सकता है। गाइडलाइन के उल्लंघन का संकट केवल हमारा ही नहीं है, बल्कि दुनिया का शायद ही कोई देश हो, जहां कोविड प्रोटोकॉल के बड़े उल्लंघन के बिना चुनाव हो गए हों। 2020 में 51 देशों में हुए राष्ट्रीय चुनावों पर की गई एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें से कई देशों ने तो भीड़ की सीमा 20 या 50 या अधिक से अधिक 100 लोगों तक सीमित कर दी थी, लेकिन बहुत से मामलों में इसका पालन नहीं हो पाया। सिंगापुर अपवाद था, जिसने चुनावी सभाओं, रैलियों और भीड़ जुटाने पर पूरी तरह रोक लगा दी थी।
क्या चुनाव आयोग सिंगापुर से सीखकर ई-रैलियों के विकल्प पर नहीं सोच सकता? चुनाव आयोग चाहे, तो हर शहर में ई-रैलियों का एक दिन तय कर सकता है और वहां के प्रमुख स्थानों पर बड़ी-बड़ी वीडियो स्क्रीन लगा सकता है। हर राजनीतिक दल के स्टार प्रचारक को बोलने के लिए सुबह दस बजे से शाम सात बजे के बीच एक स्लॉट तय किया जा सकता है। सभी दलों के नेता अपने-अपने तय स्लॉट में भाषण करें और उसे अपने सोशल मीडिया चैनलों पर भी प्रसारित करें। अगले दिन ई-रैली किसी अन्य शहर में हो और उसके अगले दिन किसी और शहर में। इसका सारा खर्च चुनाव आयोग उठाए। इससे बेलगाम चुनावी खर्चों पर भी रोक लगेगी और छोटे या आर्थिक रूप से कमजोर दलों को भी चुनावी प्रक्रिया में बराबरी से भागीदारी का मौका मिलेगा। कोविड के संक्रमण फैलने का खतरा भी नहीं रहेगा। तो क्यों नहीं, इस पर विचार करके देखा जाए, महानुभावो?
Date:06-01-22
मां और बच्चों के पोषण में जहां हो रही है गलती
शीला सी वीर, ( वरिष्ठ पोषण विशेषज्ञ )
नवंबर में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के आंकडे़ भारत में कुपोषण की स्थिति में धीमी प्रगति के संकेत देते हैं। यह समस्या लगातार गंभीर बनी हुई है, और पांच वर्ष तक की उम्र का हर तीसरा बच्चा व हर पांचवीं महिला कुपोषित है। हर दूसरा शिशु, किशोर और महिला खून की कमी से ग्रसित है। यह स्थिति तब है, जब प्रसव-पूर्व देखभाल सहित मातृ-शिशु स्वास्थ्य सेवाओं, बाल टीकाकरण और दस्त प्रबंधन में सकारात्मक प्रगति हुई है। कुपोषण के अंतनिर्हित कारकों को भी दुरुस्त करने की दिशा में उल्लेखनीय काम हुआ है।
तो फिर हमसे चूक कहां हो रही है? दरअसल, जीवन के शुरुआती 1,000 दिनों (270 दिन गर्भावस्था के और 730 दिन शून्य से 24 महीना के) में ये सकारात्मक रुझान नहीं दिखते। अपने यहां मातृ पोषण की कोई ठोस नीति नहीं है। हालांकि, साल 2000 से शिशु और छोटे बच्चे के दुग्धपान (आईवाईसीएफ) पर काम जरूर हो रहा है, लेकिन इसे बढ़ावा देना, जैसे कि पहले छह महीनों के लिए विशेष स्तनपान और प्रभावी नर्सिंग सुनिश्चित करना, इसके बाद स्तनपान के विकल्प के रूप में बच्चे को उपयुक्त हल्का ठोस भोजन देने संबंधी लोकाचार का आज भी अभाव है। आईआईटी, बॉम्बे में सीटीएआरए के रूपल दलाल द्वारा गुजरात के बनासकांठा जिले में किया गया अध्ययन बताता है कि प्रसव-पूर्व और प्रसव के बाद देखभाल के दौरान महिलाओं को अगर स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा स्तनपान व दुग्धपान के बारे में बताया जाता है, तो उसका फायदा होता है। ऐसी प्रशिक्षित माओं के केवल 9.8 फीसदी बच्चे शुरुआती छह महीने में कम वजन के पाए गए, जबकि अप्रशिक्षित माताओं में यह आंकड़ा 18.1 फीसदी था। एनएफएचएस-5 बताता है कि शिशुओं के हल्के ठोस आहार पर भी ध्यान देने की जरूरत है। अपने यहां छह महीने से ऊपर के 10 में से सिर्फ एक बच्चे को तय मानक के हिसाब से पर्याप्त आहार मिल पाता है।
अन्य एशियाई देशों में स्थिति लगभग पांच गुना बेहतर है। हमारे खराब प्रदर्शन की मुख्य वजह सूचना-प्रसार की कमी है। हालत यह है कि 20 फीसदी कुपोषित बच्चे धनाढ्य समुदायों से आते हैं। इसके अलावा, अधिक वजन वाली माओं वाले परिवारों में भी अक्सर कुपोषित बच्चे मिल जाते हैं। असल में, शिशुओं की देखभाल करने वालों को यह साफ-साफ पता ही नहीं होता कि छह महीने से अधिक उम्र के शिशु को क्या, कब और कितनी बार खिलाना है। इतना ही नहीं, उन्हें स्तनपान भी कराते रहना चाहिए। दुग्धपान के बारे में सटीक जानकारी न होने की सूरत में बच्चे में मोटापे, पोषक तत्वों की कमी और गैर-संक्रामक रोग की आशंका बढ़ जाती है। पर्याप्त आहार न मिलने के कारण शिशुओं को होने वाले नुकसान के बारे में माता-पिता अनभिज्ञ रहते हैं। घर में पकी दाल, दही, हरी सब्जियां, घी, अंडे आदि खिलाने के बजाय वे बच्चों के पैकेटबंद खाने पर रोजाना 25-30 रुपये खर्च करने पर गर्व महसूस करते हैं। यह धारणा आज भी कायम है कि छह से आठ महीने के बच्चे हल्के ठोस पदार्थ नहीं निगल सकते, इसलिए उनको खिचड़ी के बजाय अक्सर पानी वाली दालें पिलाई जाती हैं।
जाहिर है, स्वास्थ्यकर्मियों को सही समय पर उचित परामर्श देना होगा। फिलहाल, एक प्रमुख कार्यक्रम के तौर पर समन्वित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) चल रही है, लेकिन यह माओं के लिए नहीं है। इसके विपरीत, सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में कम से कम 15 मौकों पर (गर्भावस्था की शुरुआत से लेकर बच्चे के 16 महीने की उम्र तक) उनका मां से वास्ता पड़ता है, और यह पोषण कार्यक्रमों को भी प्रभावित कर सकता है। ऐसे में, जरूरी है कि वैकल्पिक पोषण तंत्र पर काम किया जाए। नीति-निर्माताओं को पता करना चाहिए कि क्या ईसीडीएस के बजाय नियमित स्वास्थ्य प्रणाली को पोषण कार्यक्रमों में हस्तक्षेप का अधिकार दिया जाना चाहिए? अगर दोनों के मानव संसाधनों को एक कर दिया जाए, तो मातृ-बाल पोषण व स्वास्थ्य सेवा कार्यबल को मजबूती मिलेगी। यह प्रयास बाल मृत्यु-दर भी कम कर सकता है, क्योंकि भारत में पांच वर्ष तक के बच्चों में 68 फीसदी की मौत की वजह कुपोषण है।