(14-07-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक

 

Date:14-07-22

Quality (of People) Has Value of Its Own

ET Editorials

The UN’s World Population Prospects 2022 (bit. ly/3yFXQfv) released this week projects India to become the most populous country, surpassing China, next year. Its current 1. 4 billion is expected to grow to 1. 67 billion in 2050. The obvious direction for policymakers would be to address the rate of growth. While efforts to bring down the total fertility rate (TFR) to the replacement rate of 2. 1 across India must be pursued through awareness, attention must be focused on improving the qualityof India’s population. Else, India’s much-touted ‘demographic dividend’ can turn into its demographic curse.

TFR being higher than the replacement rate of 2. 1 (correlated to maternal and child health improvement) is an issue mostly in five states. According to the latest National Family Health Survey (NFHS-5) data, the all-India TFR had declined from 2. 2 in 2015-16 to 2 in 2019-21. There are divergences among states and rural and urban populations. But the broad direction is towards population stabilisation. This is, therefore, time to redouble efforts to improve the quality of this population. It will require augmenting the quality and nature of education, healthcare, addressing issues of gender equality and access. Serious focus must also be given on environmental well-being, tackling pollution, climate change and biodiversity loss — factors if unaddressed will undermine the growing population’s productivity. Improved governance is also a crucial factor to better human quality.

It is time for a broader policy lens. One that is not just concerned with the number of people but also their quality. Quantity may have a quality of its own. But it would be foolish to push quality behind and simply — blindly — depend on numerical strength.


Date:14-07-22

शिक्षण और प्रशिक्षण पर खर्च तेजी से बढ़ाना होगा

संपादकीय

उत्तर भारत के एक राज्य में जब एक एसडीओ निरीक्षण के दौरान एक स्कूल पहुंचे तो शिक्षक पर्यावरण विषय पढ़ा रहे थे। अधिकारी ने उनसे पूछा कि जलवायु और मौसम में क्या अंतर है? शिक्षक नहीं बता पाए। तब तक हेडमास्टर आ गए। अधिकारी ने उनसे पूछा कि आप क्या पढ़ाते हैं? हेडमास्टर ने जवाब दिया- अंग्रेजी और संस्कृत। अधिकारी ने पूछा, ‘मैं विद्यालय जाता हूं’ को दोनों भाषाओं में ट्रांसलेट कीजिए? हेडमास्टर का भी हाल वही था जो टीचर का। स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पांचवी कक्षा के आधे से ज्यादा विद्यार्थी दूसरी कक्षा का गणित नहीं जानते या सामान्य हिंदी शब्द नहीं लिख पाते। एक ऐसे दौर में, जब जीवनयापन के लिए वैश्विक स्तर पर एक होड़ लगी हो, जो ज्ञान से वंचित है उसका भविष्य अंधकारमय रहेगा। क्या यह जरूरी नहीं कि देश की जीडीपी का एक बड़ा भाग शिक्षण और प्रशिक्षण पर खर्च किया जाए? प्रश्न पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी का नहीं है। प्रश्न यह है कि इस बढ़ती जीडीपी से निम्न वर्ग को कितना ऊपर लाया जा सकता है। अगर वह नीचे पड़ा रहा तो जीडीपी का कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि उसका लाभ कुछ हाथों में सिमट जाएगा और कुछ दिन बाद उद्योगों और सेवा क्षेत्र के लिए शिक्षित और ट्रेंड युवा मिलना बंद हो जाएंंगे। उज्ज्वल भारत के लिए शिक्षक का ज्ञान पहली शर्त है।


 

Date:14-07-22

सबसे बड़ी चुनौती

संपादकीय

संयुक्त राष्ट्र के आ​र्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग की जनसंख्या शाखा के एक अनुमान के मुताबिक हमारा देश अगले वर्ष तक आबादी के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश बन जाएगा। इसके मुताबिक चालू वर्ष के दौरान भारत की आबादी चीन की आबादी के बराबर हो जाएगी। इनमें से प्रत्येक देश की जनसंख्या 1.4 अरब से कुछ अ​धिक होगी। बहरहाल ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अगर दोनों देशों की प्रजनन दर में ढांचागत बदलाव नहीं आया तो भारत की आबादी का बढ़ना जारी रहेगा जबकि चीन की आबादी कम होने लगेगी। इसी अनुमान के मुताबिक सन 2050 तक भारत की आबादी करीब 1.7 अरब होगी जबकि चीन की 1.3 अरब। हालांकि ये आंकड़े कुछ अन्य वै​श्विक अनुमानों (मसलन द लान्सेट में गत वर्ष प्रका​शित अध्ययन समेत) से मेल नहीं खाते लेकिन इनकी दिशा मेल खाती है।

एक समय था जब बढ़ती आबादी को देश के जनांकीय लाभ के रूप में देखा जाता था। आज यह बात सुनने को नहीं मिलती। इसकी एक वजह यह भी है कि अब यह माना जाने लगा है कि जहां तक वृद्धि लाभांश के प्रतिनि​धित्व की बात है तो भारत ने कामगारों की यह पीढ़ी बहुत खराब तरीके से तैयार की है। शैक्ष​णिक दक्षता भी उपयुक्त स्तर की नहीं हैं। कागज पर देखा जाए तो स्कूली ​शिक्षा हासिल करने वालों की तादाद बढ़ी है। स्कूलों की गुणवत्ता पर ध्यान न दिए जाने से बच्चों में वे बुनियादी कौशल भी नहीं आ पा रहे हैं जो हाई स्कूल के बच्चों में होने चाहिए। दिल्ली के शहरी और आसपास के इलाकों के स्कूलों पर किया गया अध्ययन बताता है कि हाई स्कूल में पढ़ने वाले एक तिहाई बच्चों के पास बुनियादी ग​णितीय और भाषाई कौशल नहीं है। कई बच्चों का स्तर तो प्राथमिक विद्यालय के स्तर का है। इस तरह की श्रम श​क्ति रोजगार बाजार के लिए शायद ही तैयार हो, और यह जनांकीय लाभ का प्रतिनि​धित्व करती नहीं दिखती।

ऐसा कोई श्रम बाजार भी नहीं है जिसके लिए वे तैयारी कर सकें। यह सही है कि जून 2020 से जून 2021 के साव​धिक श्रम श​क्ति सर्वे से पता चलता है कि इस अव​धि में बेरोजगारी पिछले वर्ष से कम रही और इसका स्तर केवल 4.2 प्रतिशत रहा। बहरहाल, जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, शीर्ष आंकड़े वास्तविक ​स्थिति दर्शाते हैं। यह बड़ी तादाद में स्वरोजगार वाले लोगों, काम की तलाश न करने वाले लोगों और कृ​षि कार्यों की ओर वापस लौट चुके लोगों को छिपा लेता है। श्रमिक आबादी अनुपात 40 फीसदी से कम है। जो रोजगार युवा भारतीय श्रमिकों से जनांकीय लाभांश तैयार कर सकते हैं वे न तो

कृ​षि क्षेत्र में हैं और न ही स्वरोजगार में। जब तक बच्चों की बुनियाद मजबूत नहीं की जाएगी तब तक शायद व्यावसायिक ​​शिक्षा देने के प्रयासों को भी अपे​क्षित सफलता प्राप्त न हो सके।

अगर हम दुनिया में सबसे कम रोजगार अनुपात के साथ दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले देश बन जाते हैं तो यह एक बहुत बड़ी समस्या होने वाली है और भारत शायद इस आक​स्मिकता को समझने और इससे निपटने में तत्परता दिखाने में पिछड़ रहा है। जब तक हम दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती आबादी की मानव पूंजी नहीं बढ़ाते, भारत को समस्याओं का सामना करना होगा। ये समस्याएं केवल रोजगार और वृद्धि की आ​र्थिक समस्याएं नहीं होंगी ब​ल्कि हमें सामाजिक समस्याओं का भी सामना करना होगा। हाल ही में सरकारी और सैन्य नौकरियों को लेकर दंगों जैसे जो हालात बने, उन्हें इसकी बानगी माना जा सकता है।