24-02-2022) समाचारपत्रों-के-संपादक
Date:24-02-22
रूस अभी भी सोवियत संघ वाले मोड में है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )
रूस ने यूक्रेन के दो इलाकों दोनेत्स्क और लुहांस्क को मान्यता प्रदान कर दी है यानी उसने यूक्रेन को तीन हिस्सों में बांट दिया है। इन दोनों हिस्सों को अब वह स्वतंत्र राष्ट्रों की उपाधि दे देगा। इन क्षेत्रों में अराजकता न फैल जाए, इस दृष्टि से उसने वहां सैनिक भी तैनात कर दिए हैं। दूसरे शब्दों में यूक्रेन के खिलाफ उसने सैनिक कार्रवाई करने का रास्ता निकाल लिया है। अगर अमेरिका, नाटो या स्वयं यूक्रेन इन क्षेत्रों में रूसी फौजों को निकाल बाहर करने की कोशिश करेंगे तो यूरोप में तीसरे महायुद्ध की नौबत आ सकती है।
वास्तव में रूस ने यूक्रेन में जो अभी किया है, वह वैसा ही है, जैसा कि उसने 2014-15 में क्रीमिया में किया था। क्रीमिया यूक्रेन का हिस्सा था, लेकिन वहां रूसियों की आबादी और उसके सामरिक महत्व को देखते हुए रूस ने उस पर कब्जा कर लिया। न तो यूक्रेन कुछ कर सका और न ही नाटो राष्ट्र रूस को डरा सके। उसने अब दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र घोषित करके यही किया है। रूस या तो इन इलाकों को अपने में मिला लेगा या उन्हें अपने गठबंधन में बांधे रखेगा। दूसरे शब्दों में ऐसा प्रतीत होता है कि व्लादिमीर पुतिन अब सोवियत नेताओं की तरह ‘वारसा पैक्ट’ को फिर से जीवित करना चाहते हैं। ये अलग बात है कि यूक्रेन और जार्जिया के अलावा रूस के कई प्रांत और पूर्वी यूरोप के लगभग सभी राष्ट्र नाटों के सदस्य बन चुके हैं। शीतयुद्ध के जमाने में रूस का ‘वारसा पैक्ट’ अमेरिका के ‘नाटो’ को लगभग बराबरी की टक्कर दे रहा था लेकिन सोवियत-विघटन के बाद रूस बहुत कमजोर हो गया है। इसके बावजूद आज भी वह एक परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र है। पुतिन की नजर में यूक्रेन व जार्जिया जैसे राष्ट्रों को आज भी अपनी वही हैसियत माननी चाहिए, जो स्तालिन और ब्रेझनेव के जमाने में उनकी थी।
ब्रेझनेव ने 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर हमला बोलते हुए ‘सीमित सम्प्रभुता’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। पुतिन उसी सिद्धांत को यूक्रेन पर लागू करना चाहते हैं। यूक्रेन अगर स्वतंत्र और सम्प्रभु राष्ट्र है तो उसे अपना कोई भी निर्णय करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। वह चाहे तो रूस के अन्य पुराने प्रांतों की तरह नाटो का सदस्य बन जाए या स्वतंत्र रहकर रूस के साथ बंधा रहे। लेकिन यूक्रेन के नेता पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों के साथ न केवल अपने आर्थिक, व्यापारिक और राजनीतिक संबंध घनिष्ठ बना रहे हैं बल्कि वे यूक्रेन को नाटो का सदस्य भी बनवाना चाहते हैं। रूस ने यूक्रेन की यही चोरी पकड़ रखी है। पुतिन का कहना है कि रूस और यूक्रेन तो एक ही हैं। वे सदियों से एक ही होकर रहे हैं। यूक्रेन में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव इतना रहा है कि वहां जन्मे निकिता ख्रुश्चौफ सोवियत रूस के सर्वोच्च नेता बन गए। अब भी रूस के साथ लगे कुछ यूक्रेनी इलाकों में रहनेवाले लोगों में रूसी मूल के लोग बहुसंख्यक हैं।
इन्हीं इलाकों को रूस में मिलाने की खातिर रूस ने लाख-सवा लाख सैनिक रूस-यूक्रेन सीमांत पर डटा रखे हैं। रूस तो अभी भी यही दावा कर रहा है कि वह यूक्रेन पर हमला नहीं करना चाहता है। हालांकि उसने यह दावा भी अभी तक खुलेआम नहीं किया था कि वह दो इलाकों को यूक्रेन से अलग करना चाहता है। इस बारे में रूस की संसद ने पिछले हफ्ते एक प्रस्ताव जरूर पारित किया था। लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों की धमकियों को देखते हुए लग रहा था कि रूस आक्रामक कार्रवाई नहीं करेगा। रूस ने भी बार-बार दावा किया है कि वह बस एक ही बात चाहता है। वो यह कि यूक्रेन नाटो में शामिल न हो। यह आश्वासन अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों ने रूस को दिया भी था। लेकिन रूस को डर है कि उसके पड़ोसी राष्ट्रों में नाटो फौजों को इसीलिए डटाया गया है कि यूक्रेन को आखिरकार नाटो में मिला लिया जाए।
सच्चाई तो यह है कि न तो रूस और न ही नाटो राष्ट्र चाहते हैं कि युद्ध छिड़े। नाटो राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा यह करेंगे कि रूस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा देंगे। रूस दावा करेगा कि अपने आप को आजाद घोषित करने वाले यूक्रेनी इलाकों में वह शांति सेना भेज रहा है ताकि वहां खून की नदियां न बहें। यूक्रेन इसे रूसी हमले की ही संज्ञा देगा। यदि रूसी और नाटो खेमों ने संयम से काम नहीं लिया तो भयंकर युद्ध छिड़ सकता है, जिसकी लपटें दूर-दूर तक फैल सकती हैं। दोनों पक्ष परमाणु शक्ति संपन्न हैं। यदि युद्ध होता है तो वह किसी भी हद तक जा सकता है। वह पिछले दोनों महायुद्धों की तुलना में कहीं विनाशकारी हो सकता है।
संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि ने दोनों खेमों से संयम की अपील की है। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर आजकल यूरोप में ही हैं। भारत के इस वक्त रूस और अमेरिका, दोनों से इतने अच्छे संबंध हैं कि वह किसी एक पक्ष का खुलेआम समर्थन नहीं कर सकता है, जैसा कि शीतयुद्ध के जमाने में इंदिरा गांधी ने 1981 में अफगानिस्तान में, 1968 में चकोस्लोवाकिया में और पं. नेहरू ने 1956 में हंगरी के मामले में सोवियत-समर्थन या चुप्पी का रुख अपनाकर किया था। भारत को अपने हितों का ध्यान रखना है लेकिन उसका निष्क्रिय रहकर कोरे नखदंतहीन बयान जारी करना भी उचित नहीं। दोनों पक्षों से भारत की मित्रता ही वह तत्व है, जो उसे उत्कृष्ट कोटि का मध्यस्थ बना सकती है। भारत के समक्ष न केवल हमारे 20 हजार छात्रों की सुरक्षा का सवाल है, बल्कि तेल की कीमतों पर नजर रखना भी महंगाई के मद्देनजर हमारे लिए जरूरी है।
Date:24-02-22
आखिर कब तक मिलती रहेगी तारीख पर तारीख ?
चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासकार )
इस बात पर सभी सहमत हैं कि भारत को न्यायिक-सुधारों की जरूरत है। इस पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना कि दूसरी चीजों पर दिया जाता है। हमारे पास बुनियादी ढांचे के बड़े प्रोजेक्ट्स हैं, हमने जीएसटी सुधार किए हैं, हमने हर नागरिक को प्रभावित करने वाले आधार-कार्ड बनाए हैं, हमने बहुत सारी शासकीय सेवाओं का डिजिटलीकरण कर दिया है। लेकिन न्यायिक सुधारों के प्रश्न पर आकर हमारी सुई अटक जाती है। आज कितने मुकदमे लम्बित पड़े हैं, उनके डराने वाले आंकड़ों में जाने की जरूरत नहीं है, या ऐसी कहानियों की भी कोई आवश्यकता नहीं जो बताती हैं कि कैसे कुछ लोगों को न्याय के लिए दशकों तक इंतजार करना पड़ा। हम सबको ये सब अच्छी तरह से पता है। एक विकसित देश की पहचान उसके त्वरित और न्यायपूर्ण सिस्टम से होती है। हम उम्मीद करते हैं कि एक दिन हम भी उन्हीं देशों में शुमार हो सकेंगे।
लेकिन न्यायिक-तंत्र को तेजतर्रार बनाना इतना सरल भी नहीं है। इसके लिए बहुआयामी एप्रोच की जरूरत है। मैं अपनी ओर से पांच सुझाव देना चाहूंगा।
पहला, जैसे हमने सड़कों, रेलगाड़ियों और बंदरगाहों के लिए पैसा दिया है, उसी तरह न्यायपालिका के लिए भी बजटीय-आवंटन बढ़ाने की जरूरत है। विदेशी निवेशक भारत को पसंद करते हैं, लेकिन उन्हें अनुबंध सम्बंधी विवाद की स्थिति में पड़ने पर अदालतों की धीमी गति चिंतित करती है। दूसरा, अधिक अदालत भवन बनाना और वर्चुअल कोर्ट की व्यवस्था करना। हमारे पास पर्याप्त अदालतें या कार्यालय नहीं हैं। कोविड ने हमें रिमोट-वर्क सिखा दिया है। अदालतों के लिए भी वैसा करने से उन पर से फिजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर का दबाव घटेगा। निजी डेवलपरों को भी नई अदालतों के निकट व्यावसायिक उपयोग के लिए भूमि देकर अदालत भवन बनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं (केवल बनाने के लिए, चलाने के लिए नहीं)। तीसरा, नौकरियां देना। एक तरफ तो हम कहते हैं कि देश में रोजगार-संकट है, दूसरी तरफ हमारे अदालती तंत्र के पास काम करने वालों की कमी है। हमें ना केवल अधिक जजों की जरूरत है, बल्कि जजों को प्रशासकीय कार्यों से राहत देने के लिए सपोर्ट स्टाफ में भी भर्तियों की आवश्यकता है। इससे समय का उपयोग लम्बित मामलों के निपटारे में हो सकेगा।
चौथा, अदालती तंत्र से पृथक प्रशासकीय सहयोग के लिए एक ऐसी व्यवस्था करना, जिससे मुकदमों के लिए जरूरी पेपरवर्क करने में मदद मिल सके और उनके त्वरित निपटारे के लिए ग्राउंडवर्क किया जा सके। यह उन वीएफएस सेवाओं की तरह होगा, जिनका इस्तेमाल हम दूतावासों को वीजा अप्लाई करते समय करते हैं। वीएफएस पृथक सेवा है, जो हमारे वीजा पर निर्णय नहीं लेती, लेकिन वह हमारे कागजों को व्यवस्थित जरूर कर देती है। अदालतों के लिए भी ऐसी सुविधा की जरूरत है।
सबसे आखिरी सुझाव है कागजी कार्रवाइयों और सुनवाई के तंत्र में बदलाव। दुनियाभर की अदालतें- फिर चाहे वो कितनी ही अच्छी क्यों ना हों- सुनवाई की उस प्रक्रिया का पालन करती हैं, जिनकी ईजाद सैकड़ों साल पहले की गई थी। वे मौजूदा समय के अनुरूप नहीं हैं, जिनमें हर व्यक्ति दूसरे से फोन के जरिए जुड़ चुका है। क्या आज के दौर में किसी को उत्तर देने के लिए आपको समय की जरूरत होती है? आप 24 घंटे में चैट का रिप्लाई तो दे ही देते हैं। क्या यह सुनवाई की तारीखें तय करने और फिर तारीख पर तारीख के खेल में उलझने से बेहतर तरीका नहीं है? जब दुनियाभर की कम्पनियां आज से दो दशक पहले की तुलना में भिन्न तरीके से काम करना सीख चुकी हैं तो अदालतें क्यों नहीं कर सकतीं?
न्यायपालिका हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग है और हमें इस पर गर्व है। यह हमारी और हमारे अधिकारों की रक्षा करती है। लेकिन इसे और प्यार करने और इस पर और ध्यान देने की जरूरत है। न्यायिक सुधारों से न केवल समाज बेहतर बनेगा और लोगों को त्वरित न्याय मिलेगा, बल्कि इससे जीडीपी ग्रोथ में भी खासी मदद मिलेगी।
Date:24-02-22
भारत की समस्या बढ़ाने वाला यूक्रेन संकट
हर्ष वी पंत, ( लेखक नई दिल्ली स्थित आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं )
भारतीय समय के अनुसार सोमवार देर रात्रि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के दो प्रांतों डोनेस्क और लुहांस्क को ‘स्वतंत्र क्षेत्र’ घोषित कर अपने इरादे जाहिर कर दिए। इसके साथ ही उन्होंने इन इलाकों में सैन्य कार्रवाई के प्रस्ताव पर मुहर लगवाकर अपने सैनिक भी रवाना कर दिए। यह ऐसे समय हुआ, जब यूक्रेन से सटे सीमावर्ती इलाकों में पहले से ही रूसी सेनाओं एवं सैन्य साजोसामान का जमावड़ा वैश्विक समुदाय की पेशानी पर बल डाले हुए था। एक ऐसे वक्त जब दुनिया कोरोना से हुई क्षति की भरपाई करने में जुटी है, तब रूसी राष्ट्रपति का यह आक्रामक दांव वैश्विक अस्थिरता एवं अनिश्चितता को बढ़ाने का ही काम करेगा। इससे उत्पन्न होने वाले अनावश्यक एवं एक प्रकार से अंतहीन टकराव की तपिश पूरी दुनिया को झुलसाने का काम करेगी। इससे भारत के लिए भी जटिलताएं और बढ़ जाएंगी।
आज दुनिया यूक्रेन की जमीन पर जिस संकट को पनपते हुए देख रही है, उसके बीज काफी पहले ही पड़ चुके थे। केवल सोमवार को अपने संबोधन में ही नहीं, बल्कि उससे पहले भी रूसी राष्ट्रपति यूक्रेन को लेकर कई बार यह रेखांकित कर चुके थे कि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और वह सदैव रूस का सहोदर रहा है। वास्तव में पुतिन के नेतृत्व में इस विमर्श को स्थापित करने की एक सुनियोजित कवायद हुई। यह कोई छिपी बात नहीं कि पुतिन का यूक्रेन के अलावा पूर्ववर्ती सोवियत देशों को लेकर एक खास आग्रह है और सोवियत संघ के विभाजन की टीस उनके भीतर आज भी दिखती है। यही कारण है कि उन्होंने सोवियत संघ के विखंडन को इतिहास की ‘सबसे बड़ी भू-राजनीतिक त्रासदी’ करार दिया। उनका यह कहना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उसके बाद रूस की आर्थिक हैसियत लगातार घटती गई। उधर अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश शीत युद्ध के उपरांत भी नाटो का दायरा निरंतर बढ़ाते रहे। इसने भी रूस को कुपित किया। ताजा गतिरोध के केंद्र में भी यूक्रेन और नाटो के बीच की कड़ी है। नाटो के विस्तार के प्रतिरोध और वैश्विक स्तर पर अपने खोए रुतबे को हासिल करने के लिए ही पुतिन ने पिछले कुछ समय से यूक्रेन पर अपना शिकंजा कसना शुरू किया था। उन्हें उम्मीद थी कि पश्चिमी देश इससे नरम पड़ेंगे और उनके साथ सौदेबाजी में वह रूस को सम्मानजनक स्थिति में दिखलाने में सफल हो जाएंगे, परंतु पश्चिम ने पुतिन को कोई खास भाव नहीं दिया। ऐसे में उनके पास आक्रामक रुख अख्तियार करने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। सोमवार को उन्होंने बिल्कुल वही किया, जिसका अंदेशा था। दोनों देशों यानी रूस और यूक्रेन के बीच यथास्थिति कायम रखने के लिए जो मिंस्क समझौता किया गया था, उसे पुतिन ने निष्प्रभावी बताकर स्पष्ट कर दिया कि उनके लिए अब कदम पीछे खींचना संभव नहीं। जितना पुतिन का यह दांव अपेक्षित था, उतनी ही पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया भी।
रूस की कार्रवाई पर तल्ख बयानबाजी के बाद अमेरिका, कनाडा, यूरोपीय देशों से लेकर जापान और ताइवान ने रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा की है। हालांकि आर्थिक प्रतिबंधों की अपनी एक सीमा है और वैश्विक आम सहमति के अभाव में ऐसे प्रतिबंधों का कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ता। वैसे भी चीन इस समय रूस के सुर में सुर मिलाए हुए है। वहीं भारत जैसे कुछ देशों ने अभी तक तटस्थ रवैया अपनाया हुआ है। रूस पर जो प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं, उन्हें पुतिन राष्ट्रीय स्तर पर अपने पक्ष में भुनाकर अपना कद और ऊंचा कर सकते हैं। इससे उन्हें और आक्रामकता दिखाने की गुंजाइश मिल जाएगी। इस समय जो परिस्थितियां बन रही हैं, उनसे एक बात साफ है कि रूस के खिलाफ अपना मोर्चा मजबूत बनाने के लिए पश्चिम जहां यूक्रेन का सहारा ले रहा है, वहीं इसके प्रतिरोध में रूस यूक्रेन को ही निशाना बना रहा है। कुल मिलाकर महाशक्तियों के इस शक्ति-परीक्षण में यूक्रेन बीच में पिस रहा है। इसका असर इस पूरे क्षेत्र में देखने को मिलेगा। मान लीजिए कि रूस किसी प्रकार यूक्रेन पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेता है तो इससे क्षेत्र के अन्य देशों के भीतर भी यह आशंका घर कर जाएगी कि देर-सबेर रूस उनके साथ भी ऐसा ही व्यवहार कर सकता है। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं रहा कि इस समूचे क्षेत्र में रूस अपनी निर्विवाद बादशाहत चाहता है। यह भी तय है कि इस क्षेत्र से बाहर भी वैश्विक समीकरण गड़बड़ाएंगे।
जिस दौर में पूरी दुनिया को चीन को घेर कर उससे जवाब तलब करना चाहिए, तब दुनिया का ध्यान उससे हटकर जंग के इस अखाड़े पर केंद्रित हो रहा है। चीन कोरोना के मामले में अपनी जवाबदेही से बचकर ताइवान पर अपनी नजर टेढ़ी कर सकता है। उसे दो बातों से बल मिलेगा। एक इससे कि यूक्रेन की अंतरराष्ट्रीय मान्यता ताइवान से कहीं ज्यादा है। यदि इसके बाद भी रूस वहां काबिज हो जाता है तो ताइवान को लेकर चीन अपना दावा और मजबूत करने की कोशिश करेगा। दूसरे, रूस द्वारा अंतरराष्ट्रीय कानूनों को दरकिनार करने से चीन का भी हौसला बढ़ेगा। ध्यान रहे कि चीन पहले से ही ऐसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों को रद्दी की टोकरी में डालता आया है।
यदि यूक्रेन को लेकर टकराव बढ़ता गया तो भारत के लिए समस्याएं बढ़ जाएंगी। भारत के समक्ष इस समय चीन की चुनौती सबसे बड़ी है। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए हमें पश्चिमी देशों और रूस, दोनों की बड़ी आवश्यकता है। चीन के साथ किसी संभावित सैन्य टकराव में हम रूस की अनदेखी कैसे कर सकते हैं, जो हमारी रक्षा आवश्यकताओं की 60 प्रतिशत तक की आपूर्ति करता है। चीन से टकराव की स्थिति में हमें सहयोगियों के रूप में पश्चिम के साथियों की भी उतनी ही आवश्यकता होगी। अभी तक तो इस टकराव में भारत ने सधा हुआ रुख अपनाया है, किंतु संकट बढऩे की स्थिति में यदि हमें दोनों पक्षों में से किसी एक का विकल्प चुनना पड़ा तो मुश्किल हो जाएगी। वैसे भी रूस इस समय चीन के पाले में खड़ा है और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान रूस के दौरे पर हैं। यदि हमें पश्चिम के साथ-साथ रूस जैसे सदाबहार दोस्त को साधे रखना है तो यही कामना करनी होगी कि यूक्रेन में युद्ध जैसी कोई नौबत न आए। हालांकि नीतियां उम्मीद के भरोसे नहीं बनाई जा सकतीं।
Date:24-02-22
यूक्रेन मामला : सीमित विकल्प
संपादकीय
रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने मंगलवार को एक बड़ा कदम उठाते हुए पूर्वी यूक्रेन के दो अलग हुए हिस्सों को मान्यता दे दी और वहां बतौर ‘शांतिरक्षक’ रूसी सेनाएं भेजने की बात कही। भारत की दृष्टि से यह प्रकरण एकदम गलत समय पर हुआ। इसका सीधा असर तेल कीमतों पर पड़ेगा और उनमें उछाल आएगी। तेल उत्पादक देशों के समूह ओपेक ने हाल ही में उत्पादन बढ़ाने की अनिच्छा दिखाई है, यह बात भी कीमतों को प्रभावित करेगी। इससे भारत में मुद्रास्फीति का दबाव और बढ़ेगा और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा भारत में मुद्रास्फीति को लेकर प्रस्तुत अनुमानों के लिए जोखिम उत्पन्न होगा।
यूरोप के पूर्वी इलाके में तनाव बढऩे की घटना ने सरकारी तेल कंपनियों की उन योजनाओं के लिए भी मुश्किल बढ़ा दी है जो संभवत: विधानसभा चुनाव के बाद तेल की खुदरा कीमतों में इजाफा कर सकती हैं। पेट्रोलियम उत्पादों के खुदरा मूल्य में तेज इजाफे की आशंका को नकारा नहीं जा सकता है। रूस भारत का बड़ा कारोबारी साझेदार नहीं है और बीते दशक में दोनों देशों का आपसी कारोबार 8 अरब डॉलर से 11 अरब डॉलर के बीच रहा है। परंतु आर्थिक रिश्तों की आर्थिक प्रकृति देश को कई तरह से प्रभावित कर सकती है। उदाहरण के लिए देश के रक्षा बलों का 60 फीसदी से अधिक हिस्सा रूसी हथियारों से लैस है और भारत ने हाल ही में रूस से एस-400 मिसाइल बचाव प्रणाली खरीदी है। ऐसे में भारत इनके कलपुर्जों और तकनीकी हस्तांतरण के लिए रूस पर निर्भर है और यूक्रेन में युद्ध जैसे हालात इसे बाधित कर सकते हैं।
उत्तरी और पूर्वोत्तर के मोर्चे पर चीन की बढ़ती आक्रामकता के मद्देनजर भारत के लिए यह घटनाक्रम अच्छा नहीं कहा जा सकता है। भारत की जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रतिबद्धताएं भी दबाव में आ सकती हैं। क्योंकि गैस का इस्तेमाल बढ़ाने की योजना कीमतों में इजाफे की वजह से मुश्किल में आ सकती है। जैसा कि शेयर बाजार ने दिखाया भी है, भूराजनीतिक घटनाक्रम कारोबारियों के मुनाफे को भी प्रभावित करेगा।
कीमतों में इजाफा होने पर देश की सबसे बड़ी तेल निर्यातक कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज की रिफाइनरी के मार्जिन में सुधार हो सकता है। परंतु अगर अमेरिका की ओर से प्रतिबंध बढ़ाए जाते हैं तो चाय उद्योग के लिए भारी मुश्किल पैदा हो सकती है। भारत के चाय निर्यात का 18 फीसदी हिस्सा रूस को जाता है। अन्य बड़े खरीदारों में ईरान को बिक्री भी कुछ वर्षों से प्रतिबंध के कारण बाधित है। रोजगार तैयार करने वाला देश का चाय उद्योग पहले ही कम उत्पादकता और बढ़ती लागत से जूझ रहा है और ऐसे में नया संकट उसे और मुश्किल में डाल सकता है। व्यापक पैमाने पर देखें तो यदि युद्ध हुआ तो यूरोप और रूस को निर्यात करने वाले अन्य क्षेत्र मसलन इंजीनियरिंग और औषधि क्षेत्र भी दबाव में आ जाएंगे। कूटनीतिक मोर्चे पर भारत ने निरंतर प्रतिबद्धता जताई है। उसने नॉर्मेंडी वार्ता तथा मिंस्क समझौते का समर्थन किया है जो आजादी और अधिमिलन के बीच का रास्ता सुझाता है। परंतु रूस और चीन की करीबी भारत की स्थिति जटिल बनाती है। इतना ही नहीं इस संकट के कारण ऐसे समय में अमेरिका का ध्यान हिंद-प्रशांत क्षेत्र से हट सकता है जब शायद भारत को चीन की विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षाओं से बचने के लिए तत्काल गठजोड़ की आवश्यकता हो। जर्मनी ने नॉर्ड 2 गैस परियोजना को रद्द करने का निर्णय किया है जो पुतिन की यूरोप पर दबाव बनाने की रणनीति में अहम है। जर्मनी के कदम को रूस के विरुद्ध प्रतिक्रिया माना जा रहा है। यह स्पष्ट नहीं है कि पुतिन अमेरिकी प्रशासन की इस बात पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं कि अगर तनाव बढ़ा तो और प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। कुल मिलाकर भारत असहज स्थिति में है और वह बस प्रतीक्षा कर सकता है।
Date:24-02-22
तेल की धार
संपादकीय
वैश्विक बाजार में कच्चे तेल के लगातार बढ़ते दाम नए संकट का संकेत दे रहे हैं। सबसे बड़ा संकट तो यही कि कच्चा तेल महंगा होने से घरेलू बाजार में भी पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ेंगे। इससे महंगाई और बढ़ेगी और इसकी सीधी मार आम आदमी पर ही पड़ेगी। यों कच्चे तेल में तेजी पिछले कई महीनों से बनी हुई है, पर अब रूस-यूक्रेन विवाद ने मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। इस वक्त कच्चा तेल अट्ठानबे डालर प्रति बैरल तक आ गया है। यह पिछले आठ साल में सबसे ज्यादा है। इस बात की भी आशंका है कि अगले कुछ महीनों में यह एक सौ बीस डालर तक भी जा सकता है। ऐसे में अभी यह पाना कठिन है कि आगे क्या होगा। और फिर सवाल कीमत तक ही सीमित नहीं है, कच्चे तेल की आपूर्ति की समस्या गहराने का भी डर बना हुआ है। ऐसे में घरेलू तेल कंपनियां क्या कदम उठाती हैं, यह देखने की बात है। पर जैसे अनिश्चितता भरे हालात बन गए हैं, उससे सरकार और तेल कंपनियों के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं।
गौरतलब है कि तीन-चार महीने पहले तक कच्चा तेल अस्सी-पिच्यासी डालर प्रति बैरल के बीच बना हुआ था। हालांकि तब भी यह कम नहीं था। दाम तो काफी समय से बढ़ ही रहे थे। लेकिन भारत में तेल कंपनियों ने पिछले साल दो नवंबर के बाद से पेट्रोल और डीजल के दाम अभी तक नहीं बढ़ाए हैं। जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल बयासी डालर से बढ़ कर सौ डालर प्रति बैरल तक पहुंच गया है। हालांकि दाम नहीं बढ़ाने के पीछे तेल कंपनियों का मकसद लोगों को राहत देना नहीं रहा होगा, बल्कि विधानसभा चुनावों के मद्देनजर रणनीति के तहत ही ऐसा किया होगा। वरना पहले तो तेल कंपनियां लगातार दाम बढ़ाए ही जा रही थीं। पिछले साल कई महीनों तक पेट्रोल और डीजल सौ रुपए लीटर से ऊपर ही बिके। इसलिए अब तेल कंपनियों के सामने मुश्किल यह होगी कि वे घरेलू बाजार में दाम और आपूर्ति के संकट से कैसे निपटें। सरकार के सामने संकट महंगाई थामने का होगा। कच्चे तेल का असर खुदरा महंगाई पर तेजी से पड़ता है। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते ही आम आदमी के रोजमर्रा के इस्तेमाल वाली चीजें तुरंत महंगी हो जाती हैं। भारत में लोग लंबे समय से इसे भुगत ही रहे हैं।
आने वाले संकट से सरकार अनजान नहीं है। इसीलिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कच्चे तेल के बढ़ते दाम को बड़ी चुनौती बताया है। कच्चा तेल महंगा होने से सरकार का आयात बिल बढ़ जाता है। इससे विदेशी मुद्रा भंडार पर असर पड़ता है। हालांकि जैसा सरकार का दावा है, भारत का विदेशी मुद्रा भंडार मजबूत स्थिति में है। पिछले दो सालों में सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर कर लगा कर अपना खजाना भरा ही है। लेकिन तेल कंपनियों ने अगर फिर से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने शुरू कर दिए, जिसकी प्रबल संभावना है, तो महंगाई थामना सरकार के बूते के बाहर हो जाएगा। खुदरा महंगाई वैसे ही रिजर्व बैंक के निर्धारित दो से छह फीसद के दायरे के बाहर बनी हुई है। अगर रूस-यूक्रेन में जंग छिड़ गई तो आपूर्ति गड़बड़ा सकती है। फिर तेल उत्पादक देशों का संगठन भी उत्पादन नहीं बढ़ा रहा है। भारत साठ फीसद से ज्यादा तेल इराक और सऊदी अरब जैसे देशों से खरीदता है। ऐसे में घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों के दामों को तार्किक स्तर पर रखते हुए लोगों को महंगाई की मार से कैसे बचाया जाए, सरकार को यह सोचना होगा।
Date:24-02-22
उम्मीदें जगाते नए उद्योग
संजय वर्मा
बेरोजगारी से जूझते देश में ऐसी हर वह खबर हमें राहत देती प्रतीत होती है, जिससे नौकरियों के पैदा होने और अर्थव्यवस्था के रफ्तार पकड़ने का भरोसा मिलता हो। हाल में जब केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय संसद को बता रहे थे कि वर्ष 2020 में देश में कुल तीन हजार पांच सौ अड़तालीस बेरोजगारों ने आत्महत्या की, तो सवाल उठ रहा था कि आखिर पहेली बन गई बेरोजगारी के इस किस्से से हमें छुटकारा मिलेगा भी या नहीं। इन सवालों के जवाब निश्चय ही नौकरियां सृजित करने के साथ-साथ देश में यह जज्बा जगाने में ही निहित हैं कि नौकरी मांगने से बेहतर है कि नौकरी देने वाला बना जाए। हालांकि यह राह आसान नहीं है। इसके लिए युवाओं के भीतर अपना कोई कामधंधा शुरू करने का जोखिम लेने का उत्साह पैदा करने की जरूरत है। राह टेढ़ी जरूर है, पर नाममुकिन नहीं। इसकी एक झलक हाल में तब मिली जब आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया कि इस साल की शुरुआत तक देश में इकसठ हजार चार सौ से अधिक नई कंपनियों को मान्यता दी जा चुकी थी।
इस सिलसिले का आरंभ वर्ष 2016 से हुआ था, जब भारत में ‘स्टार्टअप इंडिया’ अभियान को हरी झंडी दी गई थी। इस योजना का मकसद देश में नवाचारी उद्योगों और उद्यमशीलता को बढ़ावा देना था। हालांकि इस बीच कोरोना महामारी से पैदा हालात ने देश के आर्थिक माहौल पर काफी विपरीत असर डाला, लेकिन इंटरनेट की बदौलत देश में नई कंपनियों के कामकाज में ज्यादा अड़चन नहीं आई। इसी का नतीजा है कि जहां वर्ष 2016-17 में सरकार ने सिर्फ सात सौ तिहत्तर नवाचारी कंपनियों को मंजूर किया था, वहीं वर्ष 2021 में चौदह हजार नए उद्योगों को मंजूरी दी गई। इसमें भी एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि देश में ऐसी नई कंपनियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है, जिनका बाजार मूल्यांकन एक अरब डालर (लगभग 7470 करोड़ रुपए) के बराबर या इससे ज्यादा है। ऐसी कंपनियों को यूनिकार्न कहा जाता है। वर्ष 2021 में ऐसे यूनिकार्न की संख्या चवालीस थी, जो अब बढ़ कर तिरासी हो चुकी है। यह भी कहा जा रहा है कि ये सिलसिला अभी रुकने वाला नहीं है। इस बारे में पीडब्ल्यूसी इंडिया ने एक आकलन किया है। इसके मुताबिक वर्ष 2022 में देश में करीब पचास नवाचारी कंपनियां और यूनिकार्न की श्रेणी हासिल कर सकती हैं। इस तरह साल के अंत तक एक अरब डालर से अधिक मूल्यांकन वाले नवाचारी कारोबारों की कुल संख्या एक सौ से ऊपर निकल सकती है।
ऐसी खबरों से उत्साह जगना स्वाभाविक है। इसका एक असर यह है कि सरकार के अलावा कई बड़े उद्योगपतियों ने इन कंपनियों में भारी निवेश करना शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए रिलायंस ने वर्ष 2021 में ऐसी कंपनियों में सात हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की पूंजी लगाई। टाटा और वेदांता जैसे समूह भी इस कतार में हैं। खुद सरकार भी कई नवाचारी कंपनियों में पैसा लगा रही है।
अंदाजा है कि सरकार की ओर से ऐसा निवेश एक हजार करोड़ के करीब हो चुका है। इस तरह सरकारी और देसी-विदेशी निवेशकों की ओर से नए कारोबारों में बीते एक साल में पैंतीस अरब डालर से ज्यादा की पूंजी लग चुकी है। हालांकि इन सारे आंकड़ों में यह तथ्य भी नजर आता है कि ज्यादातर नई कंपनियां देश के बड़े शहरों में शुरुआत कर रही हैं क्योंकि वहां का बुनियादी ढांचा उनके लिए मुफीद ठहरता है। पर आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि अब नवाचारी कारोबारों का अभियान महानगरों से निकल कर छोटे शहरों की तरफ रुख कर रहा है। पिछले कुछ समय में देश के पांच सौ पचपन जिलों में कोई न कोई नई कंपनी शुरू की गई। मोटे तौर पर देश के पचहत्तर फीसद जिलों में नवाचारी उद्योग योजना की पहुंच हो चुकी है। इसके आधार पर भारत के बारे में दावा है कि अब यह दुनिया का सबसे युवा ‘स्टार्टअप देश’ बन चुका है, जहां करीब पचहत्तर फीसद नई कंपनियों के संचालक पैंतीस साल से कम उम्र के युवा हैं।
हालांकि नए उद्योगों की यह राह आसान नहीं रही है। इस योजना की शुरुआत को एक बड़ा झटका कोरोना महामारी से लग चुका है। वर्ष 2020 में फिक्की और इंडियन एंजेल नेटवर्क (आइएएन) ने अपने राष्ट्रव्यापी सर्वे ‘भारतीय स्टार्टअप पर कोविड-19 का असर’ में मिले आंकड़ों का आकलन किया तो पता चला कि देश के करीब सत्तर फीसद नवाचारी कारोबार खराब हालत में हैं, जबकि तैंतीस फीसद कंपनियों ने नए निवेश के अपने फैसलों पर रोक लगा दी थी। इसके अलावा दस फीसद नवाचारी कंपनियों ने कहा था कि जिन निवेशकों से उन्हें पूंजी मिल रही थी, वह बंद हो गई। सर्वेक्षण से यह भी साफ हुआ था कि सिर्फ बाईस फीसद कंपनियां ही ऐसी थीं, जिनके पास अगले छह महीने का खर्च चलाने के लिए नकदी बची थी। हालांकि वजूद बनाए रखने के मकसद से तियालीस फीसद नवाचारी कारोबारों ने वेतन कटौती शुरू कर दी थी। इसी तरह तीस फीसद नई कंपनियों ने कहा कि अगर पूर्णबंदी जैसी स्थितियां बनी रहीं तो कर्मचारियों की छंटनी के अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचेगा।
यूं तो सरकार किसी व्यापारी की तरह कोई व्यवसाय नहीं चला सकती, लेकिन वह यह तो जरूर कर सकती है कि नए कारोबारों के लिए एक स्वस्थ माहौल तैयार करे। अभी तक सरकार ने जो कुछ किया है, अब उससे दो कदम आगे बढ़ने की जरूरत है। हमारी सरकार को इस संबंध में कुछ उदाहरणों से सबक लेना होगा, जैसे कि फ्रांस से। फ्रांस ने चार अरब यूरो का प्रबंध करके नई कंपनियों को पूंजी की दिक्कतों से बचाने का इंतजाम कर दिया है। उधर, जर्मनी ने नए उद्योगों के लिए खास मदद का कार्यक्रम तैयार किया है, तो ब्रिटेन ने आर्थिक समस्याओं का सामना कर रही कंपनियों के लिए कोष और कई मददगार उपायों की घोषणा की है। इसी तरह आस्ट्रेलिया ने भारी-भरकम पचास करोड़ डालर का कोष तैयार किया है, जिसमें से मुश्किल में फंसे उद्योगों को दस हजार डालर की रकम तुरंत ही कर्ज और सहायता के रूप में दी जा सकती है। न्यूजीलैंड की तो इसके लिए तारीफ हो रही है कि विश्व बैंक की रैंकिंग के मुताबिक वह लगातार छठवें वर्ष ऐसा सर्वश्रेष्ठ मुल्क साबित हुआ है जहां कोई व्यवसाय शुरू करना और चलाना सबसे आसान है। इन उदाहरणों का सार यह है कि भारत को भी अपनी कंपनियों के प्रोत्साहन के वास्ते ऐसा माहौल तैयार करना चाहिए जिससे कि उन्हें विदेशों से निवेश आसानी से मिल सके और उनके संचालन में पूंजी या नीति संबंधी कोई समस्या बाधा बन कर सामने न आए।
ध्यान रखना होगा कि विश्व बैंक की ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ संबंधी रैंकिंग में भारत का स्थान फिलहाल तिरसठवां है। इसमें सुधार की फौरन जरूरत है। इसके लिए खासतौर पर नई कंपनियों के संचालन में नियमन (रेग्युलेटरी) संबंधी अड़चनों को दूर करना प्राथमिकता में होना चाहिए। साथ में, पेटेंट के रास्ते में आने वाली मुश्किलों से निजात दिलाने के प्रयास होने चाहिए। यहां उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020-21 में भारत में अट्ठावन हजार पांच सौ दो पेटेंटों की अर्जी लगाई गई थी, जिनमें से सिर्फ अट्ठाईस हजार तीन सौ इनक्यानवे को मंजूरी दी गई। जबकि पड़ोसी देश चीन में इसी अवधि में सात लाख पेटेंट मंजूर किए गए। यह फर्क स्टार्टअप कंपनियों की तरक्की के हालात साफ कर देता है।