08-04-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक
Date:08-04-22
पर्यावरण का मुद्दा अब पहली प्राथमिकता हो
संपादकीय
आईपीसीसी ने दुनिया के देशों को एक बार फिर आगाह किया कि अगर वैश्विक ऊष्णता को औद्योगिक काल से पूर्व की स्थिति में लाकर दुनिया को खत्म होने से बचाना है, तो बढ़ते तापमान को 1.5-2.0 डिग्री सेल्सियस पर रोकना होगा। इस दिशा में पहला कदम होगा तापमान वृद्धि को सन् 2025 के बाद हर हाल में नीचे लाना। विकासशील देशों को इस दिशा में अपेक्षित आर्थिक मदद नहीं मिल रही है लेकिन भारत-चीन इस स्थिति में हैं कि तकनीकी पर शोध कर ऊर्जा के लिए ग्रीनहाउस गैसों, खासकर कार्बन उत्सर्जन को काफी हद तक कम कर सकें। यह सच है कि भारत में कोयला काफी है और अभी भी हम कोयले पर निर्भर हैं, लेकिन पैनल का मानना है कि सही विकल्प व उपकरण चुनकर इस उत्सर्जन को आधा किया जा सकता है। वैकल्पिक ऊर्जा का प्रयोग करने से एक टन कार्बन उत्सर्जन कम करने में मात्र 20 डॉलर खर्च होगा। भारत सरकार ने इस दिशा में सराहनीय कोशिश शुरू कर दी है। दो दिन पहले केंद्रीय परिवहन मंत्री का ग्रीन हाइड्रोजन-चलित कार से संसद आना इस प्रयास का प्रदर्शन था। इस तरह के वाहन पर चलने का खर्च मात्र 2 रु. प्रति किमी होगा। पेट्रोल में इथेनोल का मिश्रण 9.37% हो गया है। इसका तत्काल लाभ पर्यावरण प्रदूषण कम करने में तो होगा ही, किसानों व चीनी मिलों को भी लाभ होगा। भारत में चीनी का आयात इस बार रिकॉर्ड 90 लाख टन हुआ है। दूसरी ओर गन्ने से इथेनोल बनाना किसानों को भी उत्पादन के लिए प्रेरित करता रहेगा। यूक्रेन-रूस युद्ध से बढ़े कच्चे तेल ने भारत की अर्थव्यवस्था की भी कमर तोड़ दी है। लिहाजा भारत को ऊर्जा के इन स्वच्छ विकल्पों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
Date:08-04-22
कांग्रेस को नए टैलेंट का सम्मान करना होगा
चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासकार )
आज अनेक राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि कांग्रेस का फिर से उभार तभी सम्भव है जब उसके शीर्ष नेतृत्व में कोई नया चेहरा सामने आए। नेहरू-गांधी परिवार की विरासत भले ही अतुलनीय रही हो, लेकिन आज उनके नाम पर लोग वोट नहीं दे रहे हैं, कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर तो नहीं। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ब्रांड आज 8 साल की सत्ता के बावजूद ताकतवर बना हुआ है। 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार निश्चित है। कांग्रेस आज भी यहां-वहां कुछ राज्यों में चुनाव जीत जाती है, अलबत्ता यह तय नहीं है कि इनमें से कितनों में नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर वोट पड़ते हैं। आज से पांच साल पहले तक अनेक विश्लेषकों का मत था कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस टूटकर बिखर जाएगी, लेकिन आज उनकी राय बदल गई है।
लेकिन बात तो कुछ नए चेहरों से भी नहीं बनेगी। कांग्रेस को आज सूरत ही नहीं सीरत भी बदलने की जरूरत है। सबसे बढ़कर आज कांग्रेस को उस चीज को महत्व देने की जरूरत है, जिसे उसने एक अरसा पहले ही महत्व देना छोड़ दिया, और वो है- एक्सीलेंस। चाहे जीवन में हो, किसी कम्पनी में या राजनीतिक पार्टी में, सफलता का एक ही मंत्र है और वह है एक्सीलेंस का पीछा करना। आज तो भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में एक्सीलेंस को महत्व देना सीख चुके हैं। वे अपने आसपास भी एक्सीलेंस को ही देखना चाहते हैं, फिर चाहे वह उनके द्वारा पहने जाने वाले ब्रांड्स में हो या जिन नेताओं को वो वोट देते हैं, उनमें हो। आज भारतीय हर चीज को रेटिंग देते हैं, डिलीवरी बॉय से लेकर ड्राइवरों तक (आशा है वे उन्हें फाइव स्टार देते होंगे)। हम किसी हवाई जहाज में चढ़ते समय एक्सीलेंस की उम्मीद करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे रेलवे स्टेशन साफ-सुथरे हों और हमारे वैक्सीनेशन सेंटर हमें ज्यादा देर तक बैठाए न रखें। हमें फास्ट डाटा स्पीड चाहिए। हम कोई किताब या टिकट पाने के लिए इंतजार नहीं करना चाहते। हम चाहते हैं कि हमारा ऑनलाइन ऑर्डर किया गया फूड जब हमारे यहां पहुंचे तो वह गर्म हो। हम चाहते हैं कि हमारी फिल्में हमारा इंटरटेनमेंट कर सकें। अगर वो ऐसा नहीं करेंगी तो हम किसी दूसरी फिल्म या किसी दूसरे ओटीटी प्लेटफॉर्म की ओर चले जाएंगे। हमें नए एयरपोर्ट, एक्सप्रेस-वे और मेट्रो ट्रेन चाहिए।
क्या आज भारत में हर चीज अच्छे से की जा रही है? यकीनन नहीं। आज भी भारत में सामान्य जीवन हताश करने वाला है और हमें अभी एक लम्बी दूरी तय करना है। लेकिन फर्क यह है कि अब हम हर चीज पहले से बेहतर चाहते हैं। अब भारतीय एक्सीलेंस का मतलब समझ गए हैं और हर चीज में इसे चाहते हैं। और 2022 के इसी भारत में कांग्रेस नाम की एक पार्टी है, जिसके मन में एक्सीलेंस से ज्यादा एक सरनेम के लिए सम्मान है। आश्चर्य होता है कि उस सरनेम के आगे कौन कितना झुक सकता है, आज कांग्रेस में इसके सिवा किसी और चीज का महत्व नहीं रह गया है। आज के भारत में एक्सीलेंस-विरोधी होना तो हारने की सबसे अच्छी रणनीति है और अनेक राज्यों के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन देखकर यही सिद्ध होता है। यही कारण है कि आप शीर्ष पर चाहे जितने चेहरे बदल दो, जब तक कांग्रेस एक्सीलेंस का पीछा करने की कोर-वैल्यू को नहीं अपनाएगी, वह भारतीयों को अपील नहीं कर सकेगी।
जब हम कहते हैं कि आज कांग्रेस टूट चुकी है तो हमारा क्या आशय होता है? इसका यह आशय है कि कांग्रेस की मान्यताएं गड़बड़ हो चुकी हैं। पार्टी में एक्सीलेंस को महत्व नहीं दिया जाता, टैलेंट बरबाद होता रहता है। भारत के लोग यह नहीं चाहते। वे यह देखना चाहते हैं कि टैलेंट को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। वे यह देखना चाहते हैं कि जिन लोगों की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी, वे सामने आए और छा गए। क्योंकि बहुतेरे भारतीय ऐसे ही होते हैं। वहीं कांग्रेस में एनटाइटलमेंट, विशेषाधिकार और चाटुकारिता को महत्व दिया जाता है।
लेकिन आज चीजें बदल चुकी हैं। बीते एक साल में भारत में दो दर्जन यूनिकॉर्न कम्पनियां उभरकर सामने आई हैं। यूनिकॉर्न वे कम्पनियां होती हैं, जिनका मूल्यांकन 1 अरब डॉलर से अधिक किया गया हो। ये कम्पनियां साधारण भारतीयों के द्वारा बनाई गई थीं, इनमें से बहुतेरे ऐसे मेधावी युवक थे जिन्होंने एक्सीलेंस का पीछा किया और कभी हार नहीं मानी। ऐसे भारत में वैसी किसी संस्था का क्या महत्व रह जाता है, जिसमें टैलेंट से नफरत की जाती हो और चमचागिरी पर ईनाम दिया जाता हो? वास्तव में कांग्रेस एक अति-आवश्यक राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है। वह विपक्ष की भूमिका भी निभाती है, जिसकी कि एक लोकतंत्र में खासी जरूरत होती है। कांग्रेस को अस्तित्व में बने रहना चाहिए, इसके लिए ये दोनों नैतिक तर्क ही काफी हैं। लेकिन आज के भारत में एक्सीलेंस से घृणा करने वाली संस्था को हम नैतिक रूप से कैसे जस्टिफाई कर सकते हैं? भारतीयों को किसी भी ऐसी संस्था का समर्थन क्यों करना चाहिए, जो उनके टैलेंट को प्रोत्साहित नहीं कर सकती?
दूसरी तरफ भाजपा है, जिसमें प्रतिभाशाली के लिए आगे बढ़ना का रास्ता खुला है। क्या एक्सीलेंस को पुरस्कृत करने के मामले में भाजपा परफेक्ट है? बिलकुल नहीं। वहां भी वंशवाद की राजनीति है। वहां भी कुछ हद तक चापलूसी की संस्कृति है। ऐसा नहीं है कि वहां हर प्रतिभाशाली को पुरस्कार मिलता है, या जिसे पुरस्कार मिले, वह प्रतिभाशाली ही होता है। वहां अभी परफेक्ट मेरिटोक्रेसी नहीं है। लेकिन कम से कम वह दूसरों से बेहतर तो कर ही रही है।
Date:08-04-22
जलवायु आपदा से बचने के लिए जीवाश्म ईंधन से निजात पानी होगी
आरती खोसला, ( निदेशक, क्लाइमेट ट्रेंड्स )
पृथ्वी के बीते दो हजार सालों के इतिहास की तुलना में अब बीते कुछ दशकों में धरती का तापमान बेहद तेजी से बढ़ रहा है। इसके पीछे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जिम्मेदार है। यदि तापमान वृद्धि यूं ही जारी रहती है तो दुनिया को तेजी से ऐसे बदलावों का सामना करना पड़ेगा, जिनके प्रति अनुकूलन नहीं किया जा सकता है। दक्षिण एशिया में ग्लोबल वार्मिंग का बहुत अधिक जोखिम है।
आईपीसीसी द्वारा जारी नई रिपोर्ट से साफ है कि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हमें अपने उत्सर्जन को जीरो पर लाना होगा। उत्सर्जन में कटौती के बिना ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना पहुंच से बाहर है। इस काम के लिए ऊर्जा क्षेत्र में बड़े बदलाव की आवश्यकता है और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में भारी कमी लानी होगी।
अगर सरकारें अपने मौजूदा उत्सर्जन-कटौती के वादों को पूरा करती हैं, तो इस सदी में वैश्विक स्तर पर समुद्र का स्तर 44-76 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। भारत में ग्लोबल वार्मिंग से तटीय शहरों में हीट वेव, वर्षा के कारण होने वाली बाढ़ें बहुत गंभीर हो जाएंगी। भारी बारिश, चक्रवात व सूखे के हालात भारत और बांग्लादेश में बहुत लोगों को घर छोड़ने के लिए मजबूर करेंगे। उत्सर्जन में तेजी से कटौती जलवायु परिवर्तन के परिणामों को सीमित करने का एकमात्र तरीका होगा।
भारत मोटे तौर पर ग्रीन हाउस गैसों के कुल वैश्विक उत्सर्जन में 6.8% का हिस्सेदार है। वर्ष 1990 से 2018 के बीच भारत के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 172% बढ़ोतरी हुई है। 2013 से 2018 के बीच देश में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भी 17% बढ़ा है। हालांकि अभी भी भारत का उत्सर्जन स्तर जी-20 देशों के औसत स्तर से बहुत नीचे है। देश में ऊर्जा क्षेत्र अब भी ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जनकारी क्षेत्र है। देश की कुल ऊर्जा आपूर्ति में जीवाश्म ईंधन आधारित प्लांट्स का योगदान 74% है, जबकि अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 11% है। देश की वर्तमान नीतियां वैश्विक तापमान में वृद्धि को तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के अनुरूप फिलहाल नहीं हैं।
भारत सरकार का लक्ष्य वर्ष 2027 तक 275 गीगावाट तथा 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का है। अगस्त 2021 तक भारत में 100 गीगावाट स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता है। एक और 50 गीगावाट क्षमता अभी निर्माणाधीन है और 27 गीगावाट क्षमता के संयंत्र अभी निविदा के दौर में हैं। भारतीय रेलवे वर्ष 2023 तक अपने नेटवर्क के विद्युतीकरण की योजना बना रही है और वह वर्ष 2030 तक नेट शून्य कार्बन उत्सर्जक बनने की राह पर आगे बढ़ रही है।
दुनिया के सबसे अमीर 10% अकेले दुनिया के कुल उत्सर्जन के आधे के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि दुनिया के सबसे गरीब लोगों का हिस्सा सिर्फ 12% है। नीतिगत निर्णय लेने वालों को वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए हरसंभव प्रयास करने की आवश्यकता है। 2050 तक ‘नेट-जीरो’ तक पहुंचना दुनिया को सबसे खराब स्थिति से बचने में मदद करेगा। रिपोर्ट यह भी कहती है कि मौजूदा हालात ऐसे हैं कि 1.5 या 2 डिग्री तो दूर, हम 2.7 डिग्री तापमान वृद्धि की ओर अग्रसर हैं। एक और महत्वपूर्ण बात जो यह रिपोर्ट सामने लाती है कि नेट ज़ीरो के नाम पर अमूमन पौधरोपण या कार्बन ऑफसेटिंग की बातें की जाती हैं। मगर असल जरूरत है कार्बन उत्सर्जन को ही कम करना। न कि हो रहे उत्सर्जन को बैलेंस करने कि गतिविधियों को बढ़ावा देना। दुनिया को जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढांचे को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना शुरू करना चाहिए। मौजूदा बुनियादी ढांचा 1.5 डिग्री लक्ष्य तक पहुंचना असंभव बना देगा।
Date:08-04-22
समान नागरिक संहिता के लिए सही समय
ए. सूर्यप्रकाश, ( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के जानकार एवं स्तंभकार हैं )
समान नागरिक संहिता भाजपा की पुरानी मांग रही है। इसके नेता देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए अभियान चलाते रहे हैं। इसी कड़ी में अब पुष्कर सिंह धामी का नाम जुड़ गया है, जो दूसरी बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने है। पिछले दिनों अपनी पहली कैबिनेट बैठक में धामी ने समान नागरिक संहिता के निर्माण लिए एक कमेटी बनाने का फैसला किया। विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने इसे लागू करने का वादा किया था। इस प्रकार उत्तराखंड ने इस संबंध में दूसरे राज्यों को एक रास्ता दिखा दिया है।
संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू कराने का प्रयास करेगा।’ यह अनुच्छेद राज्य के नीति निदेशक तत्व भाग में है, जो कि संविधान में सलाह के रूप में दर्ज है। यानी यह बाध्यकारी नहीं है। हालांकि समान नागरिक संहिता से जुड़ी कुछ बातें संविधान की सातवीं अनुसूची में समवर्ती सूची के खंड पांच में भी दी गई है। समवर्ती सूची में दर्ज विषयों पर केंद्र और राज्य, दोनों कानून बना सकते है। मुस्लिम पर्सनल ला (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत विवाह, पालन-पोषण, मेहर, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मुद्दे भी इसके अंतर्गत आते हैं। इनमें से कई विषय समवर्ती सूची के खंड पांच में भी दर्ज है। यदि उत्तराखंड इस संबंध में कानून बनाता है तो भी वह पहला राज्य नहीं होगा। वास्तव में गोवा एक ऐसा राज्य है, जहां पुर्तगाल के शासनकाल से ही समान नागरिक संहित लागू है, लेकिन अन्य राज्यों में समान नागरिक संहित की बात होने पर मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता विरोध करने लगते है। पिछले साल नवंबर में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने समान नागरिक संहिता का यह कहकर विरोध किया था कि ‘यह भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए न तो उपयुक्त है, न ही उपयोगी।’
इन दिनों समान नागरिक संहिता के खिलाफ जो बातें कही जा रही हैं, वे कमोबेश वैसी ही है जैसी संविधान सभा में 23 नवंबर, 1948 को अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान कुछ मुस्लिम सदस्यों ने कही थीं। उस दौरान संविधान सभा में हुई बहस पर नजर डालें तो पाएंगे कि आजादी के 75 वर्षों में देश में काफी कुछ बदल गया है, लेकिन समान नागरिक संहिता के विषय पर मुस्लिम नेताओं का चिंतन नहीं बदला है। संविधान सभा में विरोध करने वालों में मोहम्मद इस्माइल साहिब, नजीमुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम शामिल थे। इस्माइल साहिब ने विरोध करते हुए कहा था कि ‘नागरिकों के लिए समान कानून की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय यदि लोग अपने पर्सनल कानून का पालन करते हैं तो कोई नाराजगी या असंतोष नहीं होगा। नजीमुद्दीन अहमद ने दावा किया कि ‘विवाह और उत्तराधिकार के कानून धार्मिक निषेधाज्ञा का हिस्सा हैं।’ महबूब अली बेग ने कहा कि ‘1350 वर्षों से मुस्लिमों द्वारा निजी कानून का पालन किया जा रहा है और सभी प्राधिकारियों द्वारा इसे मान्यता भी दी गई है।’ मुस्लिम सदस्यों के इन तर्कों को केएम मुंशी, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर और प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. बीआर आंबेडकर ने खारिज कर दिया। केएम मुंशी ने असहमति जताते हुए कहा कि ‘कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है। कुछ मुस्लिम देशों में भी अल्पसंख्यकों के पर्सनल ला को मान्यता नहीं दी गई है। तुर्की और मिस्र जैसे देशों में किसी भी अल्पसंख्यक के लिए निजी कानून की मान्यता नहीं दी गई है। 1937 में जब केंद्रीय विधानमंडल ने शरीयत कानून पारित किया था तो मुस्लिम सदस्यों ने कहा कि यह सभी मुस्लिमों पर लागू होगा। यहां तक कि खोजा और कच्छी मेमन लोगों को भी नहीं बख्शा गया, जो इसका विरोध कर रहे थे। तब अल्पसंख्यकों को अधिकार देने की बात क्यों नहीं याद आई?’
अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा कि ‘देश के नेता चाहते थे कि पूरे भारत को आपस में जोड़ा जाए और इसे एक राष्ट्र के रूप में एकजुट किया जाए। इसके जरिये क्या हम उनकी इच्छा की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ेंगे या इस देश को हमेशा प्रतिस्पर्धी समुदायों के रूप में बांटे रखना चाहते हैं?’ डा. आंबेडकर ने कहा कि ‘वह मुस्लिम सदस्यों की बातों को सुनकर बहुत ही चकित हैं। देश में एकसमान और पूर्ण आपराधिक संहिता, संपत्ति का हस्तांतरण अधिनियम और अन्य जरूरी कानून पहले से लागू हैं। इसका मतलब है कि व्यावहारिक रूप से पूरे देश में नागरिक संहिता लागू है। विवाह और उत्तराधिकार के विषय इससे बाहर है। इसीलिए हम सब इस अनुच्छेद को संविधान में रखना चाहते हैं।’
डा. आंबेडकर ने मुस्लिम सदस्यों के इस तर्क को चुनौती दी कि मुस्लिम कानून पूरे देश में अपरिवर्तनीय और एकसमान हैं तथा प्राचीन काल से सभी मुस्लिमों द्वारा इसका पालन किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि ‘1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत उत्तराधिकार और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन करता रहा। 1937 तक संयुक्त प्रांत, केंद्रीय प्रांत और बांबे में उत्तराधिकार के मामले में मुस्लिमों पर बहुत हद तक हिंदू कानून लागू होता रहा। उत्तरी मालाबार में मरुमक्कथायम कानून मुस्लिमों सहित सभी नागरिकों पर लागू होता था, जो एक मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी।’ उन्होंने कहा कि ‘अच्छा होगा कि समान नागरिक संहिता का निर्माण करते समय हिंदू कानून की कुछ बातों को भी उसमें समाहित किया जाए।’ इस पर संविधान सभा के दो मुस्लिम सदस्यों ने माना कि ‘कुछ समय बाद’ भारत में समान नागरिक संहिता लागू हो सकती है। नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि ‘देश को समान नागरिक संहिता का लक्ष्य रखना चाहिए, लेकिन यह क्रमश: और लोगों की सहमति से होना चाहिए।’ हुसैन इमाम ने कहा कि ‘समान नागरिक संहिता वांछनीय है, लेकिन इसका वक्त नहीं आया है।
सवाल है कि क्या आजादी के 75 वर्षों के बाद भी समान नागरिक संहिता के निर्माण और पूरे देश में इसे लागू करने का समय नहीं आया है? जब संविधान सभा के सदस्य इसे वांछनीय मान रहे थे तब इसकी राह में बाधा कहां है? जहां तक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात है तो क्या कोई देश के भीतर समानता और बंधुत्व जैसे विचारों के समान रूप से विकसित होने की आशा कर सकता है या फिर ऐसे ही लगातार मतभेदों की धुन बजती रहेगी, जैसी कि अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने चेतावनी दी थी?
Date:08-04-22
निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था का मंत्र
डा. सुरजीत सिंह, ( लेखक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एवं इंडियन इकोनामिक एसोसिएशन के सदस्य हैं )
वित्त वर्ष 2021-22 में भारत का वस्तु निर्यात 400 अरब डालर से अधिक हो जाना किसी उपलब्धि से कम नहीं है। सेवाओं के निर्यात को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो भारत के कुल निर्यात 650 अरब डालर से अधिक हो जाते हैं। इस प्रकार वित्त वर्ष 2019-20 के 292 अरब डालर के निर्यात की तुलना में 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। निर्यात में इंजीनियरिंग, टेक्सटाइल, रत्न एवं आभूषण, केमिकल, दवा और इलेक्ट्रानिक सामानों के साथ-साथ कृषि उत्पादों-चावल, गेहूं, मसाले, चीनी, फल-सब्जी, कालीन, मांस, डेयरी, समुद्री आदि उत्पादों का महत्वपूर्ण योगदान है। यह एक सकारात्मक बदलाव है, जिसने भारत को निर्यात क्षेत्र में विश्व की अग्रिम पंक्ति के देशों में खड़ा करने का काम किया है। निर्यात बढऩे से देश की विनिमय दर, मुद्रास्फीति, ब्याज दर आदि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। रोजगार के अवसरों का सृजन, विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि, विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन एवं सरकार के राजस्व संग्रह में भी वृद्धि होती है। भारत की जीडीपी में निर्यात की बढ़ती हिस्सेदारी बताती है कि देश आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ रहा है।
कोरोना महामारी के चलते विश्व की वस्तु आपूर्ति श्रृंखला के बाधित होने के बाद दुनिया के देशों द्वारा चीन से दूरी बनाना एवं रूस-यूक्रेन युद्ध भले ही निर्यात वृद्धि के तत्कालिक कारण हों, परंतु सरकार द्वारा किए गए नीतिगत उपायों ने भी निर्यात को बढ़ाने में सार्थक भूमिका का निर्वाह किया है। इसमें बैटरी, इलेक्ट्रानिक्स, आटोमोबाइल्स, फार्मास्युटिकल्स, ड्रग्स, टेक्सटाइल्स सहित 13 क्षेत्रों में निर्यात को बढ़ावा देने के लिए पीएलआइ योजना (उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना) प्रमुख है, जिसके अंतर्गत उत्पादन बढ़ाने पर सब्सिडी दी जाती है। इसी के साथ प्रत्येक जिले में निर्यात क्षमता वाले उत्पादों की पहचान करके जिलों को निर्यात हब के रूप में विकसित करने की नई पहल भी की गई है। गांवों से शहरों की ओर विकास की धारा को बहाने के लिए अब निर्यात को एक बड़ा यंत्र बनाया गया है, ताकि देश निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को हासिल कर सके। एमएसएमई और स्टार्टअप के निर्यात से जुड़े मुद्दों के त्वरित समाधान पर बल दिया जाना समय की मांग है। टैक्स फाइल प्रक्रिया को आसान बनाते हुए डिजिटल प्लेटफार्म को प्रोत्साहन दिया गया है, जिससे समय, ऊर्जा और धन की बचत बढ़ी है। सरकार की नई व्यापार नीति में विभिन्न देशों की व्यापार क्षमता का आकलन कर नए और मौजूदा बाजारों में निर्यात की संभावनाओं को अधिक मजबूत करने पर बल दिया गया है। भारतीय उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार एवं सरकार की प्रतिबद्धताओं का ही परिणाम है कि दुनिया में मेक इन इंडिया ब्रांड पर भरोसा बढ़ रहा है।
यदि हम चीन के निर्यात के साथ भारत की तुलना करें तो भारत के निर्यात बहुत कम हैं। यदि निर्यात में वृद्धि करनी है तो देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की दिशा में तेजी से कार्य करना होगा। विश्व बाजार में गुणवत्तायुक्त उत्पादों की बहुत अधिक मांग है। आज भारत के उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाने के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी भी बनाना होगा। आम तौर पर यह मत है कि चीन में श्रमिकों की संख्या अधिक होने से चीनी उत्पादों की लागत कम है। वास्तव में मूल कारण श्रमिकों की संख्या का अधिक होना नहीं, बल्कि चीनी श्रमिकों की उत्पादकता अधिक होना है। चीन का एक श्रमिक भारत के श्रमिक की तुलना में 1.6 गुना अधिक उत्पादन करता है। चीन केवल सस्ती वस्तुओं का ही उत्पादन नहीं करता, बल्कि विश्व के लगभग 60 प्रतिशत ब्रांडेड लक्जरी वस्तुओं का उत्पादन भी करता है। भारत में श्रमिकों की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम को सीधे तौर पर उद्योगों के साथ जोड़ा जाना चाहिए, जिससे श्रमिकों की उत्पादकता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि होने के साथ प्रबंधकीय क्षमता का भी विकास होगा। निर्यातकों को गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इससे न केवल रोजगार बढ़ेगा, बल्कि उनकी लागत में भी कमी आएगी। लाजिस्टिक क्षेत्र के विस्तार के लिए केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र को मिलकर काम करना होगा। प्रत्येक राज्य को निर्यात में भागीदारी के लिए सक्रिय भूमिका निभाने के साथ-साथ विदेशी निवेश को भी आकर्षित करने दिशा में कार्य करना होगा, तभी देश को निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाया जा सकता है।
अर्थशास्त्र का व्यापार सिद्धांत यह मानता है कि जिन वस्तुओं का उत्पादन भारत कम लागत पर कर सकता है, उनका उत्पादन देश में ही करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सेवा क्षेत्र में भारत के उल्लेखनीय निर्यात के दृष्टिगत वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से साफ्टवेयर के क्षेत्र में अपने आप को एकाधिकार के रूप में स्थापित करना चाहिए। इसके अलावा यह ध्यान रखना चाहिए कि प्राथमिक वस्तुएं-चावल, मसाले, मोटा अनाज, फल एवं सब्जी, मीट, डेयरी और समुद्री उत्पाद आदि के निर्यात व्यापार वृद्धि के स्थाई कारक नहीं बन सकते। निर्यात वृद्धि में स्थायित्व के लिए प्राथमिक उत्पादों के साथ-साथ विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इस के लिए इलेक्ट्रानिक मशीनरी आदि वस्तुओं के निर्यात को बढ़ाने के लिए घरेलू विनिर्माण इकाइयों को मजबूत करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करना होगा। वास्तव में भारत को पांच लाख करोड़ डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य को हासिल करने में निर्यात महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
Date:08-04-22
अपराधी की पहचान
संपादकीय
आपराधिक मामलों पर नकेल कसने के मकसद से तैयार दंड प्रक्रिया शिनाख्त संशोधन विधेयक आखिरकार संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया। गृह मंत्रालय का कहना है कि इस कानून से पुलिस को अपराधियों की शिनाख्त में काफी मदद मिलेगी और दोष सिद्धि की दर बढ़ेगी। अभी बहुत सारे मामलों में पुख्ता सबूत न होने की वजह से अपराधी छूट जाते हैं। बलात्कार जैसे मामलों में सजा की दर दुनिया के तमाम देशों की अपेक्षा काफी कम है। इसलिए अब आरोपियों के जैविक और शारीरिक नमूने लिए जा सकेंगे, जिससे अपराध के बारे में सही-सही जानकारी मिल सकती है। पर इस संशोधन पर विपक्ष ने कड़ा एतराज जताया और इसे प्रवर समिति या स्थायी समिति में समीक्षा के लिए भेजने की मांग की। कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने इस विधेयक को असंवैधानिक करार दिया, तो दूसरे विपक्षी दलों ने इसे ब्रिटिश कालीन दमनकारी नीति का पोषक बताया। दरअसल, किसी भी व्यक्ति के जैविक आंकड़े दर्ज करना उसकी निजता का हनन माना जाता रहा है। इसीलिए जब यूपीए सरकार के समय आधार कार्ड बनाने की शुरुआत हुई तो तमाम विपक्षी दलों ने उसका विरोध किया था, क्योंकि उसमें आंखों और अंगुलियों की छाप से व्यक्ति की जैविक पहचान दर्ज की जाती है। वही प्रक्रिया अब आरोपियों पर अपनाई जाएगी।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आपराधिक मामलों पर नकेल कसने के लिए समय-समय पर दंड प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत होती है। मगर ऐसे कानून को शायद ही कोई स्वीकार करे, जिससे बेवजह बेगुनाह लोगों को परेशानी का सामना करना पड़े। किसी भी आपराधिक मामले में प्रथम दृष्टया दोष सिद्ध नहीं हो जाता है। कई आरोपियों से पूछताछ और जांच के बाद ही नतीजे पर पहुंचा जाता है। यानी उसमें कई लोग बेगुनाह होते हैं। फिर हर अपराध की प्रकृति अलग होती है। किसी नीति या फैसले के विरोध में प्रदर्शन, तोड़फोड़ करना भी किसी स्तर पर अपराध बन जाता है। संगीन अपराधों की अलग सूची है। इस तरह हर अपराध के मामले में आरोपी के साथ एक जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता। इसीलिए विपक्ष को भय है कि इस कानून के जरिए सरकार बेगुनाह लोगों, विपक्षी नेताओं और लक्षित समूहों के प्रति दमनकारी रवैया अपना सकती है। मगर सरकार ने उनकी आशंकाओं को दूर करते हुए आश्वस्त किया है कि सरकार किसी निर्दोष को परेशान करने के इरादे से यह कानून लेकर नहीं आई है।
दरअसल, जैविक आंकड़ों के दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहती है। कई जगहों पर देखा गया है कि जैविक पहचान के आंकड़े इकट्ठा करके सरकारें आंदोलन आदि करने वालों को प्रताड़ित करने का प्रयास करती रहती हैं। करीब दो साल पहले हांगकांग में विद्यार्थियों के विरोध के समय सरकार ने उनके जैविक आंकड़ों के आधार पर धर-पकड़ कर उन्हें प्रताड़ित करना शुरू किया था। इसलिए विपक्ष को आशंका है कि भारत सरकार भी कहीं उसी दिशा में न बढ़े। पिछले कुछ सालों में विभिन्न विषयों पर आंदोलन कुछ अधिक देखे जा रहे हैं, इसलिए उन पर नकेल कसने के उपकरण के तौर पर इस कानून का उपयोग न किया जाने लगे। ऐसे में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि उसकी ओर से विपक्ष की आशंकाएं दूर करने के प्रयास किए जाएं। आपराधिक मामलों पर अंकुश लगाए बगैर कानून व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जा सकता, मगर किसी कानून पर लोगों को शक की गुंजाइश भी नहीं होनी चाहिए।
Date:08-04-22
भारत की प्रभावी कूटनीति
संपादकीय
रूस यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत क्या सोचता है, इसे एक बार फिर साफ तौर बताया गया। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बुधवार को संसद में जोर देकर कहा कि भारत रूस-यूक्रेन के बीच संघर्ष के पूरी तरह खिलाफ है और तत्काल हिंसा खत्म करने के पक्ष में है। यानी भारत शांति का पैरोकार है। दरअसल, बुका में जिस तरह दो दिन पहले रोंगटे खड़े कर देने वाली रिपोर्ट और तस्वीरें आई, उसके बाद से भारत की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि इस वारदात की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। भारत बुका के मामले में बहुत परेशान है और कत्लेआम की निंदा करता है। बुका के बहाने भारत की प्रतिक्रिया को उसकी विदेश नीति में बदलाव के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है। इससे पहले भारत ने इस तरह की प्रतिक्रिया नहीं दी थी। हालांकि बुका प्रकरण में भारत ने रूस का नाम नहीं लिया, मगर पल-पल बदलते परिदृश्य में भारत का किसी के पक्ष में न जाकर बिल्कुल मध्य में होना, नई कूटनीति की ओर इशारा करता है। शुरुआत से ही भारत ने शांति पर जोर दिया। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव से पृथक रहने का फैसला हो या अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन समेत तमाम यूरोपीय देशों का रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाना हो; भारत ने हमेशा अपने हित को वरीयता दी। बिना किसी डर या दबाव के भारत ने वही किया जो देश की एकता और अखंडता के लिए जरूरी था। वाकई यह बदले हुए भारत की तस्वीर है। इस वक्त दुनिया दो प्रतिद्वंद्वी गुटों में विभाजित हो गई है। ऐसे में भारत मानवता के पक्ष में दृढ़ता से बोल रहा है। विदेश मंत्री जयशंकर ने जिस तरह से बुका में हुई हिंसा को लेकर बयान दिए हैं, वह रूस के साथ होने के अमेरिका व अन्य देशों की सोच से बिलकुल उलट है। गौरतलब है कि भारत ने अमेरिकी प्रतिबंध और चेतावनी के बावजूद रूस से सस्ते में तेल खरीद का सौदा किया। यहां तक कि अमेरिका के डिप्टी एनएसए दलीप सिंह के विवादित बयान की कड़े शब्दों में निंदा की। भारत की स्थिति और पहुंच को अमेरिका जानता है। उसे हर हाल में भारत के साथ संबंधों को लचीला बनाए रखना होगा। यही उसके लिए फायदे का विकल्प है। भारतीय कूटनीति का यह स्वर्ण काल कहा जाएगा, जब अमेरिका, रूस, इस्रइल, ब्रिटेन जैसे देश भारत की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं।
Date:08-04-22
तपते टापुओं में बदलने लगे हैं हमारे ज्यादातर शहर
भारत डोगरा, ( सामाजिक कार्यकर्ता )
जलवायु परिवर्तन के दौर में गरमी का बढ़ता प्रकोप अनेक चिंताएं उत्पन्न कर रहा है। 11 मार्च से ही गरम हवाओं का समय शुरू हो गया था और अब दिल्ली, लखनऊ, पटना में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के पास या ऊपर जाने लगा है। गरमी अभी से ही असहनीय होने लगी है, तो मई से जून मध्य तक पता नहीं, तापमान कितने कीर्तिमान गढ़ेगा?
बेशक शहरों में गरमी से बचने की सुविधाएं कुछ बढ़ी हैं, पर अभी भी बहुत से लोग इनसे वंचित हैं। विवेक शनदास व उनके सहयोगी अनुसंधानकर्ताओं ने विभिन्न देशों में किए गए शोध के आधार पर बताया है कि अनेक शहरों में सबसे निर्धन, प्रवासियों व भेदभाव सहने वाले समुदायों की जो बस्तियां हैं, प्राय: वही सबसे अधिक गरमी प्रभावित क्षेत्र के रूप में पहचानी गई हैं। इस अनुसंधान से यह भी पता चलता है कि एक शहर के सभी क्षेत्र गरमी के प्रकोप से समान रूप से प्रभावित नहीं होते हैं। जहां अधिक हरियाली है, पेड़ हैं, वहां गरमी का वार अपेक्षाकृत कम है, जहां पूरा क्षेत्र सीमेंट-कंक्रीट के निर्माणों व सड़कों से भरा पड़ा है, वहां गरमी अधिक होती है।
प्राय: किसी भी शहर के लिए एक ही तापमान बताया जाता है, पर वास्तव में एक ही शहर के विभिन्न क्षेत्रों के तापमान में बहुत अंतर होता है। 10 डिग्री सेल्सियस या उससे भी अधिक का अंतर एक ही महानगर या बड़े शहर के भीतर देखा जा सकता है।
कच्ची बस्तियों में गरमी भी ज्यादा है और गरमी की मार से बचने के उपाय भी कम हैं। इन बस्तियों में पानी की भी कम आपूर्ति होती है और बिजली कटौती भी खूब होती है। इन बस्तियों के वृद्ध व पहले से कमजोर स्वास्थ्य के लोगों पर चरम गरमी के दिनों में विशेष ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन क्या हम दे पा रहे हैं? इस विषय पर कार्य कर रहे वैज्ञानिक जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के बेंजामिन जैटचिक ने बताया है कि गरमी के प्रकोप से उन लोगों की स्थिति बिगड़ सकती है, जो सांस व हृदय संबंधी समस्याओं से त्रस्त हैं।
हमारे शहरों में बेघर लोगों को प्राय: सबसे निर्धन माना गया है। बेघर बच्चों की संख्या भी बहुत अधिक है। उनके लिए जो नियोजन पहले किया गया व जो आश्रय स्थल बनाए गए, उनमें मुख्य फोकस इस ओर रहा है कि सबसे अधिक सर्दी के दिनों में उन्हें राहत देनी है, पर जलवायु परिवर्तन के इस दौर में गरम दोपहरियों व लू से भी राहत देना बहुत जरूरी हो गया है। इसे ध्यान में रखते हुए बेघर लोगों के लिए नियोजन व कार्यों में भी जरूरी बदलाव करने होंगे। शहरों में हमें सुधार के लिए पुख्ता अध्ययन करते हुए उपाय करने होंगे। पर्यावरणविदों के अनुसार, शहरों में अधिक तापमान के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं। आधुनिक शहरों का आकार-प्रकार वायु के बहाव के हिसाब से ठीक नहीं है। गांव में हवा रुकती नहीं है, लेकिन शहरों में ऊंची इमारतों की वजह से हवा रुकती है और बेचैनी बढ़ती है। शहर रेगिस्तान की तरह होने लगे हैं। कई जगहों पर किसी वनस्पति का नामो-निशान नहीं होता है, ऐसे इलाकों पर बारिश भी बेअसर होती है। वाष्पीकरण कम होता है और गरमी बढ़ जाती है।
शहरों में गरम घाटियां बनने लगी हैं। ऊंची इमारतों के बीच गरमी के टापू विकसित हो रहे हैं। शहरों में बढ़ता तापमान नमी और आर्द्रता को भी कम कर देता है, जिससे गरमी असह्य होने लगती है। शहरी धुंध भी एक बड़ी समस्या बनकर उभर रही है। कई शहरों में फैली वायु प्रदूषण की धुंध एक लघु ग्रीनहाउस परत के रूप में कार्य करने लगती है, जो शहरी क्षेत्रों की गरमी को बाहर निकल जाने से रोकती है। शहरों में मानव जनित ऊष्मा भी बहुत बढ़ रही है। जीवाश्म ईंधन के अधिकतम उपयोग से भी शहरी तापमान बढ़ रहा है। सच यह है कि हम शहर को रहने लायक बनाने की दिशा में बडे़ उपाय नहीं कर पा रहे हैं। शायद आम लोगों और सरकारों केलिए यह चिंता का विषय नहीं है। क्या अपने देश में किसी भी पर्यावरण सुधार के लिए अदालतों का सहारा लेना मजबूरी है?
बेशक, बसावट सुधारने से हरियाली बढ़ाने तक बहुत काम हैं, जो हमें करने चाहिए। स्थानीय प्रजाति के वृक्षों की संख्या बढ़ाने व परंपरागत जलस्रोतों की रक्षा पर अधिक ध्यान देना जरूरी है। प्राय: देखा गया है कि शहरी वृक्षारोपण में सजावटी किस्म के पौधों को चुन लिया जाता है, जबकि जरूरत अधिक छाया देने वाले स्थानीय पेड़ों की है, जिनमें प्राय: अधिक पक्षी व अन्य छोटे जीव भी आश्रय प्राप्त कर सकते हैं। बरगद, नीम, पीपल, आम, जामुन जैसे पेड़ इस दृष्टि से बहुत उपयोगी रहे हैं, लेकिन देखिए कि हमारे आसपास ऐसे कितने पेड़ हैं? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शहर केवल हमारे लिए नहीं हैं, उन सभी जीव-जंतुओं के लिए भी हैं, जो शहर में मिटने लगे हैं या शहर छोड़ जाने लगे हैं।