12-02-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

Date:12-02-22

India, Heal Thyself

Medical oath isn’t the point, medical education is

TOI Editorials

The undergraduate board of the National Medical Commission (NMC) has reportedly decided to replace the Hippocratic Oath in medical colleges with the Charak Shapath from the new academic session. The Hippocratic Oath is a worldwide rite of passage for medical students in modern medicine, notwithstanding intense debates in certain circles about its relevance today. Those in favour of Charak Shapath argue that India has its own rich heritage in medicine and thereforeborrowing an oath with roots in ancient Greece doesn’t make sense.

But both the Hippocratic Oath and Charak Shapath – the latter derived from Maharshi Charaka’s Charaka Samhita – essentially enjoin medical practitioners to put patients first, respect their privacy, and practise with the best of judgment. Thus, it hardly makes any difference which oath is administered. Besides, it’s not as if switching oaths will magically transform medical education in India. NMC came into being in 2020 when it replaced the utterly discredited Medical Council of India and the interim Board of Governors. NMC’s stated aims include improving access to quality medical education and ensuring availability of adequate medical professionals.

However, the shortage of medical professionals in the country remains chronic. As per a report of the 15th Finance Commission made public last year, every allopathic doctor in India caters to 1,511 people as opposed to the WHO norm of 1:1,000. The shortage of trained nurses is worse with the ratio standing at 1:670 against the WHO norm of 1:300. NMC’s efforts should be directed at improving these numbers. Moreover, even if the bigger aim here is indigenisation or mainstreaming alternative/indigenous medical systems or AYUSH, the focus ought to be on rigorous scientific standardisation of these streams, which is hitherto missing. NMC’s mandate will be better served by boosting actual medical infrastructure in the country, especially in light of Covid. The type of oath administered to medical students is irrelevant – the type of medical education is the point.


Date:12-02-22

कानून के दुरुपयोग से टूटते परिवार

सुनीता मिश्रा

देश में महिलाओं को शारीरिक-मानसिक शोषण, प्रताड़ना और घरेलू हिंसा से बचाने के लिए कई कानूनी कवच दिए गए हैं। ये कानून उनके हितों के रक्षा के लिए बनाए गए हैं, ताकि उन्हें उनका हक और इंसाफ मिल सके, लेकिन इन कानूनों का धड़ल्ले से दुरुपयोग किया जा रहा है। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर तल्ख टिणणी कर चुका है। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर चिंता जाहिर करते हुए कहा, दहेज प्रताड़ना से बचाव के लिए बनाई गई आइपीसी की धागा 498-ए का इस्तेमाल एक हथियार की तरह हो रहा है। यह हथियार पति और उसके रिश्तेदारों पर गुस्सा निकालने के लिए चलाया जा रहा है। शिकायतकर्ता महिला यह भी नहीं सोचती कि बेबजह मुकदमे में फंसे लोगों पर उसका क्‍या असर होगा।’ इस तीखी टिप्पणी के साथ कोर्ट ने महिला के ससुरालियों पर दहेज प्रताड़ना के केस को खारिज कर दिया। इसके बावजूद उसके पति पर मुकदमा चलता रहेगा।

भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए महिला के पति और उसके रिए्तेदारों द्वारा संपत्ति अथवा कीमती वस्तुओं के लिए अवैधानिक मांग के मामले से संबंधित है, जिसमें अधिकतम तीन साल की कैद और जुर्माने का प्रविधान है। अब वही धारा अपनी भड़ास निकालने का जरिया बन गई है। इससे तमाम परिवार खंडित हो रहे हैं। कुछ पुरुषों को झूठे आरोपों के आधार पर फंसाया गया। भले ही बाद में ऐसे पुरुषों को राहत मिल जाती है, लेकिन तब तक वे बदनामी के साथ-साथ अन्य कई तरह की परेशानियों से दो-चार हो चुके होते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में धारा 498-ए के मामलों में ।,97,762 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिनमेँ 15 प्रतिशत आरोपित ही दोषी पाए गए थे। गिरफ्तार किए गए लोगों में से कई बेकसूर ऐसे भी होते हैं, जो समाज में अपनी बदनामी होने के बाद आत्महत्या तक कर लेते हैं। यही नहीं इस मामले में आम तौर पर पति के साथ उसके मां-बाप, भाई, भाभी और दूर के रिश्तेदार भी आरोपित बना दिए जाते हैं।

इस सच्चाई से इन्कार नहीं कि आज भी तमाम महिलाएं दहेज को लेकर यातनाएं सहती हैं। यहां तक कि उनकी हत्या भी कर दी जाती है। इससे संरक्षण प्रदान करने के लिए ही कानून में सख्त प्रविधान किए गए, लेकिन अब कानून के बढ़ते दुरुपयोग ने महिलाओं के प्रति संदेह की दृष्टि को बढ़ा दिया है, जिसके कारण अक्सर उन्हें समय पर न्याय नहीं मिल पाता है। झुठे आरोप लगाने वाली महिलाओं को नहीं भूलना चाहिए कि पुरुष भी इसी समाज का हिस्सा हैं। शादी और रिश्तों का महत्व उन्हें समझना होगा। छोटे-मोटे ज्ञगड़े तो हर परिवार में होते हैं, मगर अपने निजी-पारिवारिक ज्ञगड़ों को दहेज प्रताड़ना के विवाद में परिवर्तित करने से उन्हें बचना होगा।


Date:12-02-22

सफेदपोश बनाम मेहनती काम

संपादकीय

सन 2000-2001 में यानी सदी में बदलाव के वक्त देश से होने वाले वस्तु और सेवा निर्यात में विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात प्रमुख हिस्सेदार था। सेवा निर्यात का आकार विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात का आधा था। एक दशक बाद यानी 2010-11 में भी विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात देश के कुल निर्यात में सबसे बड़ा हिस्सेदार था लेकिन इसकी हिस्सेदारी कम हुई थी। गत वित्त वर्ष यानी 2020-21 तक सेवा निर्यात (206 अरब डॉलर) काफी हद तक वस्तु निर्यात (208 अरब डॉलर) के करीब पहुंच गया और आयात का कुल आकार 498 अरब डॉलर हो गया। दो दशक की अवधि में सेवा निर्यात ने विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात के आधे से लगभग बराबरी तक का सफर तय कर लिया। यदि कुल निर्यात के बजाय वृद्धि पर नजर डाली जाए तो रुझान अधिक स्पष्ट है। 2020-21 तक के एक दशक में सेवा निर्यात में 81 अरब डॉलर की वृद्धि हुई जबकि विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में इसके आधे से भी कम यानी करीब 37 अरब डॉलर की वृद्धि दर्ज की गई। देश में सेवा और वस्तु निर्यात का अनुपात अब अमेरिका तथा अन्य औद्योगीकृत देशों के निर्यात के समान हो गया है। भारत जैसे विविध विकासशील देश के लिए यह अनुपात विशिष्ट है। यह रुझान चालू वर्ष में उलटता नजर आता है। इस वर्ष वस्तु निर्यात, सेवा निर्यात की तुलना में तेज गति से बढ़ा। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि पेट्रोलियम वस्तुओं के निर्यात की कीमतें ऊंची रहीं। यह आशा नहीं करनी चाहिए कि रुझान में यह पलटाव स्थायी होगा। देश की प्राथमिक प्रतिस्पर्धी बढ़त अभी भी उसकी श्रम शक्ति की लागत है। यह बात शिक्षित श्रम शक्ति से स्पष्ट है और सॉफ्टवेयर सेवा निर्यात में देश की प्रतिस्पर्धा से जाहिर होती है। चिप निर्माण के बजाय चिप डिजाइन करने में हमारी महारत तथा बेहतर मार्जिन होने के कारण ज्ञान आधारित उत्पादों मसलन औषधियों तथा विशिष्ट रसायनों के निर्यात में हमारी सफलता भी यही दर्शाती है। श्रम की लागत में हमारी प्रतिस्पर्धी बढ़त कृषि निर्यात की बढ़ती महत्ता को भी रेखांकित करती है। यह इसलिए हुआ कि खेती के काम में मेहनताना भी कम है। एक तथ्य यह भी है कि बीते एक दशक में कृषि निर्यात में 68 फीसदी का इजाफा हुआ जबकि विनिर्मित वस्तु निर्यात में केवल 22 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। प्रश्न यह है कि श्रमिकों की अधिक जरूरत वाले, बड़े पैमाने पर लेकिन कम मार्जिन वाले उत्पादों के क्षेत्र मसलन तैयार वस्त्र और जूतों (पूर्वी एशिया की शुरुआती सफलता में इनकी अहम भूमिका रही) के मामले में श्रम शक्ति लागत की हमारी बढ़त क्यों नहीं सामने आती। जैसा कि हर कोई जानता है इसका उत्तर है नीतिगत विफलता। शुरुआती दौर में इन वस्तुओं को छोटे उद्योगों के लिए संरक्षित रखा गया इसलिए बड़े पैमाने पर काम नहीं हो सका। इसके बाद कड़े श्रम कानूनों ने कार्यस्थल पर लचीले कार्य व्यवहार की राह रोकी, इन क्षेत्रों को वे प्रोत्साहन नहीं मिल सके जो पूंजी आधारित उद्योगों को मिले। इनमें से कुछ मसले हल किए गए जबकि बाकी बरकरार रहे। क्या निर्यात बाजारों के लिए श्रम आधारित विनिर्माण पर जोर देने के लिहाज से बहुत देर हो चुकी है? नहीं उच्च श्रम लागत के बावजूद चीन वस्त्र निर्यात करके हमसे अधिक आय जुटाता है। परंतु एक अहम कारण से यह काम कठिन अवश्य हो गया है और वह है रुपये की विनिमय दर। यदि भारत केवल वस्तुओं का व्यापार करता तो 150 अरब डॉलर (जीडीपी का 5 फीसदी) के भारी भरकम घाटे ने रुपये के मूल्य को कम किया होता। उससे हमारी विनिर्मित वस्तुएं निर्यात बाजार में सस्ती हुई होतीं और घरेलू उत्पादन आयात के मुकाबले सस्ता होता। मुद्रा में यह गिरावट नहीं हुई क्योंकि वस्तु व्यापार के घाटे की प्राय: सेवा अधिशेष से भरपायी हो जाती है। स्पष्ट कहा जाये तो सफेदपोश काम मेहनत के काम पर भारी पड़ा है। समस्या को पहचानते हुए भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में शामिल होने की वार्ता के दौरान सेवा व्यापार खोलने के बदले वाणिज्यिक व्यापार में रियायत चाही। परंतु चीन तथा अन्य देशों के प्रभाव में ऐसा नहीं हो सका। तब भारत इससे बाहर हो गया लेकिन उससे समस्या का अंत तो नहीं हुआ। बल्कि बाहरी पूंजी को लेकर खुलापन बढ़ाकर हमने अपनी मुश्किलें और अधिक बढ़ा ली हैं। बाहरी पूंजी रुपये को मजबूती देती है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को तवज्जो दी गई क्योंकि वे घरेलू रोजगार तैयार करते हैं। इसके परिणामस्वरूप डॉलर का अधिशेष हुआ और रिजर्व बैंक को गैर जरूरी रूप से डॉलर खरीदने पर मजबूर होना पड़ा। इससे देश का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा। ऐसे कदम एक सीमा तक ही उठाये जा सकते हैं इसलिए कम मार्जिन वाले विनिर्माण निर्यात को व्यावहारिक रखने के लिहाज से रुपये के महंगा बने रहने की संभावना है। खासतौर पर भारत के पंगु परिचालन माहौल में। हालिया बजट में राहत की बात यह है कि सरकार ने बॉन्ड बाजार को अंतरराष्ट्रीय पूंजी के लिए ज्यादा नहीं खोला। यदि ऐसा किया जाता तो समस्या और गहन हो जाती।


Date:12-02-22

नदी जोड़ परियोजना के संकट

अतुल कनक

इस बार के केंद्रीय बजट में केन-बेतवा जोड़ परियोजना के लिए एक हजार चार सौ करोड़ रुपए देने की घोषणा की है। देश में नदियों को जोड़ कर विविध हिस्सों में जल संकट की समस्या का समाधान करने की दृष्टि से तैयार की गई नीति के तहत केन-बेतवा परियोजना सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस परियोजना के लिए पिछले साल मार्च में केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय का उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की सरकारों से एक करार हुआ था। इस परियोजना पर करीब चवालीस हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे।

गौरतलब है कि केन और बेतवा दोनों ही यमुना की सहायक नदियां हैं। केन नदी मध्यप्रदेश की कैमूर की पहाड़ियों से निकल कर चार सौ सत्ताईस किलोमीटर की यात्रा तय करने के बाद उत्तर प्रदेश में बांदा के पास यमुना नदी में मिल जाती है, जबकि बेतवा नदी मध्यप्रदेश के रायसेन से निकल कर पांच सौ छिहत्तर किलोमीटर का प्रवाह क्षेत्र तय करके उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में यमुना नदी में मिल जाती है। इस परियोजना के तहत दोनों नदियों को परस्पर जोड़ने के लिए दो सौ इक्कीस किलोमीटर लंबी लाइन नहर बनेगी, जिससे अधिक जल राशि वाली केन नदी का पानी बेतवा नदी में स्थानांतरित किया जा सकेगा। बेतवा नदी का अपना एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी है, क्योंकि सांची और विदिशा जैसे सांस्कृतिक नगर इसके किनारे बसे हुए हैं। उधर, केन नदी अनेक रोचक प्रसंगों से जुड़ी है। महाभारत में केन नामक कन्या का उल्लेख है। केन नदी का इसलिए भी विशिष्ट है कि इसमें अपनी तरह का अनूठा शजर नामक पत्थर पाया जाता है जो ईरान में ऊंचे दामों पर बिकता है। जानकारों का कहना है कि सारी दुनिया में यह पत्थर केवल इसी नदी में पाया जाता है। उम्मीद है कि केन और बेतवा नदी को जोड़े जाने के बाद उस बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी की समस्या का समाधान हो सकेगा, जो प्राय: हर गर्मी में अकाल का सामना करता है।

नदियों को परस्पर जोड़ने की परिकल्पना आजादी से भी पहले सन 1858 में सर आर्थर थामस काटन नाम एक ब्रिटिश सिंचाई इंजीनियर ने की थी। सन 1971-72 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने गंगा और कावेरी को जोड़ने का सुझाव दिया था। लेकिन इस कार्य की व्यावहारिक दिक्कतों और उपयोगिता पर लगे प्रश्नचिह्न ने इस बात को आगे नहीं बढ़ने दिया। नब्बे के दशक में नदियों को आपस में जोड़ने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने की संभावनाओं और देश-समाज पर पड़ने वाले उसके असर के अध्ययन के लिए एक आयोग का गठन भी हुआ था। 13 अक्तूबर 2002 को भारत सरकार ने अमृत क्रांति के रूप में नदी संपर्क योजना का प्रारूप पारित किया जिसमें तीन दर्जन से अधिक नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव था। इस योजना में नदियों के बीच बांध और जल भंडारण के लिए जलाशय बनाने जैसे प्रस्ताव भी शामिल थे। फिर एक जनहित याचिकार पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह नदियों को जोड़ने की योजना को तैयार कर सन 2015 तक उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करे।

लेकिन नदियों को जोड़ने की दिशा में अब तक कोई खास प्रगति नहीं हो पाई है। इसके कई कारण हैं। विभिन्न राज्यों के बीच नदियों के जल बंटवारे को लेकर होने वाले विवादों ने भी इस अनिर्णय की स्थिति को बनाए रखने में कम भूमिका नहीं निभाई है। जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय की पहल पर ‘अंतर प्रवाह क्षेत्र जल अंतरण’ विषय पर एक रिपोर्ट तैयार हुई थी। इसके अनुसार तीस नहरें, तीन हजार जलाशयों और चौंतीस हजार मेगावाट क्षमता वाली जल विद्युत परियोजनाऐं तैयार होनी थीं। सन 2002 में इस संपूर्ण परियोजना की लागत बारह करोड़ तीस लाख डालर आंकी गई थी। यह लागत इतने वर्षों बाद निश्चित रूप से कई गुना बढ़ गई है। भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए किसी एक परियोजना पर इतना व्यय वहन कर पाना आसान नहीं है।

सन 2022-23 का बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री ने केन-बेतवा परियोजना के लिए एक हजार चार सौ करोड़ रुपए देने के साथ ही पांच नदियों को परस्पर जोड़ने का प्रस्ताव भी रखा। इनमें तीन प्रस्तावित योजनाएं दक्षिण भारतीय नदियों से संबंधित हैं। बजट प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि इन परियोजनाओं के लिए उन राज्यों की सहमति आवश्यक होगी, जिन राज्यों में कोई नदी विशेष प्रवाहित होती है। लेकिन दक्षिण भारत में अभी से इसके विरोध के स्वर उठने शुरू हो चुके हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने केंद्र की घोषणा के औचित्य पर सवाल उठाते हुए कहा है कि नदियों से जुड़े राज्यों के बीच पंचाटों के फैसले के जरिए पानी का बंटवारा होता है। ऐसे में नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव नए विवाद खड़े करेगा। आंध्रप्रदेश और कर्नाटक से भी प्रस्ताव के विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए हैं।

उधर, पर्यावरणवादियों का कहना है कि नदियों को परस्पर जोड़ने से उनके पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर पड़ेगा, क्योंकि हर नदी का अपना विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र होता है और नदियों को जोड़ने से किसी नदी विशेष के जल में रहने वाले जीवों के सामने अस्तित्व का संकट भी पैदा हो सकता है। नदियों को जोड़ने की नीति का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि सरकार को नदियों को आपस में जोड़ने से ज्यादा ध्यान लोगों को नदियों से जोड़ने पर देना चाहिए, ताकि लोग नदियों से जुड़ाव महसूस कर सकें। इससे नदियों की उपेक्षा का सिलसिला समाप्त होगा और उन्हें बचाने में मदद मिलेगी। इसके अलावा धरती की सतह पर गिरे वर्षा जल जो नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंच जाता है, के संरक्षण के लिए भी नए जलाशयों का निर्माण किया जाना चाहिए। देश के एक बड़े हिस्से में जल संकट का एक कारण यह है कि भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। जब तक उन इलाकों में भूजल स्तर को बढ़ाने के प्रयास नहीं होंगे, जल उपलब्धता की दिशा में पनपे संकट का सटीक समाधान नहीं किया जा सकेगा।

यह महत्त्वपूर्ण है कि देश में सतह पर मौजूद करीब सात करोड़ क्यूबिक मीटर जल में से केवल पैंसठ प्रतिशत जल का ही उपयोग हो पाता है, शेष जल समुद्र में चला जाता है। समुद्र में जाने वाले जल का मानव हित में उपयोग आवश्यक है। नदियों को यदि आपस में जोड़ा जाता है, तो उसके कुछ फायदे हो सकते हैं। निर्धारित तरीके से पानी का स्थानांतरण संभव हो सकता है और सूखे व बाढ़ से राहत मिलेगी, सिंचाई योग्य जमीन में पंद्रह प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है, जल परिवहन को प्रोत्साहन मिलेगा और नए पर्यटन केंद्र भी विकसित हो सकते हैं। लेकिन नदियों को जोड़ने के बाद जल व्यवस्थापन के लिए बनाए गए बांधों से भूमि दलदली होगी और उससे खाद्यान्न उत्पादन में भी कमी होगी। शायद इसीलिये एक पर्यावरणविद का कहना है कि ‘नदियों को जोड़ने से होने वाले आर्थिक लाभों का मूल्यांकन करते हुए उसे प्राकृतिक संसाधनों की पूंजी के नुकसान के मुकाबले तोलना चाहिए और उसके बाद ही नदियों को जोड़ने की नई परियोजनाओं पर काम शुरू करना चाहिए।’ नदियों को जोड़ना उपयोगी कदम हो सकता है, लेकिन उसके पहले विशेषज्ञों और नीति नियंताओं को इस बात का ध्यान रखना होगा कि नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचे, वरना विकास की राह में नए अवरोध भी खड़े होते देर नहीं लगेगी।


Date:12-02-22

क्रिप्टो पर सख्त रुख

संपादकीय

यूरोप के देश नीदरलैंड़ (हालैंड़) में 17 वीं सदी में पैदा हुए बर्बादी के हालात का हवाला देते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने लोगों को क्रिप्टोकरेंसी (आभासी मुद्रा) के फेर में न फंसने की सख्त हिदायत दी है। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास की नजर में क्रिप्टोकरेंसी की कीमत ट्यूलिप से भी कम है। दुनिया में डिजिटल करंसी को लेकर जारी जोरदार आकर्षण पर केंद्रीय बैंक के मुखिया की राय है कि क्रिप्टोकरेंसी वित्तीय स्थिरता के लिए बहुत बड़ा खतरा है। वित्तीय नीति को लेकर हुई बैठक के बाद उपकी यह राय सामने आई। केंद्र सरकार इसी महीने पारित बजट में डिजिटल करंसी को कर के दायरे में ले आई है‚ जिसे निवेशकों ने क्रिप्टोकरेंसी को मान्यता देने की दिशा में उठाया गया कदम माना। दास ने इस धारणा को झटका देते हुए क्रिप्टोकरेंसी को एक ट्यूलिप से भी सस्ता बताया। दास का इशारा नीदरलैंड़ के ट्यूलिपमेनिया की तरफ था जहां 17वीं सदी में लोग ट्यूलिप के फूलों को लेकर बेहद दीवाने हो गए थे। तब निवेशकों ने बड़ी मात्रा में ट्यूलिप खरीदने शुरू कर दिए और उनकी कीमतें चढ़ने लगीं। एक फूल की कीमत एक आम आदमी की सालभर की कमाई से भी ज्यादा हो गई थी। एक फूल खरीदना एक घर लेने से भी ज्यादा महंगा हो गया। एकाएक जब यह ज्वार उतरा तो निवेशक बर्बाद हो गए। क्रिप्टोकरेंसी पर भारत का रुख अभी तक स्पष्ट नहीं है। पिछले साल क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पेश हुआ था‚ लेकिन लागू नहीं किया गया। इसी महीने पेश बजट में वित्त मंत्री ने ऐलान किया कि भारत अगले साल अपनी डिजिटल करेंसी पेश करेगा। इससे डिजिटल इकोनॉमी को बढ़ावा मिलेगा। क्रिप्टोकरेंसी पर भारत सरकार की नजर शुरुआत से ही टेढ़ी रही है। साल 2018 में तो केंद्रीय बैंक ने क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध ही लगा दिया था‚ जिसे बाद में सर्वोच्च अदालत ने हटा दिया था और तब से भारत में क्रिप्टोकरेंसी का बाजार तेजी से बढ़ा है। आज भारत में क्रिप्टोकरेंसी में निवेश करने वालों की संख्या लाखों में है। माना जाता है कि भारत में चार खरब रुपये की कीमत की क्रिप्टोकरेंसी बाजार में मौजूद है। सरकार और रिजर्व बैंक को इस बारे में दुविधा को जल्द दूर करना चाहिए कि ताकि भारतीय निवेशकों को दुनिया के साथ चलने का मौका मिले और वे निवेश के किसी लाभ से वंचित न रह जाएं।


Date:12-02-22

इस इस्पाती ढांचे को नुकसान न पहुंचे

देवेंद्र सिंह असवाल, ( पूर्व अपर सचिव, लोकसभा )

भारत सरकार द्वारा आईएएस कैडर नियमों में प्रस्तावित परिवर्तन पर विवाद खड़ा हो गया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो बाकायदा जन-आंदोलन शुरू करने की चेतावनी भी दे डाली है। पश्चिम बंगाल के अलावा छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, तमिलनाडु और केरल के मुख्यमंत्रियों ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर प्रस्तावित बदलावों का कड़ा विरोध किया है। 40 से अधिक पूर्व नौकरशाहों और कई सांसदों ने भी इसके बारे में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है। बदलावों के विरोधी इसे भारत के संघीय ढांचे पर प्रहार मानते हैं।

प्रस्तावित बदलावों के बाद इसकी प्रबल आशंका है कि आईएएस अधिकारियों की नियुक्ति में केंद्र सरकार को एकाधिकार हासिल हो जाएगा। इसके बाद ऐसे ही संशोधन अन्य अखिल भारतीय सेवाओं में भी हो सकते हैं। आईएएस संवर्ग नियम, 1954 के मौजूदा नियम 6(1) में संशोधन से राज्य व केंद्र सरकार के बीच असहमति की स्थिति में केंद्र सरकार का निर्णय ही अंतिम होगा और प्रतिनियुक्ति आदेश में निर्धारित समय-सीमा के भीतर अधिकारी का स्थानांतरण प्रभावी होगा।

राज्य सरकारों का तर्क है कि एक अखिल भारतीय सेवा अधिकारी को केंद्र सरकार राज्य सरकार और संबंधित अधिकारी की सहमति के बिना राज्य से बाहर केंद्र में या कहीं भी स्थानांतरित कर सकती है। यही नहीं, उस अधिकारी को विवश होकर नया कार्यभार निर्धारित अवधि में ग्रहण करना होगा। नियमों में ऐसा संशोधन ‘भय की मनोवृत्ति’ पैदा करेगा, मनमाने निर्णय को बढ़ावा देगा और अधिकारियों व सभी राज्य सरकारों को केंद्र सरकार की दया का पात्र बना देगा। ऐसी स्थिति में उत्पीड़न और प्रतिशोध की राजनीति की काफी संभावना है। कई सेवानिवृत्त सिविल सेवकों ने इस कदम के प्रतिकूल परिणामों के बारे में सार्वजनिक रूप से आगाह किया है और ऐसा न करने की अपील की है।

केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने यह स्पष्ट किया है कि राज्य सरकारें निश्चित अनुपात के अनुसार केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए अधिकारियों को नहीं भेज रही हैं। यह भी कहा गया है कि अधिकारियों को केवल राज्यों के परामर्श से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर तैनात किया जाएगा, लेकिन ‘केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर आने वाले अधिकारियों की संख्या आपसी परामर्श से तय हो जाने के बाद केंद्र को उन अधिकारियों की केंद्र में पदस्थापना का अधिकार होना चहिए।’

लेकिन अक्सर ‘वाणी और व्यवहार’ में विरोधाभास देखा जाता है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब केंद्र द्वारा राज्य सरकारों से परामर्श किए बिना स्थानांतरण के आदेश जारी किए गए। जून, 2001 में तमिलनाडु पुलिस ने पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि के घर पर छापा मारा और उन्हें उनके पार्टी नेताओं मुरासोली मारन और टीआर बालू के साथ गिरफ्तार किया था, जो तत्कालीन एनडीए सरकार में मंत्री भी थे। इससे नाराज होकर केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को छापेमारी से जुडे़ तीन आईपीएस अधिकारियों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर भेजने को कहा। तब मुख्यमंत्री जयललिता ने न केवल इनकार किया, बल्कि राज्यों के अधिकारों की रक्षा के लिए समर्थन जुटाने की खातिर अन्य मुख्यमंत्रियों को भी पत्र लिखा। एक अन्य मामले में 1987 बैच के आईएएस अधिकारी और पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अलपन बंद्योपाध्याय का कार्यकाल केंद्र सरकार की सहमति से तीन महीने की अवधि के लिए बढ़ा दिया गया था, पर जिस दिन वह सामान्य रूप से सेवानिवृत्त होते, उसी दिन उन्हें अचानक दिल्ली में पदस्थापना का आदेश केंद्र ने जारी कर दिया। राज्य सरकार से कोई परामर्श नहीं किया गया और न ही अधिकारी की सहमति ली गई। यह भी नहीं बताया गया कि उनकी सेवानिवृत्ति के बाद तीन महीने की अवधि के लिए दिल्ली में उनकी इतनी तत्काल आवश्यकता क्यों थी?

एक अन्य मामला दिसंबर, 2020 का है। केंद्र ने कहा कि उन तीन आईपीएस अधिकारियों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाए, जो उस समय सुरक्षा-व्यवस्था के प्रभारी थे, जब भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर 10 दिसंबर, 2021 को कथित तौर पर तृणमूल समर्थकों द्वारा कोलकाता के बाहर हमला किया गया था। लेकिन राज्य सरकार ने आईपीएस अधिकारियों की कमी का हवाला देते हुए इनकार कर दिया।

केंद्र की दलील है कि प्रतिनियुक्त सिविल सेवकों की कमी ने केंद्र को राज्यों की सहमति के बिना अधिकारियों को स्थानांतरित करने की शक्ति देने के लिए नियमों में संशोधन करने को मजबूर किया है। विनियमों के अनुसार, राज्यों को केंद्रीय जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रत्येक संवर्ग में 40 प्रतिशत वरिष्ठ पदों को निर्धारित करना चाहिए, लेकिन राज्यों में सीडीआर की कमी 61 से 95 प्रतिशत के बीच है। संयुक्त सचिवों, निदेशकों और उपसचिवों की विशेष रूप से कमी है। केंद्र सरकार के पास आईपीएस अधिकारियों की कमी है। करीब एक साल पूर्व गृह सचिव ने राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखकर केंद्रीय पुलिस के रिक्त पदों को भरने के लिए आईपीएस अधिकारी उपलब्ध कराने को कहा था। अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों का चयन संघ लोकसेवा आयोग द्वारा किया जाता है और विभिन्न राज्यों को आवंटित किया जाता है। संघ व राज्य, दोनों की ‘साझा संपत्ति’ होने के नाते उनसे दोनों की सेवा करने की अपेक्षा की जाती है।

राज्यों की दलील यह भी है कि मनमाने तरीके से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति उनके विकास कार्यों को बाधित करेगी और अधिकारियों के मनोबल को आघात लगेगा। तथ्य यह भी है कि आमतौर पर आईएएस व आईपीएस अधिकारी संयुक्त सचिव के स्तर से नीचे प्रतिनियुक्ति पर जाना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें वहां वे सुविधाएं नहीं मिलतीं, जो डीएम या एसपी के रूप में मिलती हैं।

इसमें कोई दोराय नहीं कि अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर लाने की जरूरत है। उनका पूरा सेवाकाल एक ही राज्य कैडर में सीमित नहीं रह सकता। लेकिन केंद्रीय प्रतिनियुक्ति में हितधारकों से उचित परामर्श भी लागू होना चाहिए। सरदार पटेल ने वर्ष 1948 में कहा था, एक ‘अखिल भारतीय सेवा… को दलगत राजनीति से दूर रहना चाहिए और हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राजनीतिक नियंत्रण कम से कम हो, यदि इसे पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता है।’ उन्होंने सिविल सेवकों को ‘भारत का स्टील फ्रेम’ कहा था। चुनावी राजनीति की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हुए यह और जरूरी हो गया है कि अखिल भारतीय सेवाओं के ‘स्टील फ्रेम’ को संरक्षित किया जाए।