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संसद में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन विधेयक, 2018 पारित
संसद में 09 अगस्त 2018 को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन विधेयक, 2018 पारित हो गया.
लोकसभा में 6 अगस्त 2018 को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन विधेयक पारित हुआ था.
प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आरंभिक जांच कराने की जरूरत को समाप्त करने अथवा किसी आरोपी को गिरफ्तार करने से पहले किसी अधिकारी से मंजूरी लेने और अधिनियम की धारा 18 के प्रावधानों को बहाल करने के लिए धारा 18ए को इसमें शामिल किया गया है.
अधिनियम में शामिल की गई धारा 18ए:
पीओए अधिनियम के प्रयोजन के लिए: किसी भी व्यक्ति के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आरंभिक जांच कराने की जरूरत नहीं होगी.
किसी भी ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए, यदि आवश्यक हो, जांच अधिकारी को मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं होगी, जिसके खिलाफ पीओए अधिनियम के तहत कोई अपराध करने का आरोप लगाया गया है और पीओए अधिनियम अथवा फौजदारी प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत उल्लिखित प्रक्रिया के अलावा कोई और प्रक्रिया लागू नहीं होगी.
किसी भी अदालत का चाहे कोई भी फैसला अथवा ऑर्डर या निर्देश हो, लेकिन संहिता की धारा 438 का प्रावधान इस अधिनियम के तहत किसी मामले पर लागू नहीं होगा.
विधेयक से संबंधित तथ्य:
• इस विधेयक में न सिर्फ पिछले कड़े प्रावधानों को वापस जोड़ा गया है बल्कि और ज्यादा सख्त नियमों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है.
• सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी, लेकिन न्याय मिलने में देरी ना हो इसलिए विधेयक के जरिए कानून में बदलाव किया जा रहा है.
• अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के खिलाफ होनेवाले अत्याचारों को रोकने के लिए बना कानून पहले की तरह ही सख्त रहेगा.
• इस विधेयक के जरिए न सिर्फ इस मामले में पहले से बना कानून बहाल होगा बल्कि इसे और सख्त बनाया जा सकेगा.
• जिस व्यक्ति पर एससी-एसटी कानून का अभियोग लगा हो तो उस पर कोई और प्रक्रिया कानून लागू नहीं होगा.
• इस विधेयक के कानून बनने के बाद दलितों पर अत्याचार के मामले दर्ज करने से पहले पुलिस को किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी और मुजरिम को अग्रिम जमानत भी नहीं मिलेगी.
• प्राथमिकी दर्ज करने से पहले पुलिस जांच की भी जरूरत नहीं होगी और पुलिस को सूचना मिलने पर तुरंत प्राथमिकी दर्ज करनी पड़ेगी.
• किसी व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर रजिस्टर करने के लिए प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं होगी.
• ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी से पहले जांच अधिकारी को किसी अनुमोदन की जरूरत नहीं होगी.
पृष्ठभूमि:
सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च 2018 को एससी/एसटी अत्याचार निवारण कानून के कुछ सख्त प्रावधानों को हटा दिया था जिसके कारण इससे जुड़े मामलों में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लग गयी थी और प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच जरूरी हो गयी थी.
दलित संगठनों ने सरकार से कानून को फिर से बहाल करने की मांग की थी, जिसके बाद सरकार ये कानून लेकर आई है. इस कानून में जो बदलाव किए गए हैं उसके अनुसार पहले एससी-एसटी कानून के दायरे में 22 श्रेणी के अपराध आते थे, लेकिन अब इसमें 25 अन्य अपराधों को शामिल करके कानून काफी सख्त बनाया जा रहा है.
स्वतंत्रता दिवस पर की गई प्रमुख घोषणाएं
GORKY BAKSHI
AUG 16, 2018 09:22 IST
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 72वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त 2018 को लाल किले से देश को संबोधित करते हुए तीन प्रमुख राष्ट्रव्यापी घोषणाएं की गईं. यह घोषणाएं स्वास्थ्य, अन्तरिक्ष एवं महिलाओं के सशक्तिकरण से संबंधित हैं.
प्रधानमंत्री द्वारा 82 मिनट के भाषण में जो तीन घोषणाएं की गईं उनमें शामिल हैं – पहली, वर्ष 2022 में आजादी के 75 साल पूरे होने से पहले भारत अंतरिक्ष में मानव मिशन के साथ गगनयान भेजेगा और वह ऐसा करने वाला दुनिया का चौथा देश बन जाएगा. दूसरी, सशस्त्र बलों में महिलाओं को पुरुषों के समान स्थायी कमीशन दिया जाएगा. तीसरी, 10 करोड़ गरीब परिवारों को पांच लाख रुपए तक का मुफ्त हेल्थ कवर देने के लिए 25 सितंबर से आयुष्मान भारत योजना शुरू होगी.
अंतरिक्ष में भारत का मानवयान – गगनयान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से दिए गए अपने संबोधन में घोषणा की कि वर्ष 2022 तक गगनयान लेकर कोई हिंदुस्तानी अंतरिक्ष में जाएगा. प्रधानमंत्री की इस घोषणा पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपनी प्रतिबद्धता जताई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में कहा, “हमने सपना देखा है कि 2022 में आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने के मौके पर या उससे पहले भारत की कोई संतान, चाहे बेटा हो या बेटी, वह अंतरिक्ष में जाएगा. जब हम मानव सहित गगनयान लेकर जाएंगे और यह गगनयान जब अंतरिक्ष में जाएगा और कोई हिंदुस्तानी इसे लेकर जाएगा, तब अंतरिक्ष में मानव को पहुंचाने वाले हम विश्व के चौथे देश बन जाएंगे.”
सशस्त्र बलों में महिलाओं को स्थायी कमीशन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर महिलाओं के लिए विशेष घोषणा करते हुए उन्हें सेना में स्थायी कमीशन देने की घोषणा की. प्रधानमंत्री के अनुसार अब भारतीय सशस्त्रद सेना में शॉर्ट सर्विस कमिशन के माध्यमम से नियुक्तन महिला अधिकारियों को पुरुष समकक्ष अधिकारियों की तरह ही परीक्षा देकर स्थासई रोजगार मिल सकेगा.
अब तक केवल वायुसेना में ही महिलाओं को युद्धक मोर्चे पर तैनाती के रूप में लड़ाकू विमान उड़ाने की अनुमति दी गई है. सशस्त्र बलों में महिला अधिकारियों को केवल गैर-युद्धक शाखाओं में ही स्थायी कमीशन दिया जाता है.
जन आरोग्य योजना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से संबोधित करते हुए देश के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र में बड़ी घोषणा की. प्रधानमंत्री ने जन आरोग्य योजना की घोषणा करते हुए कहा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती 25 सितंबर को इस योजना को लागू कर दिया जाएगा. प्रधानमंत्री ने कहा कि इस योजना से देश के 10 करोड़ परिवारों को इसका लाभ मिल सकेगा जिसके तहत पांच लाख रुपये तक के इलाज की सुविधा दी जाएगी.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना – आयुष्मान भारत
• राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (आयुष्मान भारत) के तहत आने वाले हर परिवार को 5 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा कराया जाएगा.
• इस योजना में हॉस्पिटलाइजेशन से पहले और बाद के खर्च को भी शामिल किया गया है.
• परिवार के हर सदस्य को राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत लाभ मिलेगा.
• महिला-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सब इस योजना के लाभार्थी हो सकते हैं.
• यह योजना पूरी तरह से कैशलेस होगी. प्रीमियम का भुगतान केंद्र और राज्य सरकार करेंगी.
• केंद्र सरकार 60 प्रतिशत तथा राज्य सरकार 40 प्रतिशत खर्च उठाएगी.
रेल मंत्रालय ने 22 स्टेशनों पर ‘डिजिटल स्क्रीन’ लॉन्च किया
रेल मंत्रालय ने 15 अगस्त 2018 को भारतीय रेल की विरासत के प्रति लोगों को जागरूकता बनाने के लिए ‘डिजिटल स्क्रीन’ लॉन्च किया.
रेलवे स्टेशनों पर क्विक रेसपांस (क्यूआर) कोड आधारित डिजिटल संग्रहालय बनाए जाने के प्रधानमंत्री के विजन के अनुरूप हैं.
उद्देश्य:
प्रायोगिक स्तर पर शुरू की गई इस योजना का उद्देश्य लोगों को एक से दो मिनट अवधि की लघु फिल्मों के जरिए भारतीय रेल की समृद्ध विरासत की जानकारी देना है.
मुख्य तथ्य:
- स्वतंत्रता दिवस के दिन से देश के 22 रेल स्टेशनों पर क्यूआर कोड आधारित डिजिटल स्क्रीन का संचालन शुरु कर दिया गया है.
- लघु फिल्में रेलवे स्टेशनों के प्रवेश द्वारों और यात्रियों के बैठने के स्थानों पर लगाए गए डिजिटल एलईडी स्क्रिन पर दिखाई जाएंगी.
- इस तरह के डिजिटल स्क्रीन फिलहाल नई दिल्ली, हज़रत निजामुद्दीन, हावड़ा, सियाल्दाह, जयपुर, आगरा छावनी, कोयंबत्तूर, लखनऊ, वाराणसी और अन्य रेलवे स्टेशनों पर लगाए गए हैं.
- इसके अलावा रेलवे की विरासत को दर्शाने वाले क्यूआर कोड आधारित पोस्टर भी इन रेलवे स्टेशनों पर लगाए गए हैं.
- यात्री इस क्यूआर कोड को अपने मोबाइल फोन पर स्कैन करके रेलवे की विरासत से जुड़ी वीडियो फिल्में देख सकते हैं.
- नई दिल्ली और हावड़ा स्टेशन पर ऐसे पोस्टरों और डिजिटल स्क्रीन के लिए अलग से एक डिजिटल वॉल बनाया गया है.
- अन्य स्टेशनों पर रेलवे ने ऐसे स्क्रीन और पोस्टरों के लिए पहले से मौजूद स्थानों का ही इस्तेमाल किया है इसके लिए अलग से कोई खर्च नहीं किया गया है.
महत्व:
यह कदम भारतीय रेलवे की भव्य विरासत के बारे में जनता के बीच जागरूकता फैलाने के लिए किया गया हैं. रेलवे के अनुसार इस परियोजना पर कोई अतिरिक्त व्यय नहीं किया जाएगा.
नई दिल्ली और हावड़ा स्टेशन पर ऐसे पोस्टरों और डिजिटल स्क्रीन के लिए अलग से एक डिजिटल वॉल बनाया गया है. लेकिन अन्य स्टेशनों पर रेलवे ने ऐसे स्क्रीन और पोस्टरों के लिए पहले से मौजूद स्थानों का ही इस्तेमाल किया है इसके लिए अलग से कोई खर्च नहीं किया गया है.
रेल मंत्री पीयूष गोयल ने नवंबर 2017 में छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस (जो कि विश्व विरासत सूची में शामिल है) के दौरे के दौरान घोषणा की थी कि वे इस व्यस्त ट्रेन टर्मिनस को विश्व स्तरीय संग्रहालय में बदलेंगे.
इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट सर्वेक्षण ने जारी किया वैश्विक जीवन क्षमता सूचकांक – 2018
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा वैश्विक जीवन क्षमता सूचकांक – 2018 जारी किया गया है। इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा ज़ारी इस रिपोर्ट में विश्व के 140 शहरों को उनकी रहने की स्थिति के आधार पर रैंक प्रदान किया गया है।
सूचकांक के प्रमुख बिंदु
- सूचकांक के दस शीर्ष शहर – वियना, मेलबर्न, ओसाका, कैलगरी, सिडनी, वैंकूवर, टोक्यो, टोरंटो, कोपेनहेगन और एडीलेड।
- इसमें विश्व के कुल 140 शहरों को शामिल किया गया है।
- सीरिया की राजधानी दमिश्क इस वर्ष भी सूचकांक में सबसे नीचे है जबकि बांग्लादेश की राजधानी ढाका को नीचे से दूसरा स्थान और कराची (पाकिस्तान) चौथा सबसे खराब शहर माना गया है।
- इस सूचकांक में भारत की राजधानी दिल्ली को 112वाँ और मुम्बई को 117वाँ स्थान प्राप्त हुआ है।
- वर्ष 2018 के सूचकांक में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना को प्रथम स्थान हासिल हुआ है। गौरतलब है कि पिछले वर्ष इस सूचकांक में मेलबर्न शीर्ष पर था।
वैश्विक जीवन क्षमता सूचकांक
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- विदित हो कि यह पहली बार हुआ है जब किसी यूरोपीय शहर को इस सूचकांक में शीर्ष स्थान हासिल हुआ है।
- उल्लेखनीय है कि इस सूचकांक के प्रकाशित होने के बाद आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय, भारत सरकार ने “इज़ ऑफ लिविंग इंडेक्स” ज़ारी किया है जिसमें भारत के कुल 111 शहरों को शामिल किया गया है।
- वैश्विक शहरी जीवन क्षमता के सूचकांक से अलग आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय, भारत सरकार के “इज़ ऑफ लिविंग इंडेक्स” में कुल 111 भारतीय शहरों में मुंबई को तीसरे स्थान पर और दिल्ली को 65वें स्थान पर रखा गया है।
इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट
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इज़ ऑफ लिविंग इंडेक्स
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लिविंग फ्रेमवर्क में चार स्तंभ- संस्थागत, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक शामिल हैं। इसे आगे 15 श्रेणियों और 78 संकेतकों में विभाजित किया गया है।
उल्लेखनीय है कि 78 संकेतकों के लिये 100-बिंदु मानदंडों के आधार पर शहरों का मूल्यांकन किया गया है। इसमें संस्थागत और सामाजिक स्तंभों के लिये 25 – 25 अंक, आर्थिक स्तंभ के लिये 5 अंक और भौतिक स्तंभ के लिये 45 अंक निर्धारित है।
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस
केरल का दौरा कर राहत और बचाव कार्यों की समीक्षा की
प्रधानमंत्री ने राज्य में आयी बाढ़ से उत्पन्न स्तिथियों की समीक्षा के लिये केरल का दौरा किया। एक समीक्षा बैठक के बाद, मौसम के हालात के अनुसार, उन्होंने राज्य के बाढ़ से प्रभावित कुछ स्थानों का हवाई सर्वेक्षण कर नुकसान का जायजा लिया। हवाई सर्वेक्षण के दौरान प्रधानमंत्री के साथ राज्य के राज्यपाल, मुख्यमंत्री और केंद्रीय पर्यटन राज्य मंत्री श्री के. जे. अलफोंस भी थे।
प्रधानमंत्री ने बाढ़ की वजह से हुयी असामयिक मौतों और जीवन और संपत्ति को हुये नुकसान पर अपना दु:ख और शोक प्रकट किया।
प्रधानमंत्री ने राज्य के मुख्यमंत्री श्री पिनारायी विजयन और राज्य सरकार के अधिकारियों के साथ एक बैठक कर बाढ़ से उत्पन्न स्थिति की समीक्षा की।
समीक्षा बैठक के बाद प्रधानमंत्री ने राज्य के लिये 500 करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता की घोषणा की। यह गृहमंत्री द्वारा 12 अगस्त 2018 को घोषित 100 करोड़ रुपये की राशि के अतिरिक्त है। उन्होंने राज्य सरकार को आश्वस्त भी किया कि राज्य सरकार द्वारा मांगी गयी राहत सामग्रियां जैसे अनाज और दवाइयों इत्यादि को उपलब्ध कराया जायेगा।
प्रधानमंत्री ने मृतकों के निकट संबंधियों को 2 लाख रु. प्रति व्यक्ति और गंभीर रूप से घायलों को 50 हजार रु. की सहायता अनुग्रह राशि के तौर पर प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (पीएमएनआरएफ) से देने की घोषणा की।
प्रधानमंत्री ने बीमा कंपनियों को विशेष शिविर आयोजित कर नुकसान का आकलन करने और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत प्रभावित परिवारों और लाभार्थियों को निश्चित समय के अंदर मुआवजा देने के निर्देश दिये।
उन्होंने फसल बीमा योजना के तहत किसानों के दावों के शीघ्र निस्तारण के आदेश दिये।
प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को प्राथमिकता के आधार पर बाढ़ से क्षतिग्रस्त हुये राष्ट्रीय राजमार्गों की मरम्मत का निर्देश दिया। केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों जैसे एनटीपीसी और पीजीसीआईल को भी निर्देश दिये गये हैं कि बिजली की लाइनों की मरम्मत के लिये राज्य सरकार को सभी संभव सहायता प्रदान करने के लिये उपलब्ध रहें।
जिन ग्रामीणों के कच्चे मकान इस विनाशकारी बाढ़ में नष्ट हो गये हैं उन्हें प्राथमिकता के आधार पर प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण के तहत आवास उपलब्ध कराये जायेंगे भले ही पीएमएवाई-जी की स्थायी प्रतीक्षा सूची में वे किसी भी स्थान पर रहे हों।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत 2018-19 के श्रम बजट में 5.5 करोड़ मानव कार्य दिवसों को मंजूरी दी गयी है। राज्य सरकार द्वारा इसमें वृद्धि के किसी भी निवेदन पर गौर किया जायेगा।
एकीकृत बागबानी विकास अभियान के तहत किसानों को उन बागबानी फसलों को दोबारा बोने के लिये सहायता प्रदान की जायेगी जिन्हें नुकसान पहुंचा है।
केंद्र सरकार केरल में बाढ़ की स्थिति पर लगातार और करीब से नजर रखे है। राज्य सरकार को इस संकट से निपटने के लिये प्रत्येक सहायता उपलब्ध करायी जा रही है। प्रधानमंत्री बाढ़ से उत्पन्न परिस्थिति के संबंध में मुख्यमंत्री के निरंतर संपर्क में बने हुये हैं।
प्रधानमंत्री के निर्देश पर 21 जुलाई 2018 को गृह राज्य मंत्री श्री किरेन रिजिजू ने श्री के. जे. अलफोंस (राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार) और एक उच्च स्तरीय केंद्रीय दल ने बाढ़ प्रभावित अलपुज्झा और कोट्टायम जिलों का दौरा कर बाढ़ की स्थिति और राहत कार्यों की समीक्षा की और प्रभावित लोगों से मुलाकात की थी।
12 अगस्त 2018 को केंद्रीय गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने पर्यटन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) श्री के. जे. अलफोंस एवं वरिष्ठ अधिकारियों के साथ केरल के बाढ़ एवं भूस्खलन से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा एवं हवाई सर्वेक्षण किया था और राज्य के मुख्यमंत्री, अन्य मंत्रियों और अन्य अधिकारियों के साथ केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलाये जा रहे खोज, बचाव एवं राहत कार्यों की समीक्षा की। गृहमंत्री ने एनडीआरएफ से 100 करोड़ रुपये की राशि के अग्रिम भुगतान के आदेश भी दिये।
केंद्रीय मंत्रालयों के एक संयुक्त दल ने राज्य सरकार द्वारा 21.07.2018 को दिये गये एक ज्ञापन के आधार पर 7 से 12 अगस्त 2018 के दौरान राज्य के प्रभावित इलाकों का दौरा कर नुकसान का आकलन किया था।
एनडीआरएफ के 57 दल, जिनमें 1,300 कर्मी और 435 नौकायें शामिल हैं, खोज और बचाव कार्य में लगाये गये हैं। बीएसएफ, सीआईएसएफ, आरएएफ की 5 कंपनियों को राज्य में राहत और बचाव कार्य के लिये तैनात किया गया है।
थलसेना, वायुसेना, नौसेना और तटरक्षक बल को भी राज्य में खोज और बचाव कार्यों के लिये नियुक्त किया गया है। राहत और बचाव कार्यों में कुल मिलाकर 38 हेलीकॉप्टरों को लगाया गया है। इसके अतिरिक्त 20 विमानों को भी संसाधनों की ढुलाई के लिये प्रयोग किया जा रहा है। थलसेना ने अभियांत्रिकी कार्यबल के 10 कॉलम और 10 दलों,जिसमें 790 प्रशिक्षित कर्मी शामिल हैं, को नियुक्त किया है। नौसेना 82 टीमों को लगा रही है। तटरक्षक बल ने 42 दल, 2 हेलीकॉप्टर और 2 पोतों को लगाया है।
9 अगस्त से एनडीआरएफ, थलसेना और नौसेना ने कुल मिलाकर 6,714 लोगों को बचाया या निकाला है और 891 व्यक्तियों को चिकित्सा सहायता मुहैया करायी है।
प्रधानमंत्री ने इस अभूतपूर्व संकट से निपटने के लिये राज्य सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की सराहना की है। उन्होंने कहा जो लोग अभी भी पानी में फंसे हुये उन्हें बचाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है और भारत सरकार इस काम में राज्य सरकार की यथासंभव मदद करती रहेगी।
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वीके/एएम/केएनटी/एमबी/एनके–9933
News Clipping on 18-08-2018
Date:18-08-18
Asian Test
Jakarta Games will set the tone for Tokyo 2020
TOI Editorials
Beginning today, the Asian Games in Indonesia are rightly being seen as a big test for Indian athletes ahead of the 2020 Tokyo Olympics. The multi-disciplinary sporting event will see a 572 member Indian contingent participating in 36 sports. Apart from traditional disciplines new sports such as kurash, pencak silat, roller skating and sepak takraw will witness Indian participation. The diverse contingent can be attributed to the slow but steady growth of non-cricket sports in India over the last few years. And with the likes of PV Sindhu in badminton, Sakshi Malik in wrestling and Dipa Karmakar in gymnastics, the country has a new crop of world beaters to look up to.
Moreover, India’s Asian Games participation comes after a strong showing at the Gold Coast Commonwealth Games earlier this year. India had won 26 gold medals and 66 medals overall then, laying the platform for a solid showing at the Asian-level event. Plus, many Indian athletes are in good form and have picked up medals at notable international tournaments in the run up to Indonesia. For example, Indian boxers have won medals at the Chemistry Cup and Ulaanbaatar Cup, Sindhu won silver at the Badminton World Championships, and Hima Das won gold at the World Under-20 Athletics Championships.
In fact, there are high expectations from the athletics contingent. With the likes of Neeraj Chopra (javelin), Dutee Chand and Tintu Luka (track), this is the best track and field squad India has fielded in many years. A good haul of medals from them will be the ideal boost for 2020 Olympic preparations. Add to this other medal prospects such as Shiva Thapa (boxing), Manika Batra (table tennis), the men’s and women’s hockey teams and double Olympic medallist in wrestling Sushil Kumar, the medal tally projection of 81 should be within reach. Given the high stakes, Indian athletes must make Indonesia count.
Date:18-08-18
चुनावी चिंता के बीच देश के विकास संबंधी वादे
संपादकीय
पंद्रह अगस्त को लाल किले से दिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण विकास के बड़े सपने दिखाने वाला था लेकिन, उस पर आगामी चुनाव की चिंता हावी थी। अच्छा होता वे यह भी स्पष्ट करते कि देश के तीव्र विकास के मार्ग में वास्तविक अड़चनें क्या और कहां हैं। प्रधानमंत्री ने वैसा करने की बजाय 2014 के पहले शासन करने वाले दलों और नेताओं पर दोषारोपण किया। उनके मानस में यह महत्वाकांक्षा बहुत मजबूती से बैठी है कि उन्हें दूसरा कार्यकाल मिलना चाहिए और इसीलिए अपने पहले कार्यकाल के आखिरी संबोधन में उन्होंने 2022 यानी भारत की 75 वीं जयंती के लिए अंतरिक्ष में पहले भारतीय को भेजने से लेकर किसानों की आय दोगुनी करने जैसे कई वादे किए। इस दौरान उन्होंने स्वास्थ्य बीमा के लिए आयुष्मान भारत जैसी योजना की घोषणा की और सेना में काम करने वाली महिला अधिकारियों को बराबरी देने के लिए एक स्थायी आयोग का एलान भी किया। उनकी घोषणा में तीन तलाक का विधेयक पास कराकर मुस्लिम महिलाओं को बराबरी देने का वादा भी निहित था।
अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने कश्मीर के लिए एक बार फिर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के सिद्धांत को अपनाने यानी सर्वानुमति बनाने पर जोर दिया है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री समाज के अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और कश्मीरियों की उन चिंताओं को दूर करने में सफल नहीं रहे जो इस समय देश को घेरे हुए हैं और जो संविधान को बदल देने की धमकियों तक जाती हैं। प्रधानमंत्री को लाल किले से दिया गया अपना पहला भाषण याद रखना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे सबका साथ और सबका विकास और कम से कम दस साल तक देश में जातिवाद, सांप्रदायिकता और हिंसा पर पूरी तरह से रोक चाहते हैं। आज देश इन्हीं समस्याओं से घिर गया है और इससे विकास के वे अच्छे काम प्रभावित हुए हैं, जिनसे देश में अच्छे दिनों की उम्मीद बन रही थी। जातिवाद, सांप्रदायिकता और उसके नाम पर होनी वाली हिंसा ने देश के भीतर गहरा विभाजन पैदा किया है और तरक्की में यकीन करने वाले नागरिकों के भीतर एक भय का निर्माण किया है। प्रधानमंत्री ने उस भय को दूर करने वाली बात न कह कर एक कसर छोड़ दी है।
Date:18-08-18
छोटे फायदे के फेर में बड़ा नुकसान
डॉ. भरत झुनझुनवाला (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं)
लोग अक्सर गांव से शहर इसलिए पलायन करते हैं कि वे वहां सुकून की जिंदगी बिता सकेंगे। उन्हें वहां सड़क, अस्पताल और बिजली आदि की सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन बरसात शहरों को नर्क बना दे रही है। सड़कों पर पानी भर जाता है, बिजली कट जाती है, आवागमन ठप हो जाता है, घरों में पानी भर जाता है। शहरों की यह दुर्गति वास्तव में हमारी ही बनाई हुई है। हमने बाढ़ से छुटकारा पाने के प्रयास में ऐसे काम किए हैं जिनसे बाढ़ की विभीषिका और बढ़ गई है। इन दिनों केरल की बाढ़ चर्चा में है। इसके पहले देश के दूसरे हिस्से बाढ़ के कारण चर्चा में थे। नदियों में बाढ़ का एक बड़ा कारण यह है कि हमने नदियों को खड़ी दीवारों के बीच में कैद कर लिया है जैसे लखनऊ में गोमती और मुंबई में मीठी नदी को। सामान्य परिस्थिति में जब तक नदी का स्तर दीवारों से कम रहता है तब तक नदी पानी को बहा ले जाती है और शहर बाढ़ से प्रभावित नही होता, लेकिन जब बाढ़ ज्यादा तीव्र हो जाए तब नदी को फैलने की जगह ही नहीं मिलती। सामान्यत: नदी के किनारों में एक कोण होता है। यह काफी कुछ अंग्रेजी के वी अक्षर जैसा होता है।
जैसे-जैसे नदी का जलस्तर बढ़ता है वैसे-वैसे नदी का क्षेत्रफल भी बढ़ता जाता है और नदी की पानी को बहा ले जाने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। हमने दीवार बनाकर नदी के पानी के फैलने के अवसर को कम कर दिया है। नदी का पानी जब दीवार से ऊपर उठता है तो वह चारों तरफ फैल जाता है जैसे कुछ दिन पूर्व मीठी नदी का पानी मुंबई के अगल-बगल के इलाकों में फैल गया था। हमारी नीति है कि पहाड़ी क्षेत्र के पानी को टिहरी जैसी झीलों में रोक लिया जाए। भीमगोड़ा जैसे बैराज से बरसाती पानी को निकालकर सिंचाई के लिए उपयोग कर लिया जाए। इन कोशिशों का सीधा फायदा यह है कि सामान्य वर्ष में नदी में पानी कम हो जाता है और हमें बाढ़ से छुटकारा मिल जाता है, लेकिन इसी कार्य का दीर्घकाल में दुष्प्रभाव पड़ता है। कई वर्षों के सामान्य बहाव में नदी पहाड़ से गाद लाकर अपने मैदानी इलाके में जमा करती रहती है। फिर पांच-दस साल बाद एक महाबाढ़ आती है जिस समय ज्यादा बहाव होने से पिछले पांच-दस साल में जमा की गई गाद को नदी अपने साथ एक झटके में बहाकर समुद्र तक ले जाती है। इस महाबाढ़ से नदी का पेटा पुन: साफ हो जाता है और अगले पांच-दस वर्षों में बाढ़ कम आती है।
अब हमने टिहरी और भीमगोड़ा के माध्यम से महाबाढ़ को रोक लिया। इस प्रकार नदी की जिस गाद को स्वाभाविक रूप से समुद्र तक बहाकर ले जाने का जो कार्य था वह अब रुक गया है। अब हर वर्ष गाद नदी के पेटे में जमा होती रहती है। नदी के पेटे का तल बढ़ता जाता है और सामान्य वर्ष में भी बाढ़ विकराल रूप धारण कर लेती है। हर वर्ष महाबाढ़ जैसी परिस्थिति बन जाती है। यदि नदी का पेटा खाली हो गया होता तो जान-माल का नुकसान नही होता, लेकिन हमने महाबाढ़ को रोकने में नदी के पेटे को ऊंचा कर दिया और सामान्य बाढ़ को भी और भयावह बना दिया है। नदियों के किनारे बंधे बनाने का भी ऐसा ही प्रभाव होता है। जब तक नदी में पानी सामान्य रहता है तब तक बंधे टिके रहते हैं और नदी का पानी नहीं उफनाता, लेकिन नदी ऊपर से लाई हुई गाद को बंधों के बीच में जमा करती रहती है। धीरे-धीरे नदी का पेटा ऊंचा होता जाता है और नदी आसपास की जमीन के ऊपर बहने लगती है। जब बारिश ज्यादा होती है तो बंधे टूट जाते हैं और नदी कहर बरपाती है। इस प्रकार मीठी नदी जैसी दीवारों, टिहरी जैसी झीलों, भीमगोड़ा जैसे बैराजों और बिहार के बंधों से हमने सामान्य बाढ़ पर कुछ हद तक ही काबू पाया है।
इस बीच हमने भारी वर्षा में नदी पर पड़ने वाले प्रभाव को नहीं समझा है। हमारी इसी अनदेखी के चलते बाढ़ और ज्यादा विनाशकारी साबित होती जा रही है। आर्थिक दृष्टि से देखें तो चार-पांच वर्ष में हम किसी भी संभावित नुकसान को बचा लेते हैं, लेकिन उससे ज्यादा नुकसान बाढ़ वाले वर्ष में हो जाता है। सामान्य बाढ़ को रोकने का एक और आर्थिक नुकसान होता है। आज देश के लगभग हर एक इलाके में भूमिगत जल का स्तर नीचे गिरता जा रहा है। हम पानी निकाल ज्यादा रहे हैं, जबकि उसका पुनर्भरण यानी रीचार्ज कम हो रहा है। जब नदी का पानी सामान्य बाढ़ में फैलता था तो उससे भूमिगत जल का पुनर्भरण होता था। नदी को दीवारों, बांधों और बंधों के बीच में रोककर हमने उस जल के पुनर्भरण को रोक दिया है। जिस समय महाबाढ़ आती है उस समय निश्चित रूप से पानी का पुनर्भरण होता है, लेकिन एक वर्ष में बाढ़ के फैलाव से जो लाभ होता है वह कम होता है। मेरे एक मित्र के नवजात शिशु की छोटी बीमारी को रोकने के लिए डॉक्टरों ने ज्यादा कड़ी एंटीबायोटिक दवाएं दीं। गलत उपचार में बच्चे की मौत हो गई। इसी प्रकार गलत तरीका अपनाने से सामान्य बाढ़ को बचाने के चक्कर में हमने नदी को ज्यादा कड़ी दवाई दे दी है।जरूरत है कि हम बाढ़ के सार्थक पक्ष विशेषकर भूमिगत जल के पुनर्भरण का सही आकलन करें और देखें कि इस लाभ की तुलना में नुकसान कितना हुआ है।
नदियों के प्राकृतिक रूप के साथ छेड़छाड़ करने की नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। इन दिनों उत्तराखंड में गंगा एवं उसकी सहायक नदियों पर विष्णुगाड पीपलकोटी और सिंगोली भटवाड़ी परियोजनाओं के विरोध में प्रख्यात पर्यावरणविद स्वामी सानंद आमरण अनशन पर बैठे हैं। ऐसे ही जो लोग शहरी जिंदगी को सुरक्षित रखना चाहते हैं उन्हें टिहरी जैसे बांधों को हटाने के लिए अनशन करने पर विचार करना चाहिए जिससे हमारी नदियां अपने नैसर्गिक रूप में प्रवाहमान हों और देश को बाढ़ जैसी आपदाओं से बचाया जा सके। वर्ष 1998 में मुझे गोरखपुर में आई बाढ़ का अध्ययन करने का अवसर मिला था। उस समय लोगों ने बताया था कि पूर्व में नदी का पानी लगभग हर वर्ष बाढ़ का रूप लेता था और खेतों के ऊपर एक पतली चादर की तरह बहता था। धान की ऐसी प्रजातियां थीं जो जलस्तर के साथ-साथ बढ़ती जाती थीं और उस बाढ़ में भी धान पैदा हो जाता था। बस्तियों को ऊंचे स्थानों पर बसाया जाता था जिससे बाढ़ में नुकसान न हो। हमें बाढ़ के साथ जीने की कला अपनानी होगी। शहरी नदियों को देवों से मुक्त करना होगा, वर्षा की निकासी को खोलना होगा। अन्यथा जिस प्रकार शिशु को छोटी बीमारी से छुटकारा देने के लिए कड़ी एंटीबायोटिक देकर उसकी मृत्यु हो गई उसी प्रकार छोटी बाढ़ से बचने के चक्कर में हम भयानक बाढ़ और बड़े नुकसान झेल रहे हैं।
News clipping on 17-08-2018
Date:17-08-18
मनरेगा मजदूरी तय करने के तरीके बदलने होंगे
रनेन बनर्जी पार्टनर एवं लीडर,पीडब्लूसी इंडिया
मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी में हुए ताजा संशोधन पर गौर करें तो एक बार फिर इसमें मामूली बढ़ोतरी ही हुई है। एक अप्रैल 2018 से लागू हुए नोटिफिकेशन के मुताबिक देश के 29 में से 15 राज्यों में यह पांच रुपए से भी कम बढ़ी है। मप्र, गुजरात, महाराष्ट्र में महज 2-2 रुपए बढ़ी है। इसका आंकड़ा क्रमश: 172 रुपए, 192 रुपए और 201 रुपए तक ही पहुंच पाया है। वहीं बिहार, झारखंड, राजस्थान और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां इसमें कोई इजाफा नहीं हुआ है। बिहार, झारखंड में यह 168 रुपए है। राजस्थान में 192 रुपए और यूपी में 175 रुपए पर स्थिर रही है। इसके बाद मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी तय करने की पद्धति में बदलाव करने की जरूरत बढ़ गई है। इस बारे में दो मुद्दे काफी अहम हैं। पहला, राज्यों के बीच न्यूनतम कृषि मजदूरी और मनरेगा मजदूरी में अंतर बहुत ज्यादा है। पिछले कुछ साल में यह अंतर तेजी से बढ़ा है। 2017 में कृषि मजदूरी की औसत दर 263 रुपए थी, जबकि मनरेगा मजदूरी की दर 198 रु. थी।
पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु़ जैसे राज्यों में तो यह अंतर 100 रुपए से भी अधिक है। 2009 में राज्यों की न्यूनतम कृषि मजदूरी की दर को मनरेगा के अनुरूप किया गया था। लेकिन राज्यों के बीच मजदूरी तय करने में एकरूपता नहीं होने से समय के साथ अंतर फिर बढ़ गया। मनरेगा की मजदूरी ‘ग्रामीण मजदूरों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ (सीपीआई-एएल) से जुड़ी हुई है। जबकि राज्य न्यूनतम कृषि मजदूरी तय करने के लिए विभिन्न सूचकांक इस्तेमाल करते हैं। मसलन, बिहार ने इसे सीपीआई-ऑल इंडिया से जोड़ रखा है। खेती से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों से भी मजदूरी में अंतर आ जाता है। इस कारण भी राज्यों के द्वारा मजदूरी तय करने के लिए एक समान तरीका अपनाने की जरूरत नजर आती है ताकि न्यूनतम कृषि मजदूरी और मनरेगा मजदूरी एक-समान हो पाएं।
दूसरा अहम मुद्दा मनरेगा मजदूरी की महंगाई दर का सीपीआई-एएल से जुड़ा होना है। इससे भी मनरेगा की मजदूरी में साल-दर-साल कम बढ़ोतरी हो रही है। सीपीआई-एएल एनएसएसओ सर्वे-1983 के खपत बास्केट पर आधारित है। यह इंडेक्स ग्रामीण परिवारों से संबंधित है जिनकी ज्यादातर आय कृषि से जुड़ी गतिविधियों से होती है। यह मनरेगा तय करने के लिए उचित आधार नहीं हो सकता क्योंकि मनरेगा के तहत सरकार वाटर हार्वेस्टिंग, सिंचाई, सड़क निर्माण आदि जैसे काम कराती है। सीपीआई-एएल के तहत खपत बास्केट का तरीका भी पुराना पड़ चुका है क्योंकि इसमें कई साल से खर्च के तरीकों में आए बदलाव को शामिल नहीं किया गया है। दूसरी तरफ, सीपीआई-रूरल इंडेक्स के तहत खपत बास्केट 2004-05 के आंकड़ों पर आधारित है। इसे सभी ग्रामीण परिवारों पर लागू किया जा सकता है। इसे अपनाने से ग्रामीण क्षेत्रों में महंगाई के बेहतर आंकड़े मिल सकते हैं। लेकिन पुराने तरीके की वजह से पिछले तीन साल के दौरान सीपीआई-एएल की महंगाई दर आंशिक रूप से सीपीआई-रूरल की महंगाई दर से कम रही है। मनरेगा मजदूरी में हुई मामूली बढ़ोतरी की एक वजह यह भी है। मनरेगा का उद्देश्य ग्रामीणों को उनके ही गांव में रोजगार से जोड़कर क्षेत्र से पलायन रोकना है। लेकिन पिछले कुछ साल में मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी में मामूली बढ़ोतरी होने से इस कानून का मुख्य उद्देश्य हासिल नहीं हो पाया है। यह सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ है जिसमें किसी श्रमिक को न्यूनतम मजदूरी से कम भुगतान को बंधुआ मजदूरी जैसा बताया गया है।
Date:17-08-18
राजनीति में इंसानियत के हिमायती अनूठे राजनेता
शशि थरूर, (शशि थरूर विदेश मामलों की संसदीय समिति के चैयरमैन)
सबसे लंबी आयु तक जीये देश के पूर्व प्रधानमंत्री 93 वर्ष की उम्र में हमसे विदा हो गए। लेकिन, उनके खराब स्वास्थ्य ने देश को उनकी संत जैसी सलाहों से करीब एक दशक तक वंचित रखा और अब तो वे रहे ही नहीं। जब से वे राष्ट्रीय मंच से ओझल हुए हैं वैसी मधुर वक्तृत्व कला, प्रखर हाजिरजवाबी और हंसती हुईं आंखें दिखाई नहीं दी है। कई लोग उनके प्रधानमंत्रित्व, पहले जनसंघ व बाद में भाजपा को दिए उनके राजनीतिक नेतृत्व, दोनों को उन्होंने कैसे राष्ट्रीय स्तर पर पूरी ऊर्जा के साथ ऊपर उठाया, इसकी बात करेंगे। किंतु । अटल बिहारी वाजपेयी को जो चीज अलग करती है वह है इंसानियत।
एक ऐसे वक्त जब भाजपा निष्ठुरता से पूरी तरह केंद्रित होकर सत्ता हासिल करने और दूसरों को दरकिनार कर सत्ता को आजमाने की पर्यायवाची हो गई है, वाजपेयी अधिक उदार व सौन्य युग की याद दिलाते हैं। उनके लिए ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसी कोई बात नहीं थी। जब वे 1977 में देश की पहली गैर-कांग्रेस सरकार में विदेश मंत्री बने तो उन्होंने पाया कि विदेश मंत्री के कक्ष से नेहरू का चित्र हटा दिया गया है। वे आजीवन कांग्रेस के आलोचक रहे पर उन्होंने नेहरू के चित्र को निर्धारित जगह पर वापस लगाने का आदेश दिया। यह अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का मूल था- उनका उदार हृदय होना। वे उन लोगों को भी गले लगा लेते थे, जिनसे वे असहमत होते। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जिन राष्ट्रीय राजमार्गों की कल्पना की, उनका निर्माण कराया, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने ग्रामीण क्षेत्र की कनेक्टिविटी बढ़ाने में जैसा योगदान दिया, वह हमेशा याद किया जाएगा। लेकिन, मैं उन्हें पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने के उनके असाधारण और अंत में नाकाम रहे प्रयासों के लिए याद करूंगा। मोरारजी देसाई की सरकार में अनपेक्षित रूप से विदेश मंत्री बनाए गए वाजपेयी ने पूरी गरिमा और संकल्प के साथ नेहरू युग की विदेश नीति को अमल में लाकर कई लोगों को चकित कर दिया था। इसी तरह फरवरी 1999 में लाहौर बस यात्रा की उनकी नाटकीय पहल और मिनार-ए-पाकिस्तान पर अपने पूर्वग्रह छोड़कर दिए उनके आंदोलित करने वाले भाषण ने कई लोगों को चौंका दिया। यह एक बहुत साहसी मुद्रा थी, जिसका जोखिम हिंदुत्व की बेदाग पहचान वाला नेता ही ले सकता। लेकिन, ‘लाहौर की वह भावना’ जल्दी ही करगिल की बर्फ में दफन हो गई, क्योंकि पाकिस्तानी फौज ने शांतिदूत को धोखा दे दिया। इससे विचलित हुए बगैर वाजपेयी ने नए सैन्य शासक जनरल मुशर्रफ को 2001 में आगरा में चर्चा के लिए आमंत्रित किया। लेकिन, संसद पर हुए हमले के बाद जब वह प्रयास भी नाकाम रहा तो भी 2003-04 में उन्होंने अंतिम राजनयिक प्रयास किया
जब वाजपेयी को पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने के लिए बार-बार के प्रयासों के लिए चुनौती दी गई तो उन्होंने स्मरणीय शब्दों में प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि आप इतिहास तो बदल सकते हैं पर भूगोल नहीं। पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है, आपको उसके साथ जीना होगा। इसी तरह उन्होंने कश्मीरी अलगाववादियों से भी संवाद शुरू किया था। जब कहा गया कि भारतीय संविधान के तहत वे किसी सुलह पर बातचीत नहीं करेंगे तो उन्होंने सुझाव दिया कि बातचीत ‘इंसानियत’ के तहत शुरू हो सकती है।
इंसानियत उनकी कविता, उनके व्यक्तिगत उद्गारों और गाहेबगाहे उनके भाषणों में दिखती थी, जो अपने आप में मास्टरपीस होते थे, जिन्हें बड़ी खूबी से बयान किया जाता था। यह मेरा दुर्भाग्य है कि उनके कॅरिअर के आखिर में उनसे मेरा परिचय हुआ, जब मैं संयुक्त राष्ट्र का उप महासचिव था तो संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक में उनके भाषण के पहले मेरे प्रधानमंत्री से मेरी वार्षिक मुलाकात होती थी। मैंने उन सालाना संक्षिप्त मुलाकातों का पूरा आनंद लिया। 2006 में संयुक्त राष्ट्र में महासचिव बनने के लिए जब मैंने फोन करके उनसे शुभकामनाएं मांगी तो उन्होंने जो आशीर्वचन व्यक्त किए उन्हें मैं हमेशा दिल में संजोकर रखूंगा।
अपने योगदान के कारण वाजपेयी भारत को बेहतर स्थिति में छोड़कर जा रहे हैं। उनके अनूठे सर्वशिक्षा अभियान ने प्राथमिक शिक्षा में महत्वपूर्ण निवेश किया, आर्थिक सुधारों में उनके नेतृत्व, अराजक से गठबंधन का कुशल प्रबंधन ने प्रधानमंत्री के रूप में उनके छह साल के कार्यकाल को स्मरणीय बना दिया। पर इन विशिष्ट उपलब्धियों से अधिक महत्व इस बात का है कि वाजपेयी ने उन्हें कैसे हासिल किया। उनका सौम्य, धैर्यशील रवैया, उनकी शाश्वत सौजन्यता, व्यवहार की गरिमा और सबको अपने दायरे में लेने वाली उनकी मानवीयता ने एक महान विरासत पीछे छोड़ी है। यह ऐसी विरासत है जिसे ऐसे युग में और भी अधिक याद करने, सराहने की जरूरत है, जिसमें ऐसे गुण हमारे सार्वजनिक जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं।
Date:17-08-18
रुपए का लगातार गिरता मूल्य और दुनिया के हालात
संपादकीय
स्वतंत्र भारत की 71वीं सालगिरह पर डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य 70.15 तक पहुंच गया। इसका अर्थ यही है कि अमेरिका जैसी महाशक्ति आर्थिक मामले में अपना साम्राज्य कायम रखना चाहती है और असंतुलित दुनिया का एक तनावपूर्ण ढांचा निर्मित रखना चाहती है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में रुपए के अवमूल्यन पर व्यंग्य करने वाले मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विपक्ष का यह व्यंग्य सुनना पड़ रहा है कि जो काम 70 सालों में नहीं हुआ वह इन्होंने कर दिया। भारत जब स्वतंत्र हुआ था तब एक डॉलर बराबर एक रुपया ही था। आज भले हम दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था बन गए हैं लेकिन, हमारी प्रति व्यक्ति आय, मानव विकास सूचकांक और अर्थव्यवस्था के दूसरे तमाम ब्योरे गर्व करने लायक नहीं हैं। ऐसे में हम सिर्फ यह कहकर नहीं बच सकते कि अमेरिकी व्यापार युद्ध के कारण तुर्की सर्वाधिक दिक्कत में है। तुर्की की मुद्रा लीरा डॉलर के मुकाबले 45 प्रतिशत गिर गई है और वहां महंगाई 16 फीसदी पर पहुंच गई है।
अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने निवेशकों से कहा है कि वे तुर्की समेत दुनिया के दूसरे बाजारों से धन खींचें और डॉलर को मजबूत करें। इसका प्रभाव यह हो रहा है कि विश्व के कई प्रगतिशील मुद्रा बाजार 8 फीसदी तक डुबकी लगा गए हैं। भारत में यह गिरावट उससे भी ज्यादा यानी 8.5 फीसदी तक चली गई है। भले ही हमारे पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली यह हौसला दिलाएं कि तुर्की के हालात पर नजर रखी जा रही है। वजह साफ है कि डॉलर के दाम बढ़ने के बाद रिजर्व बैंक उसे खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा का इस्तेमाल करता है और उससे उसमें गिरावट आती है। 3 अगस्त को हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1.49 अरब डॉलर घटकर 402.7 अरब डॉलर तक आ गया था, जो सात माह का सबसे निचला स्तर है। इस पतन की एक वजह पूरी दुनिया में चौबीसों घंटे चलने वाला एनडीएफ (नाॅन डिलीवरेबल फॉरवर्ड) बाजार भी है। सिंगापुर, दुबई, हांगकांग, लंदन, अमेरिका और यूरोप के कुछ हिस्सों में सक्रिय इस बाजार में मुद्रा का वायदा कारोबार होता है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि भारत अपना अतिरिक्त आत्मविश्वास छोड़कर जहां जरूरी हो वहां सार्थक हस्तक्षेप करे।
Date:17-08-18
विराट व्यक्तित्व की विदाई
संपादकीय
हाल के भारतीय इतिहास की सबसे लोकप्रिय और सर्व स्वीकार्य राजनीतिक शख्सियत अटल बिहारी वाजपेयी का अवसान एक ऐसे राजनेता की विदाई है जो जननायक के साथ-साथ महानायक की छवि से लैस हो गए थे। उनके निधन के साथ ही नेताओं की वह पीढ़ी ओझल होती दिखती है जिसने खुद को नेता से राजनेता यानी स्टेट्समैन में तब्दील कर लिया था। बीमारी के कारण वह एक अर्से से राजनीतिक तौर निष्क्रिय थे, लेकिन वह अपनी उपस्थिति का आभास कराते थे। इसका कारण यही था कि वह राजनीतिक जीवन में सक्रिय लोगों के लिए एक प्रेरक उदाहरण बन गए थे। यह उनके विराट व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि उनकी मिसाल उनके विरोधी भी देते थे।
आज जब यह अकल्पनीय है कि दूसरे दलों के लोग किसी अन्य दल के शिखर पुरुष का उल्लेख उसकी प्रशंसा करते हुए करें तब अटल बिहारी वाजपेयी का जाना एक राष्ट्रीय क्षति है। इस क्षति का अहसास इसलिए कहीं गहरा है, क्योंकि उनके जैसे समावेशी राजनीति के शिल्पकार दुर्लभ हैं। वह कितने विरले थे, यह इससे प्रकट होता है कि आज उनके जैसा भरोसा पैदा करने वाला नेता दूर-दूर तक नहीं नजर आता। उनके यश की कीर्ति जिस तरह फैली उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। उनकी लोकप्रियता दलगत सीमाओं से परे पहुंच गई थी तो केवल इसलिए नहीं कि वह भाजपा के कद्दावर नेता थे और उनकी भाषण शैली सभी को मंत्रमुग्ध करती थी। इसके साथ-साथ वह उस राजनीति के वाहक भी थे जिसके कुछ मूल्य और मर्यादाएं थीं।
भाजपा के शीर्ष नेता के तौर पर वह स्पष्ट तौर पर यह कहते थे कि हम एक राजनीतिक दल हैं और सत्ता में आना चाहते हैं, लेकिन उन्होंने यह भी साबित किया कि सत्ता ही सब कुछ नहीं है। आखिर कौन भूल सकता है उस क्षण को जब उनकी सरकार एक वोट से गिरी थी? यह इसीलिए गिरी थी, क्योंकि तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने विरोधी दल के एक ऐसे सांसद को भी मतदान में भाग लेने की अनुमति दे दी थी जो मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने इस फैसले का प्रतिवाद नहीं किया। इस प्रसंग के पहले उनकी 13 दिन की सरकार के विश्वास मत के समय उनका संबोधन कालजयी इसीलिए बना कि उन्होंने सत्ता के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाली राजनीति की राह पकड़ने से इन्कार किया।
आम के साथ-साथ खास लोग उन्हें सुनने के लिए इसलिए लालायित नहीं रहते थे कि वह उस दौरान हास-परिहास भी करते थे। वह अपने संबोधन के जरिये लोगों के मर्म को भी छूते थे और नीतियों और नजरिये को नई धार भी देते थे। जब यह स्थापित मान्यता थी कि कश्मीर समस्या का समाधान तो संविधान के दायरे में ही संभव है तब उन्होंने कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का मंत्र दिया। अटल जी भले ही स्थापित परंपराओं को पुष्ट करने वाले राजनेता के तौर पर जाने जाते हों, लेकिन उन्होंने नए प्रतिमान गढ़े और नई परंपराओं की आधारशिला रखी।
उन्होंने न केवल गठबंधन राजनीति को बल और संबल प्रदान किया, बल्कि विदेश नीति को भी नया आयाम दिया। तमाम कटुता भुलाकर उन्होंने एक राजनेता की तरह व्यवहार किया और कारगिल के खलनायक परवेज मुशर्रफ को वार्ता की मेज पर आने का अवसर दिया। मुशर्रफ के बुलावे पर वह पाकिस्तान गए तो वहां से अमन का एक टुकड़ा लेकर ही लौटे। कमजोर समझी जाने वाली गठबंधन सरकारों का नेतृत्व करने के बावजूद उन्होंने देश को परमाणु हथियार संपन्न बनाया और पूरी दुनिया को दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता से परिचित कराया। वह ऐसा इसीलिए कर सके, क्योंकि एक सांसद के तौर पर वह विदेश नीति के ऐसे विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते थे जो भरी संसद में नेहरू जी से भी असहमति प्रकट करने में आगे रहते थे। यह तब था जब वह नेहरू को एक आदर्श नेता के तौर पर देखते थे।
उन्होंने यह दिखाया कि राजनीति में मतभेद किस तरह मनभेद तक नहीं जाने चाहिए। उनका एक अन्य बड़ा योगदान सुशासन को सार्थकता प्रदान करना रहा, जिसके लिए राष्ट्र उनका ऋणी रहेगा। उनका व्यक्तित्व महज एक लोकप्रिय राजनेता का ही नहीं, कवि हृदय वाले व्यक्ति का भी था। वह हिंदी प्रेमी ही नहीं हिंदी सेवी भी थे। उनकी विशिष्ट शैली की हिंदी ने उन्हें लोकप्रिय बनाया तो हिंदी को लोकप्रियता प्रदान करने का एक बड़ा श्रेय उन्हें जाता है। वह राजनीति में डूबे होने के बाद भी राजनीति से इतर गतिविधियों में मग्न दिख जाते थे।
पत्रकारिता से करियर शुरू करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे तो इसीलिए कि वह देश की नब्ज पहचानते थे और यह भी जानते थे कि लोकतांत्रिक भारत का लक्ष्य क्या है और उसे कैसे हासिल किया जा सकता है? उनका जाना हमारे राष्ट्रीय जीवन में इसलिए एक बड़ा रिक्त स्थान कर गया कि अब उनकी जगह लेते हुए कोई नहीं दिखता। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि वह जिन राजनीतिक और लोकतांत्रिक आदर्शो के प्रति समर्पित रहे उन्हें आगे बढ़कर अपनाया जाए। राजनीति और राष्ट्र का हित इसी में है और यही अजात शत्रु सरीखे अटल बिहारी वाजपेयी सदैव चाहते रहे।
News clipping on 16-08-2018
Date:16-08-18
किसानों की आय दोगुनी करने के लिए
राधा मोहन सिंह, केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्री
राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष एमएस स्वामीनाथन ने अपनी रिपोर्ट में यह अनुशंसा की थी कि कृषि आधारित सोच के साथ-साथ किसानों के कल्याण पर भी उचित ध्यान दिया जाना चाहिए। यह किसान ही है, जो आर्थिक बदलावों में किए गए प्रयासों को महत्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है। अत: व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के लिए कृषि में फसल उपरांत प्रसंस्करण बाजार और इससे संबंधित व्यवस्था पर समुचित ध्यान देना होगा। नैसर्गिक संपदाओं में लगातार क्षरण और जलवायु परिवर्तन को देखते हुए आयोग ने विज्ञान आधारित प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और सतत उत्पादन व विकास की तरफ भी ध्यान देने की बात कही थी। अब उन्होंने भी स्वीकार किया है कि पिछले चार साल में इस दिशा में काफी प्रयास हुए हैं। खासकर किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने और कृषि उत्पादन लागत में कमी करने के लिए। देशव्यापी ‘सॉइल हेल्थ कार्ड’ स्थापित करना इसी सोच का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
नाइट्रोजन उपयोग क्षमता को बढ़ाने और उपयोग की मात्रा व इससे जुड़ी लागत को घटाने के लिए नीम कोटिड यूरिया के उपयोग को अनिवार्य बना दिया गया है। इससे उत्पादकता में सुधार हुआ है और खेती की लागत घटी है। इससे इसके गलत उपयोग और गैर-कृषि क्षेत्र में इसके इस्तेमाल को रोकने में भी मदद मिली है। सतत कृषि विकास और मृदा स्वास्थ्य के लिए ऑर्गेनिक खेती को परंपरागत विकास योजना के साथ जोड़ दिया गया है, जिसमें पुआल का इन-सीटू प्रबंधन भी शामिल है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के लागू होने से खेती के कार्यों में उचित जल प्रबंधन हो सकेगा। साथ ही, 2016 में दुनिया की सबसे बड़ी फसल बीमा योजना व मौसम आधारित फसल बीमा योजना को शुरू किया गया, जो किसानों को सभी जोखिमों से सुरक्षा प्रदान करती है।
राष्ट्रीय किसान आयोग ने किसानों की आय बढ़ाने हेतु बहुत सारे सुधारों की सिफारिश की थी, जिसको आधार मानकर सरकार ने बहुत सारी योजनाएं लागू की हैं। इसके साथ ही कृषि भूमि को पट्टे पर देने से संबंधित नया कानून लागू किया गया, जिसमें जमीन के मालिक और पट्टा लेने वाले, दोनों के हितों का ख्याल रखा गया है। बाजार सुधार लागू करने से बाजारों में पारदर्शिता बढ़ी है। देश की राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक ई-मार्केट स्कीम (ई-नाम) एक ऐसा उपाय है, जो देश भर के कृषि बाजारों को एक साथ जोड़ता है। साथ ही, 585 कृषि उत्पाद समितियों के अलावा बाकी मंडियों के बीच खुले व्यापार पर ध्यान देकर राष्ट्रीय कृषि बाजार की स्थापना की गई है। ग्रामीण कृषि बाजार स्थापित होने से किसान सीधे तौर पर उपभोक्ताओं या खुदरा विक्रेताओं को अपने उत्पाद बेच सकेंगे।
सरकार के तमाम फैसलों में लागत से न्यूनतम 50 प्रतिशत ज्यादा समर्थन मूल्य देने का निर्णय सबसे महत्वपूर्ण है। साथ ही, इसे नया विस्तार भी दिया गया है। हरित क्रांति की शुरुआत से सरकारी खरीद केवल धान व गेहूं तक सीमित रही है। कभी-कभी कुछ और जिन्सों की खरीदारी भी की जाती रही है। पर अब दलहन और तिलहन की खरीदारी में भारी वृद्धि हुई है। हम दलहन, तिलहन के आलावा अन्य मोटे अनाजों के उत्पादन करने वाले किसानों समेत सभी तरह के किसानों को राज्य सरकारों के माध्यम से लाभ पहुंचाएंगे। अभी तक ऐसे ज्यादातर किसान उपेक्षित थे, लेकिन अब उन्हें महत्व दिया जा रहा है। ये ऐसी फसलें हैं, जो हमारी जलवायु के अनुकूल हैं और भविष्य में जलवायु परिवर्तन को सहने की क्षमता भी रखती हैं। इस सिलसिले को बढ़ाते हुए हमारा लक्ष्य 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का है।
खेती के अलावा पशुपालन, मछली पालन, जलजीवों के विकास को भी सरकार ने अपनी नीतियों व योजनाओं में उचित प्राथमिकता दी है। राष्ट्रीय गोकुल मिशन, जो देसी नस्लों के संरक्षण व विकास पर आधारित है, उस पर ध्यान दिया जाना समुचित कृषि विकास का अभिन्न अंग है। इससे बहुत सारे लघु व सीमांत किसान, जिसमें भूमिहीन कृषि मजदूर शामिल हैं, और जो देसी नस्लें पालते हैं, सबको उचित लाभ मिल रहा है। देश में 161 देसी नस्लों का पंजीकरण किया गया है, जिसके विकास के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद सक्रिय हो गई है। मछली उत्पादन विकास से जुड़ी परियोजनाओं से मछुआरों के जीवन में आशातीत सुधार हो रहे हैं। मछली उत्पादन क्षेत्र ने कृषि के बाकी सभी क्षेत्रों से ज्यादा वृद्धि दर हासिल की है।
ऐसे लघु किसान, जो परिवार के भरण-पोषण के लिए समुचित आय नहीं कमा सकते, उनके लिए सहयोगी कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है। सरकार की कृषि आधारित सहयोगी योजनाएं, जिनमें मधुमक्खी पालन, मशरूम उत्पादन, कृषि वानिकी और बांस उत्पादन आदि शामिल हैं। इन योजनाओं से कृषि में अतिरिक्त रोजगार व आमदनी पैदा करने में सहायता मिलेगी। राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा की गई उत्पादकता बढ़ाने व कुपोषण दूर करने संबंधी सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा पिछले चार साल में ही फसलों की कुल 795 उन्नत किस्में विकसित की गई हैं। इनमें से 495 किस्में जलवायु के विभिन्न दबावोंको सहने में सक्षम हैं। इनका लाभ किसान उठा रहे हैं। सीमांत व लघु किसान परिवारों की आमदनी बढ़ाने की दिशा में पहल करते हुए कुल 45 एकीकृत कृषि प्रणाली मॉडल विकसित किए गए, जिनसे मिट्टी की सेहत और जल उपयोग की प्रभावशीलता को बढ़ाया जा रहा है, साथ ही कृषि की जैव विविधता का संरक्षण किया जा रहा है। इन मॉडलों को गांव-गांव पहुंचाने के लिए प्रत्येक कृषि विज्ञान केंद्र में इस मॉडल को स्थाापित किया जा रहा है। ये सभी योजनाएं पूरी तरह से लागू हो गईं, तो कोई संदेह नहीं कि जब देश अपनी आजादी की 75वीं सालगिरह मना रहा होगा, तब हमारे किसानों की आमदनी दोगुनी हो चुकी होगी।
Date:15-08-18
बाढ़ के रास्ते
संपादकीय
इस साल अच्छे मानसून ने एक ओर जहां खेती-किसानी के लिए काफी उम्मीदें जगार्इं, वहीं बारिश के चलते देश के अलग-अलग हिस्सों से व्यापक नुकसान की जैसी खबरें आ रही हैं, वे चिंता पैदा करती हैं। देश के कई राज्यों में भारी बारिश के कारण आई बाढ़ ने जनजीवन को पूरी तरह ठप कर दिया और बड़े पैमाने पर जान-माल की हानि हुई है। दरअसल, इस साल की बरसात ने एक प्राकृतिक आपदा का रूप ले लिया है। अब तक उत्तर प्रदेश, बिहार और यहां तक कि केरल में भी बाढ़ से कई लोग जान गंवा चुके हैं। देश भर से अब तक कम से कम पौने आठ सौ लोगों के मारे जाने की खबरें आ चुकी हैं। लेकिन मैदानी इलाकों की बरसात के मुकाबले पहाड़ी क्षेत्रों में इससे उपजे खतरे की प्रकृति और स्वरूप अलग होता है और इससे निपटना भी चुनौतियों से भरा हुआ। खासतौर पर अचानक बादलों के फटने की स्थिति में लोग चाह कर भी बहुत कुछ नहीं कर पाते। इन्हीं वजहों से हिमाचल प्रदेश में इस साल की बारिश में अब तक सोलह लोगों के मारे जाने की खबरें आ चुकी हैं। भूस्खलन और जमीन धंसने की घटनाओं से राज्य के अधिकांश छोटे-बड़े सड़क मार्ग बंद हो गए हैं। हालात के मद्देनजर फिलहाल सभी स्कूलों को भी बंद रखने का फैसला किया गया है।
आमतौर पर पहाड़ी इलाकों की बरसात के बारे में माना जाता है कि तीखी ढलान होने की वजह पानी का निकास आसानी से हो जाता है, इसलिए बाढ़ की आशंका कम पैदा होती है। लेकिन सच यह है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान उन क्षेत्रों में अनियोजित विकास ने शहरों को संकरा और घनी आबादी वाला बना दिया है। नदियों के पानी के प्रवाह पर भी इसका असर पड़ा है और यही वजह है कि ज्यादा बारिश में नदियां उफन जाती हैं और रिहाइशी इलाकों को भी तबाह करती हैं। इसके अलावा, अंधाधुंध तरीके से पेड़ों की कटाई ने पहाड़ों की मजबूती पर बुरा असर डाला है और औसत से ज्यादा बारिश होने पर भूस्खलन जैसी घटनाएं लगातार देखने में आ रही हैं। हिमाचल प्रदेश का आकर्षण और उसकी अर्थव्यवस्था का आधार पर्यटन है और हर वक्त हजारों पर्यटक वहां मौजूद होते हैं। लेकिन इस साल जिस तरह बाढ़ और पहाड़ों में भूस्खलन की आशंका खड़ी हो गई है, उसे देखते हुए पर्यटकों से हिमाचल की यात्रा स्थगित करने की सलाह जारी करनी पड़ी है।
पहाड़ी इलाकों में ज्यादा बड़ी तबाही बादल फटने से देखी गई है। बाढ़ नदियों से शुरू होकर उफनने के बाद मैदानी इलाकों में फैलती है और इस तरह उसके रास्ते और इलाके के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन बादल फटने की जगह निश्चित नहीं होती। अगर अचानक भारी बारिश के पानी की निर्बाध निकासी की व्यवस्था की जाए और वृक्षारोपण को तेजी से बढ़ावा दिया जाए तो बारिश के मौसम में बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने जैसी आपदाओं का सामना करने में थोड़ी आसानी हो सकती है। लेकिन विडंबना यह है कि बरसात से उपजी आफत के उदाहरण सामने होने के बावजूद सरकारों की नींद तब तक नहीं खुलती है, जब तक इस तरह का नया संकट सामने खड़ा न हो जाए। सरकारों के इसी रवैए की वजह से जान-माल के नुकसान का दायरा व्यापक हो जाता है। मौसम का अपना एक नियत चक्र होता है और आपदाओं को रोका नहीं जा सकता। लेकिन अचानक आई आपदा से निपटने के पूर्व इंतजाम जरूर किए जा सकते हैं, ताकि होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।
जवान और आदिवासी मिलकर बुन रहे सुनहरे बस्तर की तस्वीर
छत्तीसगढ़ के घोर नक्सल प्रभावित बस्तर में जवान और आदिवासी मिलकर सुनहरे भविष्य की तस्वीर बुन रहे हैं। आदिवासियों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और उनके दिलों में जगह बनाने के लिए जवान अनोखे काम कर रही है। इस बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर फोर्स उन गांवों में पहुंची, जो कभी नक्सलियों के गढ़ माने जाते थे। जहां कभी नक्सली काले झंडे फहराते थे, वहां इस बार शान से तिरंगा लहराया। अबूझमाड़ में सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन ने ऐसे कई स्कूलों को इसी वर्ष खुलवाया है, जहां जवान बच्चों को खुद भी पढ़ाते हैं। इस बार इन स्कूलों के बच्चों को लजीज खाना भी परोसा और जवानों ने उनके साथ फुटबाल भी खेला। वहीं, दंतेवाड़ा के पुसपाल में जवानों ने सड़क निर्माण को सुरक्षा देकर स्वतंत्रता दिवस मनाया। सीआरपीएफ आइजी संजय अरोरा कहते हैं कि आदिवासियों में जवानों के प्रति भरोसा जगाने के लिए सिविक एक्शन प्लान चलाया जाता है। इसी के तहत स्कूल और गांवों में जवानों ने स्वतंत्रता दिवस मनाया है। सीआरपीएफ ने स्वतंत्रता दिवस पर जवानों के अनोखे काम को अपने ट्विटर अकांउट पर भी पोस्ट किया है। इसमें बच्चों को खाना परोसती जवानों की तस्वीर भी शामिल है। 204 कोबरा बटालियन के जवान अपने कैंप के नजदीक के स्कूल पहुंचे। जवानों ने बताया कि यहां के बच्चे नक्सली आतंक से भयभीत हैं। सरकार और फोर्स को करीब से देखने के बाद इनमें नक्सलियों का भय कम हो जाएगा।