20-06-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक
Date:20-06-22
Reposing Faith in The WTO System
India negotiating hard, being flexible.
ET Editorials
The World Trade Organisation (WTO) last week struck watered-down deals on a clutch of contentious issues, from fishing to vaccines, that restored a degree of relevance to multilateral trading rules. The first set of agreements in almost a decade went down to the wire after India yielded ground. On the table were wider access to vaccines, easing a food crisis, rolling over a ban on ecommerce duties and curbing fishing subsidies. The patent waiver for pandemic vaccines has been limited to production and export, less ambitious in scope than Indian expectations. New Delhi did not secure agreement on its proposal to export its grain stockpile but found acceptance for its subsidies to fishermen. It also had to dilute its position on imposing duties on ecommerce to protect domestic industry.
The agreements reached at the first WTO ministerial in four years are not groundbreaking, but stand out against a trend of protectionism that has been aggravated by the supply crises during the pandemic and the war in Ukraine. Producers are reviewing their supply chains and one of the options is to bring production back home. The energy crisis is forcing nations to rework fuel supply arrangements, and here, too, there are calls for setting up processing infrastructure within national borders. The food crisis has led to a spate of export restrictions, raising the prospect of famine.
Adecade’s hiatus in multilateral trade agreements has also been exploited by regional trade agreements that tend to favour select nations. Regional trade groupings are, by definition, less equitable than a global framework. India has, for instance, walked away from one such bloc in the Asia-Pacific dominated by China, and is now in discussions to join a competing group led by the US. Its experience with multilateral free trade agreements has led it to seek more fruitful bilateral pacts. By negotiating hard at the WTO ministerial, yet being flexible enough to allow deals to go through, New Delhi is reposing faith in a trading system inherently superior to any other.
Date:20-06-22
संयुक्त राष्ट्र की सराहनीय भाषाई पहल
प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल, ( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं )
दस जून, 2022 हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के लिए एक ऐतिहासिक दिन साबित हुआ। इस दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित बहुभाषावाद संबंधी एक प्रस्ताव में पहली बार हिंदी भाषा का उल्लेख हुआ। प्रस्ताव में बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के लिए आधिकारिक भाषाओं के अतिरिक्त हिंदी, बांग्ला, उर्दू, पुर्तगाली, स्वाहिली और फारसी को संयुक्त राष्ट्र की सहकारी कामकाज की भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। यह संयुक्त राष्ट्र के कामकाज के तरीके में एक बड़े परिवर्तन का संकेत है। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र के सभी जरूरी कामकाज और सूचनाओं को इसकी आधिकारिक भाषाओं के अलावा दूसरी भाषाओं जैसे- हिंदी, बांग्ला और उर्दू में भी जारी किया जाए। संयुक्त राष्ट्र महासभा की छह आधिकारिक भाषाएं हैं। इनमें अरबी, चीनी (मंदारिन), अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश शामिल हैं, किंतु संयुक्त राष्ट्र सचिवालय के कामकाज की दो ही भाषाएं हैं- अंग्रेजी और फ्रेंच।
बहुभाषावाद को संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी मूल्यों में गिना जाता है। इस संदर्भ में एक फरवरी, 1946 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के पहले सत्र में अपनाए गए सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 13(1) का जिक्र करना आवश्यक है। इसमें कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र अपने उद्देश्यों को तब तक प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि दुनिया के लोगों को इसके उद्देश्यों और गतिविधियों के बारे में पूरी जानकारी न हो। भारत इस उद्देश्य को प्राप्त करने में संयुक्त राष्ट्र के साथ खड़ा है। वर्ष 2018 से ही भारत संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक संचार विभाग के साथ साझीदारी कर रहा है, जिसका लक्ष्य हिंदी भाषा में संयुक्त राष्ट्र की पहुंच को बढ़ाना और दुनिया भर में हिंदी बोलने वाले लोगों को जोडऩा है। संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट और इसके इंटरनेट मीडिया खातों के माध्यम से हिंदी में संयुक्त राष्ट्र के समाचार पहले से ही प्रसारित किए जा रहे हैं।
जहां तक भारतीय भाषाओं का प्रश्न है तो हिंदी, बांग्ला और उर्दू बोलने वालों का कुल योग किया जाए तो हम मंदारिन बोलने वालों से अधिक हैं। इन भाषाओं को स्वीकार करने से संयुक्त राष्ट्र की पहुंच इन्हें बोलने वाली एक अरब की आबादी तक सीधे बन गई है, लेकिन यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि केवल संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा होने से भारतीय भाषाओं का प्रश्न हल नहीं होता है। आज नहीं तो कल किसी एक भारतीय भाषा को हमें पूरे देश की संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करना होगा। वह केवल राजभाषा बनाने से नहीं होगा, बल्कि उसे व्यवहार की भाषा बनाना होगा। जहां तक हिंदी की स्वीकृति का प्रश्न है तो संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए अरबी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को अपनी अदालतों में तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है। हिंदी को अदालत की तीसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलना दुनिया भर में हिंदी को मिल रहे सम्मान की एक और मिसाल है।
हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। प्रशांत महासागर के द्वीप देश फिजी में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। नेपाल, मारीशस, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम जैसे देशों में भी हिंदी प्रमुखता से बोली जाती है। हिंदी को विश्व भर में लोकप्रिय बनाने और उसे संयुक्त राष्ट्र की एक आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किए जाने की दिशा में प्रयास जारी हैं। इस संबंध में भारत की संसद में पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का एक वक्तव्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। सुषमा स्वराज ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को एक आधिकारिक भाषा बनाने में सबसे बड़ी समस्या संयुक्त राष्ट्र के नियम हैं। संयुक्त राष्ट्र के नियम के अनुसार संगठन के 193 सदस्य देशों के दो तिहाई सदस्यों यानी 129 देशों को हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के पक्ष में वोट करना होगा और इसकी प्रक्रिया के लिए वित्तीय लागत भी साझा करनी होगी। इस वजह से हिंदी को समर्थन करने वाले आर्थिक रूप से कमजोर देश इस प्रक्रिया से दूर भागते हैं। भारत सरकार इस संबंध में फिजी, मारीशस, सूरीनाम जैसे देशों से समर्थन लेने की कोशिश कर रही है जहां बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग रहते हैं। जब भारत को इस तरह का समर्थन मिलेगा और समर्थन करने वाले देश वित्तीय बोझ को भी सहने के लिए तैयार हो जाएंगे, तब हिंदी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बन जाएगी।
इन सभी विसंगतियों के बीच 2014 के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने वैश्विक स्तर पर हिंदी को पहचान दिलाई है। कई अवसरों पर भारतीय नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में अपने वक्तव्य दिए हैं। विश्व मंच पर भारत जितना मजबूत होगा भारत की भाषाएं भी उतनी ही मुखरता से वैश्विक कार्यव्यवहार, व्यापार और राजनय की भाषा के रूप में उभरकर आएंगी। इस प्रकार 10 जून, 2022 के प्रस्ताव को केवल हिंदी के आलोक में देखा जाना बेमानी होगा, क्योंकि यह प्रस्ताव मूल रूप से संयुक्त राष्ट्र को बदलने का प्रस्ताव है। यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में केवल कुछ भाषाओं की अधिकारिता से मुक्त एक बहुभाषी विश्व से आगे बढ़ाने की दृष्टि से लिया गया है, जो आज पूरी दुनिया की आवश्यकता है। बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र का यह एक महत्वपूर्ण कदम है। संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव से भारत की बहुलतावादी एवं बहुभाषिकता नीति को एक तरह से स्वीकृति मिली है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी भारत की बहुभाषिकता को एक ताकत के रूप में देखती है।
Date:20-06-22
भारत के लिए मिलेजुले नतीजे
संपादकीय
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अधिकारियों तथा केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के नेतृत्व में भारतीय अधिकारियों ने उस समझौते की सराहना की है जिसने वैश्विक व्यापार के अन्यथा मृतप्राय हो चुके संचालन ढांचे में नयी जान फूंक दी है। डब्ल्यूटीओ सहमति के आधार पर काम करता है, यानी कोई भी सदस्य देश किसी सौदे को वीटो कर सकता है। सात सालों के लिए बड़े समझौतों की पहली खेप में विभिन्न देश टीकों के पेटेंट संरक्षण, मछलीपालन सब्सिडी और डिजिटल व्यापार जैसे मसलों पर सहमति पर पहुंचे। भारत को इनमें से कई मसलों पर अपनी आपत्ति को नरम करना पड़ा, हालांकि उसने बाद में हुए संवाददाता सम्मेलन में खुद को विजेता बताया।
जीत की भावना को संदर्भ सहित समझना होगा। महामारी से संबंधित चिकित्सा उपकरणों को लेकर बौद्धिक संपदा संरक्षण को कमजोर करने की भारत (और दक्षिण अफ्रीका) की एक साल पुरानी मांग के बारे में कहा जा सकता है कि यह महामारी पर नियंत्रण के नजरिये से काफी देर से सामने आई। इसके दायरे में जांच और चिकित्सा विज्ञान नहीं बल्कि संबंधित टीके थे। चूंकि अधिकतर टीका निर्माता अब यह मानते हैं कि आपूर्ति में समस्या है इसलिए लगता नहीं कि इस समझौते से कोई लाभ होगा। मछली पालन से जुड़ा समझौता तो और जटिल है। इसे डब्ल्यूटीओ के नये नेतृत्व ने एक नये समझौते के लिए सबसे संभावित क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया था जो संस्था की नये क्षेत्रों में विस्तार की दस साल की अक्षमता को दूर कर सकता था।
उम्मीद की जा रही थी कि गैर किफायती सब्सिडी जिनके चलते विभिन्न देशों के अलग आर्थिक क्षेत्रों के बाहर अतिरिक्त मछलियां मारी जा रही थीं, उसे नियंत्रित किया जा सकेगा और दुनिया भर में मछली पालन का स्थिर भंडार तैयार हो सकेगा। भारत चाहता था कि चीन समेत अमीर देशों में इन सब्सिडी को नियंत्रित किया जाए तथा गरीब देशों के लिए सब्सिडी को 25 सालों के लिए बढ़ाया जाए। आखिर में इस समझौते का लहजा बहुत सरल कर दिया गया और उन अहम अनुच्छेदों को कमजोर बना दिया गया जो ऐसी गैर किफायती सब्सिडी से संबद्ध थे। इसमें प्रमुख तौर पर अवैध मछली पालन पर सब्सिडी नियंत्रण को स्थान दिया गया। भारत अपने मछली पालन करने वाले समुदायों का समर्थन करना जारी रख सकता है। अच्छी बात यह है कि सीमा पार डिजिटल प्रवाह पर कर लगाने पर लगे स्थगन के विस्तार को समाप्त करने की भारत की धमकी को बढ़ावा नहीं दिया गया। यह साफ नहीं है कि ऐसे कर से क्या लाभ होगा या फिर घरेलू उपयोगकर्ताओं को व्यापक दुनिया से काटे बिना इसका क्रियान्वयन कैसे होगा।
यह एक अन्य अवसर है जहां भारत की डिजिटल नीति बनाने वाले भ्रमित नजर आए। उनके पास लागत और लाभ का कोई मॉडल नहीं था। सदा की तरह भारत के लिए सबसे अहम मसला था सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए खाद्यान्न खरीद का संरक्षण। चूंकि सरकार ने संकेत दिया है कि वह इस व्यवस्था में सुधार करना चाहती है इसलिए यह साफ नहीं है कि बाहरी वार्ताओं में भी यही बुनियादी मामला क्यों रहता है। बहरहाल, भारत को खाद्यान्न भंडार के मामले में स्थायी या दीर्घकालिक विस्तार नहीं मिल सका, हालांकि चर्चा को टालने का निर्णय जरूर हुआ। कुल मिलाकर यह सुखद है कि डब्ल्यूटीओ उस तरह मृतप्राय नहीं है जैसा कि कुछ लोग मान रहे थे। यह अभी भी सहमति से निर्णय ले सकता है। यह बात मायने रखती है कि भारत की व्यापार वार्ता 31 दिसंबर, 2023 के पहले होने वाली आगामी मंत्रिस्तरीय बैठक में अपने हितों के साफ नजरिये के साथ आगे जा रही है। यह इसलिए कि कई अहम निर्णय टाल दिए गए। 2024 में हमारे यहां आम चुनाव भी होने हैं, ऐसे में भारत के वार्ताकारों के लिए चुनौती यह है कि वे ठोस तरीके से अपनी बात रखें।
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