(31-12-2021) समाचारपत्रों-के-संपादक
Date:31-12-21
Killing the licence
The Government must give a more transparent account of its actions against NGOs
Editorial
If the past few years of enhanced measures against non-governmental organisations (NGOs) operating in India had not put enough of a squeeze on them, then the Ministry of Home Affairs’s long-drawn-out process of scrutinising their foreign-funding licences by year-end is sure to do so. Close on the heels of the news that the Missionaries of Charity group had been denied a renewal of its licence under the Foreign Contribution (Regulation) Act, 2010 (amended in 2020), comes the revelation that more than four-fifths of the applications of the 22,000-plus NGOs that have sought renewal have yet to be scrutinised. Unless the Government extends the deadline by midnight, all of them stand to lose their ability to access international funding in the new year. As experts have explained, the NGOs have to prove not only that the source of funding and their usage of the funds is appropriate but also establish that their work does not qualify as harmful to “public interest” or “national security” — ambiguous terms that are left to MHA officials to define. So, as many as 2,000 NGOs under scrutiny may be denied a renewal of their FCRA licence as the Missionaries of Charity and its roughly 200 homes around the country have been in this round.
Contrary to the Government’s defence that it is only following accounting and audit procedures, it seems clear that organisations that have particularly faced the Modi government’s ire are those that work in specific “sensitive areas”: pollution and climate change issues, human rights, child labour and human slavery, health and religious NGOs, particularly Christian and Islamic charities. Prominent names among nearly 20,000 NGOs to have lost their foreign-funding licences since 2014 include Amnesty International, Greenpeace India, People’s Watch, European Climate Foundation, Compassion International and the Gates Foundation-backed Public Health Foundation of India. If the Government has ample evidence to prove that Indians are better off without the work of these internationally renowned organisations, then it has yet to show it. It is time the Government gives a more transparent account of its actions against NGOs, which at present appear to mirror those in China and Russia which have used their NGO laws to shut down dissent and criticism. The actions in India over “foreign hand” concerns seem more hypocritical given the relative ease with which political parties are able to access foreign funds for their campaigns through electoral bonds, under the same FCRA that seeks to restrict funds to NGOs. At a time when India is facing the crippling effects of the COVID-19 pandemic and a long-term economic crisis, the Government’s moves that have resulted in an estimated 30% drop in international non-profit contributions, only hurt the poorest and most vulnerable recipients of philanthropic efforts, particularly those by NGOs working in areas where government aid fails to reach.
Date:31-12-21
विकास का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच रहा है
संपादकीय
कोई कितना गरीब है यह इस बात से तय होता है कि तुलना किससे की जा रही है। व्यक्ति, समूह, समाज, देश और महाद्वीप गरीबी के इसी पैमाने पर देखे जाते हैं। वर्ल्ड इनइक्वेलिटी डेटाबेस के अनुसार आज भारत में नीचे की आधी आबादी का गरीबी का स्तर वही है जो सन 1932 में यानी महामंदी के तत्काल बाद अमरीका के 50% नीचे के वर्ग में था। लब्बोलुआब ये कि हम गरीबी में भी अमेरिका से 90 साल पीछे हैं। आजादी मिली तो संविधान के जरिये ‘हम भारत के लोग अपने को आर्थिक न्याय देने को प्रतिबद्ध हुए’, राज्य की समाजवादी नीति बनी। सन 1970 में ‘गरीबी हटाने का नारा दिया’ और चार साल बाद आपातकाल लगाने का कारण भी गरीबों का विकास बताते हुए 42वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ शब्द जोड़ा गया। हर चुनाव मंच से राजनीतिक वर्ग ने बताया कि उसका लक्ष्य गरीबों का उत्थान है। सन 2014 में एक बार फिर ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा आया। लेकिन आजादी के पहले 30 वर्षों में आधी आबादी की वास्तविक सालाना आय मात्र 2.2% रही। चौंकाने वाली बात यह कि अगले 45 साल भी यही दर बनी रही। नोबेल पुरष्कार विजेता अभिजीत सेन के मुताबिक भारत दुनिया के सबसे अधिक आर्थिक असमानता वाले देशों में अग्रणी है। इसे एक और तरह से समझें। मानव विकास सूचकांक जब 31 साल पहले शुरू हुआ तो भारत 135 वें स्थान पर था। आज भी कमोबेश वहीं का वहीं है जबकि जीडीपी आयतन में देश दो दर्जन खाने ऊपर आकर आज छठवें स्थान पर है। मतलब विकास का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच रहा है।
Date:31-12-21
आप सबको नया दशक मुबारक हो!
चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासकार )
सभी पाठकों को नया दशक मुबारक हो! आइए वायरस और उसके वैरिएंट से जुड़ी 2020 और 2021 की बुरी यादें मिटा दें और एक-दूसरे को 2022 की बधाई दें!
कोई भी नया साल हो, अपने साथ दो चीज़ें लेकर आता है- एक रात पहले की पार्टी से हुआ हैंगओवर और दूसरा डरावना ‘आर’ शब्द- रिजॉल्यूशन(संकल्प)। ओमिक्रॉन के प्रतिबंधों ने पार्टी रोक दी और हैंगओवर से बचा लिया। हालांकि हम अभी भी बाद वाले यानी रिजॉल्यूशन में अटके हैं!
एक अच्छे और जिम्मेदार इंसान होने के नाते हमें कुछ चीज़ें करने के लिए उन पर डटे रहना चाहिए। पर ना जाने क्यों 1 जनवरी ही है, जब हम सोचते हैं कि खुद को चमत्कारिक रूप से बदल देंगे, कोई भी तारीख जैसे 19 सितंबर या 22 अप्रैल के लिए ऐसा नहीं कहते। दुखद है कि हम नए साल के संकल्पों से अच्छी तरह नहीं जुड़ते। स्टडी का डाटा बताता है कि अधिकांश संकल्प जनवरी में ही दम तोड़ देते हैं। लोकप्रिय फिटनेस एप स्ट्रावा ने उसके लाखों उपयोगकर्ताओं की शारीरिक गतिविधियों के आधार पर आकलन किया। उन्होंने यहां तक कि तारीख भी बता दी कि जब ज्यादातर लोग अपने संकल्प त्याग देते हैं- 19 जनवरी, शर्म से इसे ‘क्विटर्स डे’ नाम से जाना जाता है।
संकल्प असफल क्यों होते हैं? क्योंकि यह इच्छाशक्ति और आत्मनियंत्रण पर निर्भर करते हैं, दोनों सीमित संसाधन हैं। अपने जीवन को हर समय अपनी इच्छा शक्ति से चलाने की कोशिश में हम थक जाते हैं। असली बदलावों के लिए धारणाओं और मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। ये हमें व्यवहार और आदतों में बदलाव की ओर ले जाएगा, जिससे अंतत: नए परिणाम मिलेंगे। ये कहना कि ‘कल से मीठा नहीं और कसरत शुरू! ’ काम नहीं करेगा। अपनी धारणाएं बदलना कारगर होगा। आपके लिए क्या ज्यादा जरूरी है? मिठाई का स्वाद या आप आइने में कैसा दिखते हैं ये? चिप्स खाते हुए ओटीटी पर शो देखना या अपनी हेल्थ? जिस दिन आपका माइंडसेट बदल जाएगा, तब आप खुद मिठाई रख देंगे, रिमोट दूर फेंककर लंबी सैर पर निकल जाएंगे। अगर नहीं, तो 19 जनवरी भी जल्दी ही आ जाएगी।
इसलिए, संकल्प जरूर लें, पर उसके साथ बदलावों की दिशा में एक तरोताज़ा मानसिकता बनाएं। भारत को क्या करने का संकल्प लेना चाहिए? हमें किन नए माइंडसेट की जरूरत है, व्यक्तिगत तौर पर और देश के तौर पर? यहां छह सुझाव हैं- 2022 में जिनकी हर भारतीय को जरूरत है।
1. कोशिश करें कि बस मोटापा न घेर पाए
महामारी ने हमें अच्छी सेहत की महत्ता सिखा दी। आपकी अपनी इम्यूनिटी मायने रखती है, शायद टीके और बूस्टर डोज़ से भी कहीं ज्यादा। हम भारतीयों ने बहुत लंबे समय से अपने खाने में स्वाद और अनहेल्दी को जोड़ दिया है। समोसा और गुलाबजामुन प्रेम नहीं हैं, वे अनरिफाइंड कार्ब्स, शुगर और फैट हैं। बारिश के मौसम का मतलब जरूरी नहीं कि हम मीठी चाय और पकौड़े खाएं। बाहर बारिश का मतलब है कि आज घर पर कसरत करने का दूसरा रास्ता निकालें। कुछ भी मत खाएं, विशेषतौर पर महीनों रखा रहने वाला पैकेट का खाना। ताज़ा खाएं। दौड़ें, वॉक करें, वजन उठाएं और सक्रिय बने रहें। मोटे न हों (माफ करें, ये कहने का और कोई तरीका नहीं), क्योंकि यही डायबिटीज़ और मौतों का अकेला सबसे बड़ा कारण है।
2. काम में रुचि नहीं तो एक्जिट प्लान बनाएं
हम अपना आधे से ज्यादा समय काम करते हुए बिताते हैं। अगर उसे नापसंद करेंगे (ज्यादातर लोग करते हैं) तो ये निश्चित रूप से आपकी शारीरिक-मानसिक सेहत पर असर डालेगा। किसी और की जिंदगी जीने के लिए और जो नहीं करना चाहते, वह करने के लिए जीवन बहुत छोटा है। अगर अपने काम से प्यार नहीं करते, तो 2022 में इससे निकलने की कोई योजना बनाएं
3. निवेश के नए तरीकों से दोस्ती करें
दिखावा करने के लिए मत जिएं। उपभोग करना कूल नहीं है, पैसा होना और आर्थिक स्थिरता के साथ उन्मुक्त जीना कूल है। भारतीय व्यवस्थित तरीके से निवेश नहीं करते। हम बहुत कम रिटर्न के बाद भी बैंक एफडी से चिपके रहते हैं। बाजार, म्यूचुअल फंड्स, शेयर्स के बारे में सीखें।
4. वक्त है कि खुद के लिए जिया जाए
भारतीय संस्कृति में परिवार व समाज को महत्व दिया जाता है। हमें एक-दूसरे के लिए जीने में आनंद आता है। हालांकि ये अच्छा है, पर ये हमारे जीवन को दूसरों को खुश करने या दूसरों से तवज्जो हासिल करने की ओर ले जा सकता है। याद रखें, आप पहले आते हैं। दूसरों से पहले अपना ख्याल करें। आपकी जिंदगी को खुशहाल बनाने के लिए दूसरा कोई नहीं आने वाला। अपनी जिंदगी पर ध्यान केंद्रित करके सिर्फ आप ही इसे खुशनुमा बना सकते हैं। दोस्त, रिश्तेदार, पत्नी, बाकी जरूरी लोग, भाई-बहन, बच्चे- सब जरूरी हैं, पर आपके लिए आपसे ज्यादा महत्वपूर्ण कोई नहीं है।
5. डोपामाइन केमिकल की गिरफ्त में न आएं
चॉकलेट, सोशल मीडिया, सेक्स, वीडियो गेम, एल्कोहल, ड्रग्स, ट्विटर पर एक-सी विचारधारा वालों को लगातार सुनने, शो देखने, सोशल मीडिया फीड देखते रहने में क्या कॉमन है? इन सबके दौरान डोपामाइन निकलता है, दिमाग को प्रेरित करने वाला यह केमिकल उन्हीं चीजों की और आकांक्षा करता है। प्रेरित बने रहने के लिए डोपामाइन चाहिए। हालांकि बिना प्रयास, प्रोडक्टिव काम के डोपमाइन नुकसानदेह है। अपने डोपामाइन मैनेज करें- सिर्फ उपयोगी गतिविधियों से इसे लें, जो कि आत्म-विकास की ओर ले जाए।
6. देश व समाज के लिए इतना तो करें
भारत विविधता भरा देश है। हालांकि जो विविध होता है, वह नाजुक भी होता है। इस विविधता को कायम रखने के लिए हमें कड़ी मेहनत करनी होगी, क्योंकि एक बार अगर यह खो दी, तो हम शांति, भिवष्य की समृद्धि और बतौर राष्ट्र हमारे सारे आनंद खो देंगे। 2022 में अपने देश व इसकी विविधता को मजबूत बनाने के लिए कदम उठाएं। कुछ भी करें-कलाकृतियां बनाएं, बिजनेस, सर्विस या उत्पाद बनाएं या अच्छी तरह अपनी नौकरी करते हुए उत्कृष्टता का पीछा करें। देश की जीडीपी, खुशी और भाईचारे में योगदान दें। अगर ये नहीं कर सकते, तो कम से कम ऐसा कुछ ना करें जो भारत को कमजोर करे। दिल दुखाने वाले शब्द, विभाजनकारी धारणाएं, अपने धर्म को ही श्रेष्ठ मानना- ये ये सब देश और जिस समाज में हम रहते हैं, उसे कमजोर करते हैं। अगर दूसरों की मदद करने के लिए नहीं जी सकते, तो कम से कम उन्हें परेशान तो ना करें।
हम नहीं चाहते कि ऊपर बताए गए संकल्प 19 जनवरी, 2022 तक समाप्त हो जाएं। हम चाहते हैं कि ये संकल्प बने रहें। उसके लिए ऊपर लिखे को फिर से पढ़ें। आप अपने जीवन और अपने राष्ट्र को क्या चाहते हैं, इस बारे में अपनी मानसिकता बदलें। बाकी सब होता जाएगा। ये दो साल बहुत बुरे गुजरे, पर मेरे अंदर से कुछ आवाज़ आ रही है कि 2022 वापसी करेगा। मसल्स बनाएं, मनी बनाएं और सकारात्मकता फैलाएं। हैप्पी न्यू ईयर!
Date:31-12-21
किराना दुकानों को मिला नया साझेदार
इंद्रजित गुप्ता, ( लेखक फाउंडिंग फ्यूल के संस्थापक हैं )
देश का खुदरा और वितरण कारोबार प्राय: काफी बिखरा हुआ है। इस क्षेत्र में अगला संघर्ष इस बात को लेकर उभर रहा है कि आखिर हर जगह मौजूद किराना स्टोरों की सेवा का अवसर किसे मिलेगा। ताजा मसले की शुरुआत दो सप्ताह पहले हुई जब अखिल भारतीय उपभोक्ता उत्पाद वितरण महासंघ ने हिंदुस्तान यूनिलीवर, पीऐंडजी और डाबर समेत करीब दो दर्जन बड़ी उपभोक्ता वस्तु (दैनिक उपभोग वाली यानी एफएमसीजी) निर्माता कंपनियों को लिखा कि उन्हें कारोबार के समान अवसर मुहैया कराए जाएं। उनकी नाराजगी नए संगठित बिजनेस टु बिजनेस कारोबारों मसलन रिलायंस जियोमार्ट, मेट्रो कैश ऐंड कैरी तथा उड़ान से थी। महासंघ ने मांग की कि कीमतों और मार्जिन के मामले में उन्हें भी बी2बी थोक विक्रेताओं के साथ समानता मिले वरना वे अगले वर्ष से इन एफएमसीजी कंपनियों का सामान रखना बंद कर देंगे।
दशकों से कंपनियों द्वारा नियुक्त प्रत्यक्ष वितरक ही भारतीय खुदरा और वितरण कारोबार की विशिष्ट पहचान रहे हैं। इनकी बदौलत बड़ी एफएमसीजी कंपनियां सीधे लाखों किराना दुकानों तक कम लागत में पहुंच सकीं। इस व्यवस्था में नए उत्पाद लॉन्च करने पर भी उनका अधिक नियंत्रण था। वे किराना दुकानों को कह सकती थीं कि वे नए उत्पाद रखें। ऐसा इस आशा के साथ किया जाता कि कंपनी अपने विज्ञापन और रणनीतियों की बदौलत उत्पादों की बिक्री सुनिश्चित कर सकेगी। इसके अतिरिक्त ब्रांड मालिक के रूप में एफएमसीजी कंपनियां मोलभाव की ताकत बरकरार रखतीं और खुदरा कारोबारी और वितरक दोनों के मार्जिन पर नियंत्रण रख पातीं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की तुलना की जाए तो अभी भी 4 फीसदी का अंतर नजर आता है। आश्चर्य नहीं कि भारत में एफएमसीजी कंपनियों ने इस प्रत्यक्ष वितरण मॉडल को अपनी प्रतिस्पर्धी बढ़त का अहम जरिया माना। अभी भी उनके मूल्यांकन में इसकी बड़ी हिस्सेदारी है।
यही कारण है कि थोक कारोबार में यह विवाद मौजूदा एफएमसीजी कंपनियों के लिए दिक्कत की वजह बना है। एक स्तर पर जहां वे अपनी ही कंपनी के वितरणों के हितों की अनदेखी नहीं कर सकतीं और उन्हें अलग-थलग नहीं छोड़ सकतीं। अभी भी उनकी खुदरा बिक्री में सबसे अधिक हिस्सेदारी उन्हीं की है। इसके साथ ही जमीनी हकीकतों की अनदेखी करना भी संभव नहीं है। किराना व्यापारी लंबे समय तक विभिन्न कंपनियों के वितरकों से उत्पाद खरीदते थे लेकिन अब उनके पास एक नया विकल्प है : सीधे संगठित थोक विक्रेता से सामान खरीदना। वे सामान की पुन:पूर्ति जल्दी कर सकते हैं, मार्जिन अधिक है और डिजिटल ऑर्डर देने की सुविधा है। इसमें ढेर सारे वितरक विक्रेताओं से नहीं निपटना पड़ता है और उन्हें अपनी खरीद को ठोस बनाने में मदद मिलती है। चूंकि थोक विक्रेताओं की नई खेप विविध उत्पादों की पेशकश करती है इसलिए उन्हें बेहतर सेवा स्तर का वादा भी मिलता है। स्टोर में सीमित जगह होने के कारण किराना मालिक कम स्टॉक रख सकता है और जरूरत पडऩे पर जल्द सामान ला सकता है। इससे उनकी अहम कार्यशील पूंजी बचती है और वे ज्यादा विविध उत्पाद रख सकते हैं।
एक और बात है जिसकी अनदेखी करना मुश्किल है: निजी लेबल या ब्रांड। थोक विक्रेता अपना दायरा बढ़ा रहे हैं और किराना दुकानदारों के साथ मजबूत रिश्ते कायम कर रहे हैं। ऐसे में वे भी वही करेंगे जो संगठित खुदरा कारोबारियों में से अधिकांश करते हैं। यानी स्थापित ब्रांड की जगह पर ढेर सारे निजी ब्रांड बाजार में पेश करना। ये ब्रांड किराना दुकानदारों को अधिक मार्जिन देते हैं। हालांकि यह ब्रांड मालिकों के लिए वास्तविक चुनौती नहीं है।
संभावित परिदृश्य पर विचार करते हैं। पहला, समेकित स्तर पर जब तक पारंपरिक कंपनी वितरण व्यवस्था कम लागत पर बेहतर पहुंच सुनिश्चित करती है, एफएमसीजी कंपनियां संतुलन कायम करने को मजबूर होंगी। भले ही वे इन थोक विक्रेताओं को कम कीमत और उच्च मार्जिन की पेशकश नहीं करतीं तो भी थोक विक्रेता किराना कारोबारियों को अच्छा खासा मार्जिन देंगे। उड़ान के पास वेंचर कैपिटल की अच्छी खासी फंडिंग है जिसकी मदद से वह ग्राहक जुटा सकती है। रिलायंस जियोमार्ट, जर्मन बी2बी थोक विक्रेता मेट्रो कैश ऐंड कैरी तथा फ्लिपकार्ट पर भी यही बात लागू होती है।
यदि वे नए किराना को अपने साथ जोड़कर अपना विस्तार करने लगें तो कंपनी के वितरकों का बचाव कैसे हो सकेगा? बीते वर्षों में एक बात स्पष्ट रूप से देखी गई है: बेहतर संचालित कंपनियों के वितरकों को बड़े भूभाग के प्रबंधन की अनुमति होती है। परिणामस्वरूप उनका काम बहुत बड़े पैमाने पर होता है और आपूर्ति शृंखला को डिजिटल बनाने का अवसर भी होता है। ऐसा करने पर बेहतर निर्णय लेने के लिए डेटा की गुणवत्ता में सुधार होता है। लेकिन इसमें अलग चुनौतियां हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में कंपनियों के वितरकों को एफएमसीजी कंपनियों के साथ मोलतोल की ताकत भी मिल जाती है। दूसरा, कई नई स्थानीय और बहुराष्ट्रीय एफएमसीजी कंपनियां हैं जिनके पास पारंपरिक वितरण लाभ जैसा कुछ नहीं। इन नई कंपनियों के लिए संगठित थोक विक्रेता अपनी पहुंच और वितरण बढ़ाने के लिए ईश्वरीय तोहफे की तरह हैं। वे जियोमार्ट, मेट्रो या उड़ान जैसी फर्म के साथ खुशी-खुशी काम करेंगी।
अंत में, संगठित खुदरा के उलट थोक विक्रेताओं के लिए चैनल संबंधी विवाद से बचना आसान नहीं होगा। बीते वर्षों के दौरान तमाम टकराव के बाद संगठित खुदरा कारोबारी बड़ी एफएमसीजी कंपनियों के साथ एक किस्म का संतुलन कायम करने में कामयाब हुई थीं। रिलायंस रिटेल और फ्यूचर ग्रुप जैसे बड़े खुदरा रिटेलर सीधा वितरण हासिल करने में कामयाब रहे क्योंकि वे यह साफ दिखा चुके थे कि उनका विशाल स्वरूप, स्वयं सेवा मॉडल ने प्रीमियम और नए उत्पादों की बेहतर खरीद में मदद की थी। वे परिचालन की उच्च लागत की भरपाई के लिए उच्च मार्जिन हासिल करने में कामयाब रहे। संगठित खुदरा का आकार प्रत्यक्ष वितरण मॉडल से अलग होने का भी लाभ मिला। एक समस्या यह हो सकती है कि थोक विक्रेता भी अपने लिए उसी व्यवस्था की मांग कर सकते हैं जो कंपनी वितरक अभी किराना को दे रहे हैं।
लाखों वितरकों की आजीविका को संभावित खतरे को देखते हुए माना जाना चाहिए कि नए वर्ष में यह विवाद और जोर पकड़ेगा।
Date:31-12-21
नाहक सियासत
संपादकीय
इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के खिलाफ कोई व्यक्ति निराधार, जहरीले विचारों और नफरत का प्रसार करे। किसी भी सोचने-समझने वाले जिम्मेदार नागरिक की नजर में यह अस्वीकार्य होगा और संबंधित क्षेत्र की सरकार और प्रशासन की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह नफरत फैलाने वाले उस व्यक्ति पर कानूनसम्मत कार्रवाई करे। इस लिहाज से छत्तीसगढ़ की पुलिस ने कालीचरण महाराज नामक व्यक्ति को गिरफ्तार करके यही संदेश देने की कोशिश की है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है और उसे समाज में नफरत और हिंसक विचार को फैलाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। गौरतलब है कि पिछले हफ्ते रायपुर में धर्म संसद नाम से हुए आयोजन में कालीचरण ने महात्मा गांधी के बारे में कई आपत्तिजनक बातें कहीं। यहां तक कि उनकी हत्या को भी सही ठहराने की कोशिश की। इससे संबंधित चर्चित वीडियो में कालीचरण बिना किसी संकोच के महात्मा गांधी के खिलाफ अपने दुराग्रह और उनकी हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के प्रति भक्तिभाव दर्शा रहा था।
यह समझना मुश्किल है कि किसी व्यक्ति को एक ऐसे शख्स से इस हद तक नफरत कैसे हो सकती है, जिसने अपनी जिंदगी देश की आजादी के आंदोलन में झोंक दिया और जिसने अपने जीवन-मूल्यों से दुनिया भर में अहिंसा का संदेश फैलाया। आज महात्मा गांधी केवल भारत में नहीं, बल्कि दुनिया भर में एक महान शख्सियत के रूप में जाने जाते हैं। मगर भारत में ही कुछ लोग उनके खिलाफ जहरीले विचार जाहिर कर उनके योगदान को खारिज करने की कोशिश कर रहे हैं। एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र से जुड़े प्रतीकों के खिलाफ हिंसक विचारों का प्रसार शायद सभी देशों में कानून की कसौटी पर अनुचित माना जाता होगा। इसलिए कालीचरण के खिलाफ कई जगहों पर मुकदमे दर्ज हुए और इस क्रम में छत्तीसगढ़ की रायपुर पुलिस ने उसे मध्यप्रदेश के खजुराहो से पच्चीस किलोमीटर दूर बागेश्वर धाम स्थित लाज से गिरफ्तार किया, जहां वह छिपा हुआ था। इस मामले में मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने कालीचरण की गिरफ्तारी की प्रक्रिया पर एतराज जताते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ की पुलिस की अपनी कार्रवाई की जानकारी मध्यप्रदेश पुलिस को देनी चाहिए थी। इससे तय अंतरराज्यीय नियम-कायदों का उल्लंघन हुआ है।
सवाल है कि जो व्यक्ति अपनी करतूत के नतीजे का अंदाजा लगा कर भाग खड़ा हुआ था और दूर जाकर कहीं छिपा हुआ था, वह अपनी गिरफ्तारी के बारे में जानकारी मिलने पर क्या इतनी आसानी से पकड़ में आता! कई बार पुलिस के कामकाज करने का तरीका ऐसा होता है, जिसमें प्रक्रिया को लेकर कुछ सवाल-जवाब की गुंजाइश हो सकती है, मगर असली मकसद किसी अपराध के आरोपी को कानून के कठघरे में खड़ा होना चाहिए। कालीचरण ने जिस तरह अपने बयान में अपने दुराग्रहों का प्रदर्शन किया, वह केवल महात्मा गांधी के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिश नहीं है, बल्कि एक तरह से देश की आजादी के आंदोलन के मूल्यों और संघर्ष की भावनाओं को अपमानित करना है। इससे ज्यादा अफसोसनाक और क्या हो सकता है कि जिस व्यक्ति और उनके साथ खड़े लाखों-करोड़ों लोगों ने निस्वार्थ भाव से देश की आजादी के लिए आंदोलन में हिस्सा लिया, उसमें न जाने कितने लोगों ने अपना बलिदान दिया, उसकी अहमियत को स्वीकार करने के बजाय उसे अपमानित किया जाए। कालीचरण की गिरफ्तारी का तरीका गलत हो सकता है, मगर उसका दोष सिद्ध है। इस पर राजनीति करने के बजाय अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए।
Date:31-12-21
आर्थिक विकास और महिलाएं
परमजीत सिंह वोहरा
अब समाज में महिलाओं के आर्थिक विकास को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। महिला सशक्तिकरण की बात तो हम लंबे समय से कर रहे हैं, पर हमारे मुल्क की तीव्र आर्थिक प्रगति के लिए अब महिलाओं के आर्थिक विकास को प्राथमिकता देना अत्यंत आवश्यक है। एक सौ चालीस करोड़ की आबादी वाले हमारे मुल्क में करीब पचपन करोड़ लोग अपने परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर निर्भर हैं। इसमें घरेलू महिलाएं बड़ी तादाद में हैं। इसके अलावा हमारे समाज में शिक्षित महिलाओं का भी घरेलू महिलाओं की संख्या में बहुत बड़ा भाग है। आश्रितों की इतनी बड़ी संख्या अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है।
इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था दो प्रकार की स्थितियों से गुजर रही है। एक तरफ जहां आर्थिक विकास में निरंतरता बनाए रखना मुख्य उद्देश्य है, तो वहीं दूसरी तरफ लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता भारत के समग्र आर्थिक विकास में बहुत बड़ी बाधा है। लगातार बढ़ती आर्थिक विषमता ने अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है। कोरोना महामारी के दौरान जहां एक तरफ भारत में गरीबों की संख्या में सात करोड़ की बढ़ोतरी हुई है, वहीं दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या में सैंतीस प्रतिशत की वृद्धि। यह हमें लगातार सोचने को विवश कर रही है। इस विकट परिस्थिति से भी निपटा जा सकता है अगर आर्थिक सुधारों में महिलाओं के आर्थिक विकास को मुख्य उद्देश्य के रूप में रखा जाए।
भारत में महिला आर्थिक विकास तभी संभव है, जब हर महिला रोजगार को अपना उद्देश्य बनाए। भारत में वर्तमान महिला आर्थिक विकास से संबंधित कार्यों और नीतियों पर एक दृष्टि डालें, तो पाएंगे कि आजादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी महिला सशक्तीकरण का विचार हमारे कानों में गूंजता तो रहता है, पर अभी तक भारत में इस पर ठोस कार्य नहीं हुए हैं। सही मायनों में महिला सशक्तिकरण तभी संभव है जब महिला आर्थिक विकास की ओर मजबूती से काम हो। स्थिति इतनी विकट है कि देश की कुल आबादी में अड़तालीस प्रतिशत महिलाएं हैं, पर रोजगार में सिर्फ एक तिहाई ही संलग्न हैं। भारत की कुल ‘एमएसएमई’ का मात्र उन्नीस प्रतिशत महिलाओं द्वारा संचालित हो रहा है। महिलाओं का वेतन भी पुरुषों के वेतन का पैंसठ प्रतिशत है। ‘बीएसई’ और ‘एनएसई’ में सूचीबद्ध कंपनियों में मात्र नौ प्रतिशत महिलाएं उच्च पद पर आसीन हैं। जिस तरह दिन-प्रतिदिन कंप्यूटर द्वारा ‘आटोमेशन’ हो रहा है, उससे वर्ष 2030 तक करीब दो करोड़ ग्रामीण रोजगारों में संलग्न महिलाओं के सामने बरोजगारी की समस्या भी खड़ी होने वाली है। एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक अगर भारत में महिलाओं को पुरुषों के बराबर रोजगार में तवज्जो मिलने लग जाए, तो अर्थव्यवस्था में बिना कोई आमूलचूल परिवर्तन हुए भी जीडीपी सात अरब अमेरिकी डालर तक बढ़ सकती है।
महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन की सोच को देखते हुए अब महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा उद्यमिता की तरफ बढ़ना चाहिए। पिछले कुछ समय से समाज में एक बदलाव आया है, जिसमें माता-पिता अपनी पुत्री के लिए भी तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रबंधन की शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा प्राथमिकता देने की कोशिश कर रहे हैं। महिलाओं के आर्थिक विकास के मुद्दे को बड़ी संख्या में बल तब मिलेगा, जब ऐसी शिक्षित लड़कियां स्वयं आगे बढ़ कर अपनी तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रबंधन की शिक्षा का उपयोग खुद के व्यावसायिक प्रतिष्ठान में करने की कोशिश करेंगी। इसके माध्यम से समाज में एक बदलाव आएगा तथा महिलाओं का समाज के आर्थिक विकास में भी योगदान बढ़ेगा। इस संदर्भ में हमारे समाज की एक वास्तविकता को भी समझना होगा। आज भी हमारा समाज उद्यमिता या एंटरप्रेन्योरशिप के अंतर्गत महिलाओं को कमजोर समझता है। यह लगभग सभी की मानसिकता है कि व्यवसाय या व्यापार करना सिर्फ पुरुषों के दायरे में आता है, क्योंकि वही इसमें ज्यादा सक्षम होते हैं। इसी सोच के कारण महिला उद्यमी को अपने व्यापार-व्यवसाय को दूसरों के सामने प्रस्तुत करने में अनेक समस्याएं आती है, जिसमें सबसे बड़ी बाधा आवश्यक वित्त की सुविधाओं के निर्धारण तथा प्राप्ति से संबंधित होती है।
इसके अलावा हमारे समाज में महिलाएं स्वयं भी व्यवसाय को प्राथमिकता नहीं देना चाहतीं, क्योंकि वे इसमें पुरुषों का एकाधिकार ज्यादा देखती हैं। यह भी हमारी एक सामाजिक मानसिकता का प्रतीक है कि परिवार में छोटे बच्चों के पालन-पोषण की प्राथमिक जिम्मेदारी पुरुष की तुलना में महिला की ज्यादा होती है, जिसके कारण भी आधुनिक रूप से शिक्षित महिलाएं व्यापार करने का निर्णय लेने में हिचकती हैं तथा वे व्यवसाय की तुलना में नौकरी करने को ज्यादा उचित समझती हैं, क्योंकि उस दशा में वे अपने आप को ज्यादा सुविधाजनक पाती हैं। अगर वास्तव में महिला आर्थिक विकास की बात करनी है, तो हमें उपरोक्त सामाजिक सोच तथा मानसिकता को बदलना होगा।
इस संदर्भ में एक विडंबना यह भी है कि उन महिलाओं को आर्थिक विकास से कैसे जोड़ा जाए, जो निम्न मध्यवर्गीय परिवार से संबंधित हैं। वे मात्र साक्षर हैं, आधुनिक रूप से शिक्षित नहीं हैं तथा उनके परिवार में आश्रितों की संख्या भी अधिक है। वर्तमान परिस्थिति में हमारे मुल्क में ऐसी महिलाओं की संख्या काफी है। यहां एक आदर्श स्थिति बन सकती है, अगर ये महिलाएं स्वयं आगे बढ़ कर किसी भी तरह के आर्थिक रोजगार को अपनी आय का मुख्य स्रोत बनाने का निश्चय करें। इसके माध्यम से जहां एक तरफ आश्रितों की संख्या कम होगी, वहीं दूसरी तरफ आर्थिक विषमता भी कम होगी।
ऐसी महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन से पहले उन्हें आर्थिक विकास का एक स्रोत मिलना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए सरकारों, सामाजिक संगठनों और औद्योगिक घरानों आदि को मिल कर एक पहल करनी होगी। सामाजिक संस्थानों के माध्यम से ऐसी महिलाओं को प्रमाणित तथा एकत्रित करना होगा, जो अपने जीवन में आर्थिक उद्देश्य को पूरा करना चाहती हैं। सरकारों के माध्यम से औद्योगिक घरानों को दिशा-निर्देश दिए जाएं कि वे आगे बढ़ कर सामाजिक संगठनों के साथ मिल कर एक सामंजस्य स्थापित करें, ताकि ऐसी महिलाओं को उनके आर्थिक उद्देश्य के लिए किसी विशेष तरह के रोजगार के लिए शिक्षित और प्रशिक्षित किया जा सके। इस संदर्भ में सिलाई, कढ़ाई, पेंटिंग, ब्यूटी पार्लर, कुकिंग से संबंधित कई तरह के प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं। यह सब कई जगह किया भी जा रहा है, पर अब सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि इन प्रशिक्षण शिविरों के बाद भी ऐसी प्रशिक्षु महिलाओं को उद्यमिता के बारे में भी सिखाया जाए, जिसके अंतर्गत मुख्य रूप से गुणवत्ता प्रबंधन तथा सोशल मीडिया के विभिन्न स्रोतों के माध्यम से अपने उत्पाद की मार्केटिंग के नए तौर-तरीके जानना अत्यंत आवश्यक है।
अक्सर देखा जाता है कि प्रशिक्षण शिविर के बाद भी कम पढ़ी-लिखी महिलाएं रोजगार में सलंग्न नहीं होतीं, क्योंकि उनमें उद्यमिता अपनाने का आत्मविश्वास नहीं होता है। जरूरत है इन महिलाओं को प्रेरित और जागरूक करने की, ताकि बैंकिंग सुविधाओं और आर्थिक सहयोग से उन्हें उद्यमिता की तरफ मोड़ा जा सके। यह समाज में एक क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है।
वास्तव में स्त्री और पुरुष दोनों के कंधों पर अपने परिवार को चलाने की जिम्मेदारी के साथ समाज और देश के आर्थिक विकास में योगदान देना एक कर्तव्य है। खुशी होती है इस बात से कि हम स्त्री सशक्तिकरण को बहुत तवज्जो देते हैं तथा वास्तव में इस पक्ष पर पिछले काफी समय से बहुत मजबूती से काम भी हो रहा है, पर अब समय आ गया है, जब स्त्री को आर्थिक विकास की मुख्यधारा में पुरुष के समान ही महत्त्व दिया जाए।
Date:31-12-21
उफ! ऐसी सियासत!
आचार्य पवन त्रिपाठी
खुलासा हो रहा है कि 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव कस्बे में हुए आतंकी विस्फोट के मामले में जांच एजेंसी एटीएस (आतंकवाद निरोधक दस्ता) योगी आदित्यनाथ सहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चार अन्य वरिष्ठ नेताओं को फंसाने की साजिश रच रही थी। इन नेताओं का नाम लेने के लिए एटीएस ने गवाहों पर दबाव डाले। उन्हें और उनके परिवार को भी फंसाने की धमकियां दीं। इसी मामले में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और ले. कर्नल पुरोहित जैसों को आरोपी बनाया गया था। वे अभी भी इस मामले में आरोपी हैं। इन पर भारतीय दंड विधान एवं आतंकवाद से संबंधित ऐसी–ऐसी धाराओं में मामला दर्ज है कि आरोप सिद्ध हो जाने पर इन्हें आजीवन कारावास से लेकर मृत्युदंड तक की सजा हो सकती है।
संयोग ही है कि इस मामले की जांच अब एटीएस के हाथ से निकल कर एनआईए के हाथ में आ चुकी है। जांच एजेंसी में यह परिवर्तन होने बाद से अब तक 15 गवाह अदालत में अपने पूर्व बयान बदल चुके हैं। सांसद बन चुकीं साध्वी प्रज्ञा खुद कई बार खुद पर हुए एटीएस के जुल्म और जुल्म ढाने वाले अधिकारियों के नाम बयां कर चुकी हैं। समझा जा सकता है कि कोई भी जांच एजेंसी तब तक इस प्रकार की साजिशें रचने की हिम्मत नहीं जुटा सकती‚ जब तक कि उसके राजनीतिक आका ऐसा करने का निर्देश न दें। मालेगांव में हुए विस्फोट के समय महाराष्ट्र में कांग्रेस–राकांपा गठबंधन की सरकार थी। राज्य का गृह मंत्रालय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी एवं केंद्र का गृह मंत्रालय कांग्रेस के हाथों में था।
यह वही दौर था‚जब हिंदू आतंकवाद का जुमला गढ़ा जा रहा था। यह वही गृह मंत्रालय था‚ जिसने गोधरा कांड के बाद भड़के गुजरात के दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को भी फंसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। महाराष्ट्र में फिर गठबंधन सरकार है। फर्क इतना है कि इस गठबंधन में राकांपा और कांग्रेस के साथ शिवसेना भी शामिल हो गई है। गृह मंत्रालय फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के ही पास है। इस गृह मंत्रालय की एक बानगी अनिल देशमुख के नेतृत्व में हाल में देखी जा चुकी है। लेकिन इससे बड़े खेल भी हो रहे हैं‚ जो भविष्य में महाराष्ट्र को न जाने किस दिशा में ले जाएंगे। महाराष्ट्र विधानमंडल के इसी शीतकालीन सत्र के दौरान मुंबई भाजपा अध्यक्ष एवं विधायक मंगलप्रभात लोढ़ा ने खुलकर इस खेल के बारे में सदन को बताया। उन्होंने एक दिन पहले सदन में सनातन संस्था पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वालों को करारा जवाब देते हुए याद दिलाया कि त्रिपुरा में हुई एक घटना पर किस तरह मुंबई में जगह–जगह रजा अकादमी एवं जमात के लोगों द्वारा प्रदर्शन किए गए। याद दिलाया कि किस तरह कुछ वर्ष पहले रजा अकादमी के लोगों ने मुंबई महानगर पालिका के ठीक सामने स्थित शहीद स्तंभ को लात मारने की घटना को अंजाम दिया था। यह भी याद दिलाया कि 1993 में मुंबई में सिलसिलेवार विस्फोट कांड में जब एक आरोपी को मिली फांसी की सजा की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने की तो इस पर खुशी मनाने के बजाय उस दोषी को माफी के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखने वाले व्यक्ति आज विधायक बन कर महाराष्ट्र विधानसभा में बैठे हैं।
जब लोढ़ा सदन में ये बातें बता रहे थे तो सत्ता पक्ष की ओर से हंगामा किया जा रहा था। यहां तक कि लोढ़ा को अपनी बात कहते हुए पीठासीन अधिकारी से संरक्षण की मांग करनी पड़ी। लोढ़ा ने याद दिलाया कि कोरोना काल में अनेक हिंदू तीज–त्यौहारों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है‚ लेकिन हर शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सड़कों पर जाम लगाकर नमाज अता करने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाता। लोढ़ा का कहना था कि संस्कृति बचेगी तो ही देश बचेगा। और देश बचेगा तो ही हम–आप बचेंगे। नहीं तो जो कश्मीर में हुआ और पश्चिम बंगाल में हो रहा है‚ उसे मुंबई में भी होने से रोका नहीं जा सकेगा। लोढ़ा का इस ओर इंगित करना गंभीर समस्या की ओर संकेत करता है कि आज मुंबई में कम से कम 15 व्यवसायों पर धर्म विशेष का कब्जा हो चुका है। मुंबई के मूल निवासी कोली समाज की महिलाओं के हाथ में रहे मछली व्यवसाय का 90 फीसद आज धर्म विशेष के हाथों में जा चुका है‚और कोली महिलाएं बेरोजगार हो चुकी हैं। याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि लोढ़ा एक बार मुंबई के मालवणी इलाके में उत्तर प्रदेश के कैराना की तर्ज पर धर्म विशेष के लोगों द्वारा हिंदुओं के घर जबरन खरीदे जाने की बात उठा चुके हैं।
मसला चाहे हिंदू नेताओं को फंसाने के लिए एटीएस जैसी जांच एजेंसी के दुरुपयोग का हो‚चाहे सनातन संस्था पर प्रतिबंध लगाने की मांग एवं रजा अकादमी जैसी संस्थाओं को खुली छूट देने या सड़क जाम कर नमाज की अनुमति देने या मालवणी में चल रहे ‘कैराना पैटर्न’ का हो‚इन सारी समस्याओं की जड़ सरकार एवं प्रशासन के एक ओर झुकाव में ही नजर आती है। बड़ी चिंता का कारण यह भी है कि कभी इस तरह की समस्याओं के सामने तन कर खड़ी होने वाली शिवसेना अब खुद उस तिकड़ी का हिस्सा बन चुकी है‚जो ऐसी घातक संस्कृति को संरक्षण दे रही है। दरअसल‚ एक बात जो अक्सर देखी गई कि जहां समुदाय विशेष की जनसंख्या बढ़ती है‚ वहां हिंदुओं के खिलाफ उनकी दादागिरी शुरू हो जाती है। बात केवल मुंबई स्थित मालवणी या आजाद मैदान दंगे तक सीमित नहीं है।
पश्चिम बंगाल के चुनाव के दौरान हिंदुओं के दमन चक्र का नंगा नाच साफ देखने को मिला। वहां ममता बनर्जी के नेतृत्व में सरकार बनी और अब हिंदुओं का उत्पीड़न चरम पर पहुंच चुका है। अब तक का इतिहास है कि जब और जहां मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती है तब और वहां हिंदुओं का दमन शुरू हो जाता है। ममता की सरकार का खुला समर्थन मुस्लिम समुदाय को है। इससे मुस्लमानों की हिम्मत बढ़ चुकी है। वे हिंदुओं का उत्पीड़़न की कोशिश करते हैं‚ जिसे नाकाम करने की जरूरत है। असम में भी हिंदुओं को दबाने का प्रयास किया गया। ज्ञात हो कि असम में 27 जिले हैं‚ जिनमें बारपेटा‚ करीमगंज‚ मोरीगांव‚ बोंगईगांव‚ नागांव‚ ढुबरी‚ हैलाकंडी‚ गोलपारा और डारंग 9 मुस्लिम बहुल हैं। यहां बांग्लादेशी मुस्लिमों की घुसपैठ के चलते राज्य के कई क्षेत्रों में स्थानीय लोगों की आबादी का संतुलन बिगड़ गया है।
Date:31-12-21
करवट बदलते दौर में कूटनीति
विवेक काटजू, ( पूर्व राजदूत )
यह साल कोविड-19 के साए में ही गुजरा। इस महामारी ने हर देश में उथल-पुथल मचाई। स्थिति यह है कि 2020 में बिगड़ चुका वैश्विक संतुलन इस वर्ष भी पटरी पर नहीं लौट सका। साल 2021 की मांग थी कि विश्व की महाशक्तियां आपसी सहयोग से कोविड-19 को खत्म करने की कोशिशें करतीं और हरेक देश की पर्याप्त मदद करतीं। हर महाशक्ति ने यह तो माना कि दुनिया में कोई भी देश महामारी से तब तक सुरक्षित नहीं है, जब तक कि हरेक देश सुरक्षित नहीं होगा, लेकिन इस सिद्धांत पर किसी ने अमल नहीं किया। महाशक्तियों के शीर्ष नेतृत्व ने प्राथमिकता अपने ही लोगों को दी, जिस कारण दुनिया भर में ‘टीका असमानता’ देखी गई।
भारत ने इसमें अलहदा रुख अपनाया। उसने वर्ष की शुरुआत में ही टीकों का निर्यात शुरू कर दिया, जबकि उसकी अपनी जनता को इनकी जरूरत थी। इससे हमने खुद को एक अच्छा वैश्विक नागरिक साबित किया। बाद में, जब टीकों की घरेलू आवश्यकता बढ़ गई और यह दबाव बना कि टीके निर्यात न किए जाएं, तो विदेशों में टीके न भेजने का अच्छा फैसला लिया गया, क्योंकि दूसरी लहर ने भारत में भयानक तबाही मचाई। वर्ष के अंत तक फिर टीकों को बाहर भेजना आरंभ किया गया, लेकिन ओमीक्रोन का खतरा बढ़ने के बाद एक बार फिर अपनी जनता को अधिक प्राथमिकता देने की जरूरत है।
बहरहाल, सामरिक दृष्टि से यह वर्ष काफी चुनौतीपूर्ण रहा। सबसे बड़ी चुनौती तो चीन के आक्रामक रवैये से मिली। उसने 2020 में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अब वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति बनाए रखने के सिद्धांत को छोड़ने को तैयार है। इस साल एलएसी पर स्थिति कुछ सामान्य तो हुई, लेकिन 2020 के अतिक्रमण से पहले की यथास्थिति पर जाने को चीन तैयार नहीं था। भारत-चीन वार्ता में भारतीय प्रतिनिधियों ने यह साफ कर दिया कि जब तक वह एलएसी पर शांति बनाए रखने को प्राथमिकता नहीं देगा, तब तक स्थिति सामान्य नहीं हो सकती। नतीजतन, चीन के साथ तनाव चलता रहा, इसलिए एलएसी पर हमें ज्यादा सेना तैनात करनी पड़ी, आगे भी पड़ेगी। वैसे, इस बीच उसने हमारे पश्चिम पड़ोस के देशों के साथ-साथ अन्य करीबी राष्ट्रों में भी अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं।
इस साल अफगानिस्तान में तालिबान की जीत से भारत की अफगान नीति को क्षति पहुंची है। दुखद है कि जब ये संकेत दिख रहे थे कि गनी सरकार के हाथ से वक्त फिसलता जा रहा है और भारतीय हितों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक हो गया है कि तालिबान से संबंध बनाए जाएं और बातचीत शुरू हो, तब भारत ने ऐसा करने से परहेज किया। अंत में, जब तालिबान ने सत्ता पर कब्जा कर लिया, तब भारतीय और तालिबानी प्रतिनिधियों में कुछ खुली बैठकें हुईं जरूर, लेकिन अफगानिस्तान में जिस त्वरित और लचीली नीति की दरकार थी, उसका अभाव रहा। इसका फायदा पाकिस्तान और चीन ने उठाया। पश्चिम एशिया में जरूर भारत ने इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात के साथ नई पहल शुरू की, जिससे ऐसे संकेत मिले कि भारत इस महत्वपूर्ण क्षेत्र की अपनी नीतियों में बदलाव कर रहा है, लेकिन नई दिल्ली किस रास्ते पर आगे बढे़गी, यह अब भी साफ नहीं हो सका है।
साल 2021 जैसे-जैसे आगे बढ़ा, यह भी स्पष्ट होने लगा कि दुनिया एक नए शीत युग में प्रवेश कर गई है। एक तरफ विश्व की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका और उसके मित्र देश अपना प्रभाव कायम रखने की कोशिशों में जुटे रहे, तो दूसरी तरफ चीन ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में ऐसे-ऐसे कदम उठाए, जिनसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से चल रही विश्व व्यवस्था बदली जा सके। बीते चार दशकों में चीन आर्थिक रूप से बहुत सफल रहा है। इसी बुनियाद पर उसने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाई है, और अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण किया है। लेकिन जो सबसे बड़ी कामयाबी उसने हासिल की है, वह विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में है। अब वह अमेरिका, यूरोप और जापान को तकनीकी क्षेत्र में चुनौती देने लायक बनता जा रहा है। इसका एक उदाहरण 5जी कम्यूनिकेशन तकनीक है। इसी तरह, वह बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) के जरिये दुनिया के हर कोने में, खासतौर से हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों को वह तभी तक मानेगा, जब तक उन कानूनों और उसके हितों में टकराव न हो।
नए शीत युग की वजह से इस साल भारत को बहुत नरम कूटनीति अपनानी पड़ी। एक तरफ उसने ‘क्वाड’, यानी अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चीन और प्रशांत महासागर के अन्य देशों को यह संदेश दिया कि वह बीजिंग की आक्रामक गतिविधियों को मंजूर नहीं करता, तो दूसरी तरफ उसने रूस से अपने रिश्ते बनाए रखे, खासतौर पर रक्षा के क्षेत्र में। इन सबके जरिये चीन को भारत यह संकेत देने में सफल रहा कि नई दिल्ली एक संतुलित रिश्ते की हिमायती है, लेकिन वह अपने हितों को कतई नजरंदाज नहीं करेगी। दुनिया के लिए भी भारत का यही संदेश रहा कि वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ हर क्षेत्र में अपने रिश्ते बढ़ाना चाहता है, लेकिन वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति या सामरिक नीति का त्याग नहीं करेगा। यही वजह है कि अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत रूस से एस 400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की खरीदारी पर अटल रहा।
इस साल पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते हमेशा की तरह खराब ही रहे। इस बीच पाकिस्तान का दुष्प्रचार भी चलता रहा। वह मोदी सरकार, भारत की नीतियों और विशेषकर संघ परिवार की विचारधारा के खिलाफ मुखर रहा। हां, यह जरूर है कि वर्ष की शुरुआत में ही नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम पर सहमति बनी, जो कमोबेश पूरे साल कायम रहा। एक वक्त तो ऐसा लगा था कि संबंध अब सामान्य हो चले हैं, लेकिन ऐसा दीर्घावधि में हो नहीं सका, क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद का दामन छोड़ने को तैयार नहीं है। चीन के साथ उसके रिश्ते गहरे बने रहे, जिसके कारण उनका गठजोड़ भारत के लिए सामरिक समस्या बना रहा।
इन सबसे यही साफ हो रहा है कि इस साल सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को कोई खास सफलता तो नहीं मिली, मगर अफगानिस्तान में छोड़कर उसे कहीं विशेष क्षति भी नहीं पहुंची।