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बेरोजगारी पर हो बात

यह वाकई चिंता का विषय है कि नोटबंदी के बाद बीते दो वर्षों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 50 लाख लोगों ने अपना रोजगार खो दिया है। यह जानकारी बेंगलुरु स्थित अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सस्टेनेबल एंप्लॉयमेंट (सीएसई) द्वारा मंगलवार को जारी रिपोर्ट ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2019’ में दी गई है। यह रिपोर्ट सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) द्वारा हर चार महीने पर 1,60,000 परिवारों के बीच किए गए सर्वेक्षण के अध्ययन पर आधारित है।

सीएसई के अध्यक्ष और रिपोर्ट के मुख्य लेखक प्रो. अमित बसोले का कहना है कि कहीं और नौकरियां भले ही बढ़ी हों और कुछ लोगों को शायद उसका लाभ भी मिला हो, लेकिन इतना तय है कि पचास लाख लोगों ने अपनी नौकरियां खोई हैं, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है। रिपोर्ट में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है कि लोगों के बेरोजगार होने की मुख्य वजह नोटबंदी है। उपलब्ध आंकड़ों से दोनों के बीच कोई सीधा रिश्ता नहीं जुड़ता। रिपोर्ट के अनुसार नौकरी खोने वाले 50 लाख पुरुषों में ज्यादातर कम शिक्षित हैं। मुश्किल यह है कि बेरोजगारी पर किसी भी बातचीत को केंद्र सरकार अपने ऊपर हमले के रूप में लेती है। पिछले दिनों बेरोजगारी को लेकर एनएसएसओ के आंकड़ों पर काफी विवाद हुआ और सरकार ने उन्हें आधिकारिक रूप से जारी ही नहीं किया। यह बात मीडिया के माध्यम से सामने आई कि एनएसएसओ ने 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत आंकी है जो पिछले 45 साल का सर्वोच्च स्तर है। इसके बाद नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने हड़बड़ी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर कहा कि ये आंकड़े अंतिम नहीं हैं क्योंकि सर्वेक्षण अभी पूरा नहीं हुआ है। लेकिन इसके बाद भी सरकार ने स्पष्ट नहीं किया कि बेरोजगारी पर सरकारी आंकड़े हैं क्या?

सत्तारूढ़ दल ने विपक्ष पर बेरोजगारी के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने और उनपर राजनीति करने का आरोप लगाया। बेरोजगारी लोगों के लिए जीवन-मृत्यु का मसला है और इसपर बयानबाजी से बचा जाना चाहिए लेकिन इसपर कोई बात ही न करना इसे और खतरनाक बना सकता है। बेरोजगारी को सिर्फ सरकारी नीतियों की विफलता के रूप में देखना एक तरह का सरलीकरण है। अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों का उतार-चढ़ाव पूरी दुनिया से जुड़ा होता है। एक समय भारत में बीपीओ सेक्टर तेजी से फला-फूला लेकिन फिर विभिन्न वजहों से इसमें शिथिलता आ गई। निर्यात में आ रही कमी ने भी समस्या बढ़ाई है। रोजगार उपलब्ध कराने में का सबसे अधिक योगदान मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का होता है, जो काफी समय से ढीला चल रहा है। बेरोजगारी दूर करने के लिए चीन की तरह हमें भी श्रम प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देना होगा और कुछ ऐसा करना होगा कि इनमें उद्योगपतियों की खास दिलचस्पी पैदा हो। लेकिन यह सब तभी होगा, जब सरकार यह माने कि अभी के भारत में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है।

बेरोजगारी पर हो बात

बेरोजगारी पर हो बात

यह रिपोर्ट सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) द्वारा हर चार महीने पर 1,60,000 परिवारों के बीच किए गए सर्वेक्षण के अध्ययन पर आधारित है।

सांकेतिक तस्वीर
यह वाकई चिंता का विषय है कि नोटबंदी के बाद बीते दो वर्षों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 50 लाख लोगों ने अपना रोजगार खो दिया है। यह जानकारी बेंगलुरु स्थित अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सस्टेनेबल एंप्लॉयमेंट (सीएसई) द्वारा मंगलवार को जारी रिपोर्ट ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2019’ में दी गई है। यह रिपोर्ट सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) द्वारा हर चार महीने पर 1,60,000 परिवारों के बीच किए गए सर्वेक्षण के अध्ययन पर आधारित है।

सीएसई के अध्यक्ष और रिपोर्ट के मुख्य लेखक प्रो. अमित बसोले का कहना है कि कहीं और नौकरियां भले ही बढ़ी हों और कुछ लोगों को शायद उसका लाभ भी मिला हो, लेकिन इतना तय है कि पचास लाख लोगों ने अपनी नौकरियां खोई हैं, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है। रिपोर्ट में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है कि लोगों के बेरोजगार होने की मुख्य वजह नोटबंदी है। उपलब्ध आंकड़ों से दोनों के बीच कोई सीधा रिश्ता नहीं जुड़ता। रिपोर्ट के अनुसार नौकरी खोने वाले 50 लाख पुरुषों में ज्यादातर कम शिक्षित हैं। मुश्किल यह है कि बेरोजगारी पर किसी भी बातचीत को केंद्र सरकार अपने ऊपर हमले के रूप में लेती है। पिछले दिनों बेरोजगारी को लेकर एनएसएसओ के आंकड़ों पर काफी विवाद हुआ और सरकार ने उन्हें आधिकारिक रूप से जारी ही नहीं किया। यह बात मीडिया के माध्यम से सामने आई कि एनएसएसओ ने 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत आंकी है जो पिछले 45 साल का सर्वोच्च स्तर है। इसके बाद नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने हड़बड़ी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर कहा कि ये आंकड़े अंतिम नहीं हैं क्योंकि सर्वेक्षण अभी पूरा नहीं हुआ है। लेकिन इसके बाद भी सरकार ने स्पष्ट नहीं किया कि बेरोजगारी पर सरकारी आंकड़े हैं क्या?

सत्तारूढ़ दल ने विपक्ष पर बेरोजगारी के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने और उनपर राजनीति करने का आरोप लगाया। बेरोजगारी लोगों के लिए जीवन-मृत्यु का मसला है और इसपर बयानबाजी से बचा जाना चाहिए लेकिन इसपर कोई बात ही न करना इसे और खतरनाक बना सकता है। बेरोजगारी को सिर्फ सरकारी नीतियों की विफलता के रूप में देखना एक तरह का सरलीकरण है। अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों का उतार-चढ़ाव पूरी दुनिया से जुड़ा होता है। एक समय भारत में बीपीओ सेक्टर तेजी से फला-फूला लेकिन फिर विभिन्न वजहों से इसमें शिथिलता आ गई। निर्यात में आ रही कमी ने भी समस्या बढ़ाई है। रोजगार उपलब्ध कराने में का सबसे अधिक योगदान मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का होता है, जो काफी समय से ढीला चल रहा है। बेरोजगारी दूर करने के लिए चीन की तरह हमें भी श्रम प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देना होगा और कुछ ऐसा करना होगा कि इनमें उद्योगपतियों की खास दिलचस्पी पैदा हो। लेकिन यह सब तभी होगा, जब सरकार यह माने कि अभी के भारत में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है।

Archaeologists unearth ancient tomb with mummies

Archaeologists unearth ancient tomb with mummies

Mummies are seen inside a tomb during the presentation of a new discovery at Tuna el-Gebel archaeological site in Minya Governorate, Egypt. FileMummies are seen inside a tomb during the presentation of a new discovery at Tuna el-Gebel archaeological site in Minya Governorate, Egypt. File   | Photo Credit: Reuters

The uncovered artefacts include decorated masks, statuettes, vases, coffin fragments and cartonnages

Archaeologists have unearthed an ancient tomb with mummies believed to date back about 2,000 years in the southern city of Aswan. The Antiquities Ministry said in a statement on Tuesday that the tomb is from the Greco-Roman period that began with Alexander the Great in 332 B.C.

It is located near one of Aswan’s landmarks, the Mausoleum of Aga Khan, who lobbied for Muslim rights in India and who was buried there after his death in 1957. The statement said archaeologists found artefacts, including decorated masks, statuettes, vases, coffin fragments and cartonnages – chunks of linen or papyrus glued together.

Egypt often announces new discoveries, hoping to spur the country’s tourism sector, which have suffered major setbacks during the turmoil, following the 2011 uprising against autocrat Hosni Mubarak.

पाकिस्तान को झटका, आर्थिक मदद में देरी कर सकता है आइएमएफ

Dainik Jagran Hindi News

पाकिस्तान को झटका, आर्थिक मदद में देरी कर सकता है आइएमएफ

Publish Date:Mon, 15 Apr 2019 08:03 PM (IST)
पाकिस्तान को झटका, आर्थिक मदद में देरी कर सकता है आइएमएफ
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) आर्थिक संकट में फंसे पाकिस्तान के लिए आर्थिक मदद में देरी कर सकता है।

इस्लामाबाद, प्रेट्र। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) आर्थिक संकट में फंसे पाकिस्तान के लिए आर्थिक मदद में देरी कर सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि वैश्विक कर्जदाता इस्लामाबाद पर सीपीइसी परियोजना पर पारदर्शी होने के लिए दबाव डाल रहा है और उससे यह लिखित गारंटी चाहता है कि मिलने वाली सहायता का वह चीन का ऋण चुकाने में इस्तेमाल नहीं करेगा। सोमवार को एक मीडिया रिपोर्ट में यह जानकारी सामने आई है।

पाकिस्तान ने खुद को भुगतान संतुलन की गंभीर स्थिति से बचाने के लिए आइएमएफ से आठ अरब डॉलर की सहायता मांगी है। भुगतान संतुलन की गंभीर स्थिति देश की अर्थव्यवस्था को मुश्किल में डाल सकती है। चीन की सहायता से पाकिस्तान को अभी तक चालू वित्त वर्ष के दौरान मित्र देशों से आर्थिक सहायता पैकेज के तहत कुल 9.1 अरब डॉलर मिले हैं।

पाकिस्तान के वित्त मंत्री असद उमर ने इसी महीने कहा था कि आइएमएफ का एक दल विश्व बैंक के साथ ग्रीष्मकालीन बैठक के तुरंत बाद इस्लामाबाद आने वाला है। उन्होंने कहा था कि इसी महीने के अंत तक राहत पैकेज पर हस्ताक्षर हो जाएंगे।

सूत्रों ने बताया, ‘अब आइएमएफ का दल अप्रैल में नही बल्कि मई में यहां आ सकता है।’ वित्त मंत्री एक प्रतिनिधिमंडल के साथ शुक्रवार को न्यूयार्क गए थे। लेकिन उनके साथ गई टीम आगे की बातचीत के लिए वाशिंगटन में रुक गई। इस प्रतिनिधिमंडल में वित्त मंत्रालय और अन्य सरकारी एजेंसियों के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं।

गुरुवार को प्रेस कांफ्रेंस में उमर ने कहा कि दोनों पक्ष आर्थिक मदद पर कमोवेश सहमत हो चुके हैं। एक दो दिनों में हम पूर्ण समझौते तक पहुंचने की उम्मीद करते हैं। पाकिस्तान-आइएमएफ वार्ता से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि इस्लामाबाद को जून से पहले समझौता होने की उम्मीद है। उनका विश्वास है कि आर्थिक मदद से बजट अपेक्षाओं को मदद मिलेगी।

 

Posted By: Arun Kumar Singh

 

IOCL bottling plant given conditional environmental nodT.K. Rohit

IOCL bottling plant given conditional environmental nod

टिकाऊ विकास के लिए जरूरी है निष्पक्ष नजरिया

NBT Blogs

टिकाऊ विकास के लिए जरूरी है निष्पक्ष नजरिया

April 25, 2019, 9:38 AM IST

लेखक: अमर्त्य सेन

एनडीए शासन के पांच वर्षों की बदहाली पर कोई क्या कह सकता है? बीजेपी के नेतृत्व वाले इस गठबंधन का कामकाज किसी आपदा जैसा ही रहा है। लेकिन यह कहना गलत होगा कि इसके पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए बहुत अच्छा काम कर रहा था। निश्चित रूप से कुछ बड़ी उपलब्धियां यूपीए के हिस्से आई थीं। जैसे आर्थिक वृद्धि की असाधारण दरें और सूचना का अधिकार तथा ग्रामीण रोजगार की गारंटी जैसे सामाजिक रूपांतरण वाले बदलाव। लेकिन प्राथमिक स्तर पर लोगों के स्वास्थ्य की देखरेख की व्यवस्था यूपीए सरकार नहीं कर पाई, न ही उस दिशा में कोई बड़ा कदम उठा पाई, जिसे महान आंबेडकर ने ‘जाति का उन्मूलन’ कहा था। एनडीए की विफलता का आकलन करने के लिए हमें समदर्शी होना पड़ेगा।

सांप्रदायिक विभाजन

मुश्किल यह है कि एनडीए ने पिछली कमियों को दुरुस्त करने के लिए कुछ नहीं किया। उल्टे समस्याओं को और पुख्ता किया और उन्हें बहुत बढ़ा दिया। दलितों-आदिवासियों की स्वतंत्रता को और कम करके इसने जाति की खतरनाक गिरफ्त को और बढ़ा दिया। सबके लिए स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लक्ष्य से देश को और दूर ले गया और अपने चुनावी वादे से पलटी मारते हुए बेरोजगारी को असाधारण स्तर पर लेजाकर गरीबों के लिए रोजगार पाना और मुश्किल कर दिया। एनडीए के शासनकाल में भारत बेरोजगारी में कोई आधी सदी के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया। इस तकलीफदेह नाकामी के साथ एक बुराई और जुड़ी है कि एनडीए के नेताओं ने देश को सांप्रदायिक दृष्टि से बहुत ज्यादा विभाजित कर दिया है और अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों की जिंदगी का जोखिम बहुत बढ़ा दिया है।

इसके अलावा भारत के नए शासकों ने अकादमिक संस्थाओं के नौकरशाहीकरण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन और असहमति को राष्ट्रद्रोह बताते हुए लोगों को जेल में डालने में भी खासी प्रगति की है। दरअसल, हिंदुत्व के रुझान वाले इन शासकों ने भारत को ‘गलत दिशा में क्वांटम छलांग’ लगाने के लिए मजबूर किया है (इसी शीर्षक वाली हाल की एक किताब में रोहित आजाद और अन्य युवा शोधार्थियों की एक टीम ने इस बात को बारीकी से रेखांकित किया है।) सुविचारित आर्थिक नीतियों पर चलने के बजाय हिंदुत्ववादी शासक ‘जादू से विकास’ पर भरोसा करके चल रहे हैं। जैसे, उन्होंने स्थापित मुद्रा के एक हिस्से को चलन से बाहर करके और प्रॉमिसरी नोट लाने का वादा पूरा न करके भी धन और खुशहाली लाने की कोशिश की।

इससे कालाधन गायब होने की इनकी भविष्यवाणी सही नहीं साबित हुई, उल्टे छोटे उद्यमियों और कारोबारियों को गहरा धक्का लगा। खेती भी प्रभावित हुई। जादू दिखाने का काम पीसी सरकार पर ही छोड़ दिया जाए तो अच्छा रहेगा। कोई असाधारण तरीका आजमाने के बजाय भारत को उन आर्थिक नीतियों को अपनाने की जरूरत है जो दुनिया भर में कारगर रही हैं। हमें सक्षम और न्यायसंगत सार्वजनिक सेवाओं का विकास करना होगा। निजी पहलकदमियों और चुनिंदा सार्वजनिक निवेश को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इसके साथ ही उत्पादन कार्यों में सहायक वास्तविक विज्ञान, तकनीक और कौशल को बढ़ावा देना होगा (काल्पनिक अतीत से जुड़ी परीकथाओं के गायन से बचना होगा।)

यूरोप और जापान ने उन्नीसवीं शताब्दी में जो करना सीखा और चीन व दक्षिण कोरिया ने बीसवीं में, वह सब आज भारत में भी हमारे लिए उपलब्ध है। अगर हम आधुनिक अर्थशास्त्र के पितामह एडम स्मिथ का अनुसरण करते हुए भारत में प्रोत्साहन का माहौल बनाना और सबको बराबरी के मौके देना चाहते हैं तो हमें सिर्फ अमीरों को हर तरह की सुविधा देने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी और लोगों के लिए व्यापक पैमाने पर अवसर पैदा करने होंगे। स्मिथ ने बाजार अर्थव्यवस्था के बेहतर इस्तेमाल के साथ-साथ सचेत ढंग से सार्वजनिक सेवाओं (जैसे प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य) की व्यवस्था करने की बात कही थी। लोगों के कल्याण और उनकी उत्पादकता में बढ़ोतरी के लिहाज से इन सुविधाओं का बुनियादी महत्व है। बाजार अर्थव्यवस्था का जैसा प्रभावी इस्तेमाल चीन ने कर दिखाया है, उसकी तारीफ जरूर की जानी चाहिए लेकिन ऐसा करते हुए भूलना नहीं चाहिए कि शिक्षित श्रमशक्ति और स्वस्थ आबादी के रूप में चीनी अर्थव्यवस्था को दो ऐसे कारक मिले हुए हैं जो उसे काफी बेहतर स्थिति में ला देते हैं। इनकी बदौलत वह दुनिया की किसी भी चीज का उत्पादन पूरी दक्षता से करने में सक्षम है।

आयुष्मान भारत योजना के जरिए महंगी दवाओं को भी आम लोगों की पहुंच में लाने संबंधी सरकारी दावों पर काफी बातें हो रही हैं। यह योजना खर्चीली इलाज प्रक्रिया को सब्सिडी के जरिए सस्ता बनाती है। लेकिन याद रहे कि ये खर्च मुनाफा कमाने वाली निजी कंपनियों से जुड़े हैं, जो मरीजों को आकर्षित करने के लिए अक्सर वेतनभोगी कर्मचारी रखती हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि आयुष्मान भारत योजना में सबको बेहतर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने
के लिए कुछ नहीं है, जबकि भारत में यही

सबसे ज्यादा उपेक्षित है। इसकी अनदेखी से दूसरे और तीसरे स्तर की चिकित्सा सेवा भी प्रभावित होती है। मुनाफा कमाने वाली निजी कंपनियों को भारी सबसिडी देकर कुछ लोगों की आयु बढ़ाना और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के लिए कुछ न करके ज्यादातर लोगों की आयु को उपेक्षित छोड़ देना एक गलती है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य

फाइल फोटो

अच्छी स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए, यहां तक कि निजी स्वास्थ्य सेवाओं का कुशल इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए भी प्राथमिक सार्वजनिक स्वास्थ्य की मजबूत बुनियाद जरूरी है। अभी यूपीए पर कुछ बातों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया जा सकता है, लेकिन एनडीए ने तो उन बातों की परवाह ही छोड़ दी जिनकी आज भारत को सख्त जरूरत है। न्याय और कौशल, दोनों ही दृष्टियों से टिकाऊ विकास के लिए निष्पक्ष नजरिया बहुत जरूरी है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में ही नहीं, आर्थिक और सामाजिक नीतियों की दृष्टि से भी भारत को इस दिशा में एक बड़े सकारात्मक बदलाव की जरूरत है। इस जरूरत को समझने में देर नहीं होनी चाहिए।

(लेखक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं)

वातावरण और विकास

Navbharat Times Hindi News

वातावरण और विकास

नॉर्वे का तापमान बढ़कर मानक तापमान के करीब हुआ तो उसे इसका फायदा बढ़ी ग्रोथ रेट के रूप में मिला। इसके उलट भारत जैसे गर्म मुल्क का तापमान बढ़ने की कीमत उसे आर्थिक नुकसान के रूप में चुकानी पड़ रही है। बढ़ती ग्लोबल वार्मिग ने जैव विविधता पर गहरी चोट की है।

ग्लोबल वार्मिंग से हो रहा जलवायु परिवर्तन दुनिया के सामाजिक-आर्थिक विकास पर गहरा असर डाल रहा है। बीती आधी सदी में इसके कारण धनी देश और भी धनी तथा गरीब देश और गरीब होते गए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को इसके चलते 31 फीसदी का नुकसान हुआ है। यानी ग्लोबल वार्मिंग का नकारात्मक असर नहीं होता तो हमारी इकोनॉमी अभी की स्थिति से तकरीबन एक तिहाई और ज्यादा मजबूत होती। साफ है कि हमें वातावरण का संतुलन बिगाड़ने की कीमत चुकानी पड़ रही है। इस बदलाव का खाका स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में खींचा है, जो अमेरिका के प्रतिष्ठित रिसर्च जर्नल ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ दि नैशनल अकैडमी ऑफ साइंसेज’ (पीएनएएस) में प्रकाशित हुआ है।

इसके मुताबिक सूडान को 36 फीसदी, नाइजीरिया को 29, इंडोनेशिया को 27 और ब्राजील को 25 पर्सेंट का नुकसान हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1961 से 2010 के बीच विभिन्न देशों के बीच पैदा हुई कुल आर्थिक असमानता के एक चौथाई हिस्से की वजह मानव गतिविधियों से हो रही ग्लोबल वार्मिंग ही है। इस अध्ययन में एक तरफ यह देखा गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण किस देश का तापमान कितना बढ़ा, फिर यह आकलन किया गया कि ऐसा न होता तो आर्थिक उत्पादन कितना होता। इस तरह पिछले 50 वर्षों में 165 देशों के बढ़ते तापमान और जीडीपी के रिश्तों का हिसाब लगाया गया। दिलचस्प बात यह कि ग्लोबल वार्मिंग से जिन ठंडे देशों का तापमान बढ़ा है, उन्हें इसका लाभ भी हुआ है। जैसे नॉर्वे का तापमान बढ़कर मानक तापमान के करीब हुआ तो उसे इसका फायदा बढ़ी ग्रोथ रेट के रूप में मिला। इसके उलट भारत जैसे गर्म मुल्क का तापमान बढ़ने की कीमत उसे आर्थिक नुकसान के रूप में चुकानी पड़ रही है। बढ़ती ग्लोबल वार्मिग ने जैव विविधता पर गहरी चोट की है। करीब दस लाख प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं। साफ हवा, शुद्ध पेयजल, कार्बन डाइऑक्साइड सोखने वाले वनों, परागण में सहायक कीड़ों, प्रोटीन से भरपूर मछलियों और तूफान रोकने वाले मैंग्रोव्स की कमी से उनका जीवन खतरे में पड़ गया है।

यह बात संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ‘यूएन असेसमेंट ऑफ साइंटिफिक लिटरेचर ऑन दि स्टेट ऑफ नेचर’ में कही गई है। 130 देशों के प्रतिनिधि 29 अप्रैल से पेरिस में होने वाले सम्मेलन में इस पर विचार करेंगे। रिपोर्ट तैयार करने वाली समिति के प्रमुख रॉबर्ट वाटसन का कहना है कि भोजन और ऊर्जा का उत्पादन हम जिस तरीके से कर रहे हैं, उससे प्रकृति को भारी नुकसान पहुंच रहा है। जंगलों की कटाई, खेती और पशुपालन ग्रीनहाउस गैसों के एक तिहाई उत्सर्जन के लिए जवाबदेह है, जिससे इको सिस्टम संकट में आ गया है। जाहिर है, पूरी दुनिया साथ आकर ही इसे रोकने के लिए कुछ कर सकती है। आज जब अमेरिका जैसे शीर्ष उत्सर्जक देश ने इस मुद्दे पर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है, तब हालात बेकाबू होने से पहले उसका रवैया बदलने की प्रार्थना ही की जा सकती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

खुफिया सूचना की अनदेखी का ही परिणाम है श्रीलंका में आतंकियों का भयावह हमला

Dainik Jagran Hindi News

खुफिया सूचना की अनदेखी का ही परिणाम है श्रीलंका में आतंकियों का भयावह हमला

Publish Date:Thu, 25 Apr 2019 04:31 AM (IST)
सक्षम और कारगर खुफिया तंत्र के निर्माण के लिए सबसे जरूरी यह है कि इस तंत्र में किसी तरह की राजनीतिक दखलंदाजी न होने दी जाए।

श्रीलंका में हुए भीषण आतंकी हमलों में स्थानीय आतंकियों की लिप्तता के सुबूत सामने आने के साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि उन्हें दुनिया के सबसे बर्बर आतंकी संगठन आइएस की भी मदद मिली। अगर यह साबित हो जाता है कि श्रीलंका को आइएस की साजिश के तहत ही लहूलुहान किया गया तो इसका मतलब होगा कि सीरिया और इराक में इस आतंकी संगठन को खत्म करने के दावे निरर्थक हैैं। श्रीलंका में किए गए आतंकी हमलों में मरने वालों की संख्या 350 से अधिक पहुंच गई हैै।

हाल के समय में इतने अधिक लोग किसी आतंकी हमले का शिकार नहीं बने। यह एक तरह से इस दशक का सबसे बड़ा आतंकी हमला है। श्रीलंका आतंकियों के भयावह हमलों और उनके कारण हुई व्यापक जनहानि से बच सकता था, यदि उसके अधिकारियों ने भारत की ओर से मुहैया कराई गई खुफिया सूचना पर तनिक भी गंभीरता का परिचय दिया होता। यह हैरानी की बात है कि श्रीलंकाई अधिकारियों ने इस सटीक सूचना पर भी ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी कि आतंकी भारतीय उच्चायोग के साथ चर्चों को खास तौर पर निशाना बना सकते हैैं। अब श्रीलंका में इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू होता हुआ दिख रहा है कि आतंकी हमलों संबंधी खुफिया सूचना की अनदेखी कैसे हुई, लेकिन इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। जरूरी यह है कि खुफिया सूचना की अनदेखी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाए। कार्रवाई उन पर भी की जानी चाहिए जिन्होंने आत्मघाती हमलावरों में शामिल उन तत्वों को छोड़ दिया था जो कुछ समय पहले विस्फोटक रखने के आरोप में गिरफ्तार किए गए थे।

यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि श्रीलंका के साथ-साथ शेष दुनिया भी कुछ सबक सीखे। सबसे पहला सबक तो यही है कि खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान के साथ ही यह सुनिश्चित किया जाए कि उनकी अनदेखी न होने पाए। इसके अलावा आइएस जैसे मानवता के दुश्मन बन गए आतंकी संगठनों पर नए सिरे से लगाम लगाने के उपाय किए जाएं। पता नहीं ऐसा हो सकेगा या नहीं, क्योंकि कुछ देश ऐसे हैैं जो आतंकी संगठनों को पालने-पोसने अथवा अतिवादी तत्वों की अनदेखी करने मेंं लगे हुए हैैं। दुर्भाग्य से ऐसे देश दक्षिण एशिया में ही हैैं। ऐसे में भारत को कहीं अधिक सतर्क रहना होगा। इसलिए और भी, क्योंकि श्रीलंका में आत्मघाती हमलों के लिए जिम्मेदार माने जा रहे संगठन के तार तमिलनाडु के एक समूह से जुड़े होने का अंदेशा है।

नि:संदेह बीते कुछ समय में आतंकी संगठनों पर निगाह रखने वाला तंत्र पहले की तुलना में सक्षम हुआ है और इसका एक प्रमाण यह है कि हमारे खुफिया अधिकारियों को इसकी भनक पहले ही लग गई थी कि आतंकी श्रीलंका में कुछ बड़ा करने की फिराक में हैैं। इसके बावजूद इस तथ्य को ओझल नहीं कर सकते कि पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हमले को रोका नहीं जा सका। सक्षम और कारगर खुफिया तंत्र के निर्माण के लिए सबसे जरूरी यह है कि इस तंत्र में किसी तरह की राजनीतिक दखलंदाजी न होने दी जाए और राष्ट्रीय सुरक्षा को दलगत राजनीति का विषय न बनाया जाए।

Posted By: Bhupendra Singh