News Clipping 21-07-2018
Date:21-08-18
ईश्वर के अपने राज्य केरल में इंसान ने बुलाई तबाही
संपादकीय
केरल में बारिश और बाढ़ ने सदी की सबसे भीषण आपदा उपस्थित की है लेकिन, इस तबाही में सिर्फ प्रकृति का प्रकोप ही नहीं इंसान द्वारा उसके संकेतों की उपेक्षा करने का बड़ा योगदान है। सही है कि अपेक्षाकृत ज्यादा बरसात वाले इस प्रांत में इस मौसम में अब तक सामान्य से 42 प्रतिशत अधिक बारिश हुई है और महज अगस्त के महीने में बारिश की मात्रा 164 प्रतिशत अधिक है। इसके बावजूद पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल के अध्यक्ष और वैज्ञानिक माधव गाडगिल की उस व्याख्या से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर उनकी चेतावनी पर ध्यान दिया गया होता तो केरल में उत्तराखंड जैसी तबाही न होती। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की ओर से 2010 में गठित गाडगिल पैनल का कहना था कि पश्चिमी घाट के छह राज्य पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील हैं और इस बारे में ग्राम पंचायत स्तर तक पर्यावरण के नियमों का चौकसी के साथ पालन होना चाहिए। लेकिन उस रिपोर्ट से परेशान छह राज्य सरकारों ने इसरो के वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में एक और पैनल बनाकर उसे पलट दिया।
कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट भी सरकारों को हजम नहीं हुई और केरल सरकार ने अपने 13000 वर्ग किलोमीटर के संवेदनशील इलाके को घटाकर 9993 किलोमीटर तक ला दिया। अगर सरकार इस सुझाव को भी ठीक से मानती तब भी तबाही कम हो सकती थी लेकिन, इन सारी रिपोर्टों को दरकिनार करते हुए पूरे राज्य में पत्थरों की अवैध खुदाई जारी रही। उसके कारण कई पहाड़ियां और वन क्षेत्र कमजोर हो गए और पानी के बहाव को नहीं सह सके। तमाम बांधों के गेट खोले जाने से भी कई इलाके डूबे हैं और आज नौ लाख लोग हजारों राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं। राज्य सरकार कुल नुकसान का आंकड़ा 19,512 करोड़ रुपए तक प्रस्तुत कर रही है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सर्वेक्षण के बाद केंद्र की ओर से घोषित राहत राशि छह सौ करोड़ तक ही पहुंची है। उधर अंधविश्वास को बढ़ावा देते हुए हिंदू मक्कल काछी ने दावा किया है कि सबरीमला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत दिए जाने के कारण ईश्वर का यह प्रकोप हुआ है। इसलिए संकट के इस समय में धैर्य रखते हुए राहत कार्य को तेज करने के साथ अपनी संकीर्णता को काबू में करना होगा ताकि पता चल सके ईश्वर के इस अपने देश में तबाही लाने में इनसान का कितना योगदान है।
Date:21-08-18
शहरीकरण सिर्फ चुनौती नहीं, अवसर भी
संपादकीय
ग्रामीण इलाका होने की वजह से इन जगहों पर आर्थिक और भवन निर्माण गतिविधियों के नियमन के लिए कानूनी प्रावधान और प्रशासकीय व्यवस्थाएं अपर्याप्त और अनुपयुत हें जिससे कि शहरीकरण की वजह से जो पैदा हो रही चुनौतियों से तालमेल बिठाया जा सके। जरूरी तंत्र के अभाव के कारण अराजक स्थिति पैदा हो रही है और दयनीय जीवन स्तर के हालात बन रहे हैं। ऐसी कई जगहों पर पेयजल, मल व्यवहन (सैनिटेशन), बिजली आदि मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी ग्रामीण प्रशासन (पंचायत) की है और इन पर काफी दबाव है क्योंकि एक बड़ी आबादी को इन जरूरी आवश्यकताओं की जरूरत है। यहां बड़ी मात्रा में ठोस कचरा पैदा होता है और इनका संग्रहण और इनके निपटारे की व्यवस्था काफी पिछड़ी हुई है। रियल एस्टेट के व्यवसायी और बिल्डर इलाकों में बेखौफ होकर अपना काम करते हैं और भवनों में दुकानों और अतिरित मंजिलों का निर्माण के अवसर का दुरूपयोग करते हैं ताकि बढ़ती आबादी की जरूरतों को समायोजित किया जा सके। विकास संबंधी नियंत्रण और भवन उपनियम नहीं होने के कारण बेतरतीब ढंग से भवनों के ढांचों में बदलाव किया जाता है। रियल एस्टेट के एजेंटों और आप्रवासियों के निहित स्वार्थ की वजह से सार्वजनिक स्थानों को लेकर विवाद होता है जिससे वहां के निवासियों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
अनधिकृत निर्माण वृष्टिजल (रेनवाटर) के प्राकृतिक प्रवाह को प्रभावित करता है और मानसून के दौरान स्थानीय स्तर पर बाढ़ की स्थितियां पैदा करता है। दूसरी समस्या आवागमन से संबंधित है। संकरी गलियों का इस्तेमाल गाडिय़ां पार्क करने और गाडिय़ां चलाने के लिए होता है। वाहन उत्सर्जन और अवैध निर्माण की वजह से होने वाला प्रदूषण आम है जिसका गंभीर प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर होता है।ऐसी समस्याएं घनी आबादी वाले शहरों के इर्द गिर्द के अनेक ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं जहां के निवासियों का जीवन स्तर काफी दयनीय होता है। इन इलाकों में आबादी बढ़ रही है, ग्रामीण प्रवृतियां बदल रही है, माल और सेवाओं के लिए मांग बढ़ रही है लेकिन प्रशासकीय तंत्र पारंपरिक बना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि इलाके की बदलती प्रवृत्तियों के आकलन के गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं और न ही बदलती स्थितियों को ध्यान में रखते हुए स्थानीय स्तर की शासन प्रणाली की गुणवत्ता में सुधार को महत्व दिया जा रहा है।
ऐसे कई इलाकों को पहले राज्यसरकारों के कानून के अंतर्गत जो ग्रामीण प्रशासन प्रदान किया गया वो बरकरार हैं हांलाकि स्थानीय ग्रामीण शासनप्रणाली स्थानिक और आर्थिक बदलाव को संभालने के लिए पर्याप्त रूप से अधिकारप्रदत्ता और साधनसक्षम नहीं हैं।शासन व्यवस्था का दृष्टिकोण यह है कि ग्रामीण इलाकों को ग्रामीण सुधार पद्धति की जरूरत होती है जबकि शहरी इलाकों को शहरी सुधार पद्धति की। इस वजह से अधिकतर देश स्थानीय प्रवर्तियों के आकलन के लिए कई प्रकार के मानकों या मानदंडों का उपयोग करते हैं जिनके आधार पर स्थान विशेष का ग्रामीण या शहरी प्रशासन का स्वरूप तय होता है। अलग अलग देशों में ये मानदंड अलग होते हैं और उस देश विशेष की आबादी और विकास संबंधी लक्षणों पर आधारित होते हैं। इससे स्थान विशेष के लिए सही प्रकार की शासन प्रणाली जैसे पंचायत या नगरपालिका तय करने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में प्रति एक वर्ग मील में एक हजार व्यति से ज्यादा की आबादी वाले उन इलाकों को शहरी का दर्जा दिया जाता है जहां 2500 से ज्यादा निवासी रहते हैं।
अमेरिका शहरी आबादी के मामले में चीन और भारत के बाद तीसरा स्थान रखता है जहां की आबादी 27 करोड़ से ज्यादा है। इसी तरह गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत भारत का जनगणना कार्यालय किसी इलाके को तीन मानकों के आधार पर शहरी घोषित करता है। ये मानक हैं वैसे रिहाइशी इलाके जहां न्यूनतम 5000 लोग रहते हों, कम से कम 75 फीसदी पुरूष आबादी गैर कृषि धंधों में लगी हो और आबादी का घनत्व प्रति वर्ग मील कम से कम एक हजार व्यति हो। जनगणना कार्यालय इन मानकों को पूरा नहीं करने वाले रिहायशी इलाकों को ग्रामीण घोषित कर देता है। जनगणना कार्यालय भारतीय शहरी आबादी की गणना के दौरान राज्य सरकार द्वारा घोषित शहरी ( वैधानिक शहरों ) की हायशी इलाकों की आबादी के साथ साथ तीन मानकों को पूरा करने वालों ( जनगणना शहरों) को भी शामिल करता है। विडंबना ये है कि ग्रामीण और शहरी विकास राज्य के विषय हैं और राज्य सरकारें जनगणना के मानकों या गणनायोग्य उपयुक्त मानदंडों पर भरोसा नहीं करतीं। इसके बदले अस्पष्ट मानकों का उपयोग होता है जिनके बारे में पर्याप्त नकारी उपल ध नहीं होती। अस्पष्ट तौर तरीकों की वजह का परिणाम ये होता है कि इलाकों को शहरी और ग्रामीण का दर्जा देने के क्रम में स्थानीय लक्षणों पर ध्यान दिये बगैर राज्य अधिकारियों द्वारा मनमाने फैसले लिये जाते हैं।
बदलती परिस्थितियों के अनुरूप काम करने में स्थानीय सरकार की नाकामी की यह एक प्रमुख वजह है। इस समय भारत के राज्यों में ग्रामीण शासन प्रणाली के तहत आने वाले कई रिहायशी इलाकों में शहरी प्रवृत्तियाँ परिलक्षित हो रही हैं। 2011 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक 5.4 करोड़ भारतीयों से ज्यादा या देश की कुल आबादी का करीब पांच प्रतिशत हिस्सा उन ग्रामीण इलाकों में रहता है जो जनगणना मानकों के मुताबिक शहरी इलाके की पात्रता रखते हैं और इनमें से कई ग्रामीण रिहायशी इलाकों की आबादी एक लाख से भी ऊपर है। इसके अलावा, विश्व बैंक और यूरोपीय संघ के ज्वाइंट रिसर्च सेंटर के अध्ययनों से खुलासा होता है कि भारत ज्यादा शहरीकृत है।
शहरी नीति विश्लेषकों का मानना है कि राज्य सरकारें विभिन्न केन्द्र सरकार की ग्रामीण और शहरी वित्तीय योजनाओं का लाभ लेने के लिए मनमाने तरीके अपनाती हैं। संबंधित इलाकों का दर्जा ‘ग्रामीण’ से ‘शहरी’ करने को भी टाला जाता है जिससे कि भवन निर्माण उपनियम, विकास संबंधी नियंत्रण और कराधान संबंधित शहरी कानूनों को लागू ना करना पड़े। राज्य स्तर पर अव्यवहारिक कार्यप्रणाली का असर दयनीय जीवन स्तर में दिखता है। तब भारत के आदर्श तौर पर, राज्यों को शहरीकरण के वास्तविक विस्तार के आकलन के लिए यथार्थपूर्ण मानकों, मूल्यों और सुदूर संवेदी तकनीक( रिमोट सेंसिंग टेनोलॉजी) का उपयोग करना चाहिए। मानकों में जीवन स्तर के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए, जबकि अभी ऐसा नहीं हो रहा।
Date:21-08-18
शहरीकरण की तीव्र गति
संपादकीय
आज 55 फीसदी वैश्विक आबादी (4.2 अरब )शहरी इलाकों में रहती है, लेकिन ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर लोगों के रुख और आबादी बढऩे से यह आंकड़ा साल 2050 तक 68 फीसदी तक पहुंच जायेगा। यह तेज रुझान मुय रूप से एशिया और अफ्रीका के देशों में दिख रहा है। साल 2018 से 2050 के बीच शहरी आबादी में भारत 41.6 करोड़, चीन 25.5 करोड़ और नाइजीरिया 18.9 करोड़ के साथ सर्वाधिक योगदान कर सकते हैं। इस अवधि में टोयो को पीछे छोड़ते हुए दिल्ली सबसे बड़ी आबादी का नगर बन जायेगा। शहरीकरण की प्रक्रिया आर्थिक उपलब्धियों का सूचक है, लेकिन इसकी चुनौतियां भी बड़ी हैं. चीन के बाद भारत में सबसे ज्यादा आबादी (89.3 करोड़) गांवों में वास करती है। चूंकि 2050 तक भारत की जनसंख्या विश्व में सबसे अधिक होगी,इसलिए शहरीकरण को लेकर कई स्तरों पर संतुलित और समुचित नीतिगत पहलों कीआवश्यकता है। हमारे शहरों में बुनियादी ढांचे, प्रशासनऔर स्थायित्व के स्तर पर व्यापक खामियां हैं। शहरीकरण के दबाव में ये दिकतें बढ़ती ही जा रही हैं।
बीते सालों में सरकार ने शहरी क्षेत्रों को विकास का अगुवा बनाने के इरादे से अमृत, स्मार्ट सिटी, हृदय, प्रधानमंत्री आवास योजना और स्वच्छ भारत जैसे कार्यक्रम शुरूकिये हैं। मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय के बजट में 2.8 फीसदी की बढ़ोतरी की गयी है।साफ-सफाई, यातायात, स्वच्छ ऊर्जा जैसे जरूरी पहलुओं के लिए भी नीतियां बनायी गयी हैं। ऐसी पहलें अहम हैं, पर एक संपूर्ण राष्ट्रीय शहरी नीति की जरूरत है, जो राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के साथ मिलकर केंद्र द्वारा तैयार की जानी चाहिए। दुनिया के करीब एक-तिहाई देशों में ऐसी नीति लागू है। अक्टूबर , 2016 में 193 से ज्यादा देशों ने सतत विकास पर आधारित भविष्य के शहरीकरण के लिए प्रस्ताव पर सहमति बनायी थी, लेकिन डेढ़ साल के बाद भी भारत इस एजेंडे की दिशा में ठोस कदम नहीं उठा सका है।
विश्व स्तर पर सकल घरेलू उत्पादन में शहरों का योगदान 80 फीसदी है, पर पर्यावरण के लिए खतरनाक 70 फीसदी ग्रीनहाउस गैस भी यहीं पैदा होते हैं। दुनिया के 14 सबसे प्रदूषित शहर भारत में हैं। शहरी आबादी का बड़ा हिस्सा बुनियादी सुविधाओं से वंचित झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने के लिए अभिशप्त है। योजना बनाने वाले विशेषज्ञों की औसत संख्या एक लाख की आबादी पर महज 0.23 है। स्थानीय निकाय धन और कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं। शहरी प्रशासन के अधिकार एवं कार्यों से जुड़े 74वें संविधान संशोधन को ठीक से लागू नहीं किया जा सका है। नि:संदेह हमारे भविष्य का आधार शहर हैं, पर बेहतर शहरों के बिना आनेवाले कल की बेहतरी का सपना कैसे पूरा हो सकेगा? उम्मीद है कि केंद्र और राज्य सरकारें बिना किसी देरी के शहरीकरण की चुनौतियों का सामना करने के लिए माकूल उपायों पर ध्यान देंगी।
Date:21-08-18
शहरीकरण की स्मार्ट नीति की जरूरत
संपादकीय
भारतीय शहरों की आबादी 3 4 प्रतिशत बढ़ रही है। जिन शहरों की आबादी 50 लाख से ऊपर थी, वह 2005 के बाद से लगभग उतनी ही है। एक अनुमान के अनुसार 2050 तक भारतीय शहरों की जनसंया 81.4 करोड़ हो जाएगी। भारतीय शहरों की हालत काफी खराब है। नगर योजना के दिखावे के नाम पर गरीबी और बेकार बुनियादी ढांचे की संरचना कर दी जाती है। बढ़ती जनसंख्या के साथ स्वच्छ जल, सार्वजनिक परिवहन, सीवेज ट्रीटमेंट और सस्ते घर की मांग बढ़ती जाएगी। शहरी बुनियादी ढांचे पर भारत में 17 डॉलर प्रति व्यति खर्च किया जाता है, वहीं चीन में 116 डॉलर प्रति व्यति खर्च किया जाता है। चयनित 90 स्मार्ट सिटी की 2,864 योजनाओं में से केवल 140 ही पूरी हुई हैं। 70 प्रतिशत योजनाएं अभी भी अधूरी पड़ी हुई हैं। शहरों से जुड़ी प्राथमिक समस्या यह है कि उनकी परिभाषा ही स्पष्ट नहीं है। शहरी विकास का क्षेत्र राज्यों के अधीन आता है। किसी क्षेत्र की जनसंख्या , घनत्व, राजस्व एवं जनसंख्या का गैर-कृषि कर्म में संलग्न होने के अनुसार उसे राज्यपाल शहरी क्षेत्र घोषित करते हैं।
सूचना के आधार पर नगरीय प्रशासन या म्यूनिसिपलिटी का निर्माण किया जाता है। केन्द्र सरकार उस क्षेत्र को शहर मानती है, जहां स्थानीय प्रशासन हो, जनसंख्या 5,000 हो, वहां के 75 प्रतिशत से अधिक पुरूष गैर कृषि-कर्म में संलग्न हों, और जहां जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 वर्ग प्रति वर्ग कि.मी. हो। इसे ‘सेन्सन टाउन’ कहा जाता है। पश्चिम बंगाल में जलपाईगुड़ी जिले में उबग्राम की जनसंया एक लाख 20 हजार है, परन्तु उसे ‘सेन्सस टाउन’ की ही श्रेणी में रखा गया है। शहरों को श्रेणीबद्ध करने की अस्पष्ट प्रक्रिया के अलावा शहरों की प्रवास नीति भी बहुत ही अव्यवस्थित है। कुल-मिलाकर यही लगता है कि हमें शहरीकरण के लिए एक अलग ही मॉडल चाहिए। नई शहरी नीति की घोषणा हो चुकी है। उम्मीद की जा सकती है कि इस नीति के द्वारा नगरों और उनमें बसने वाले मानव समुदायों का उद्धार होगा। साथ ही, भूमि सुधार नीति पर फोकस करने की आवश्यकता है। तब जाकर शहरों का रुपांतरण हो सकेगा।
Date:21-08-18
शहरीकरण के बढ़ते खतरे
देवेंद्र जोशी
अनियोजित शहरीकरण आज किसी एक प्रदेश की नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। आजादी के सत्तर सालों में जहां कस्बे शहर, शहर नगर और नगर महानगर बनते चले गए, वहीं गांवों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। गांव आज भी गांव ही है। वही आबोहवा, आंचलिक संस्कृति, एक-दूसरे के सुख-दुख में हिस्सा बंटाने का आत्मीय भाव, अभाव में भी संतुष्टि और इस सबसे बढ़ कर छोटी-सी घटना के घटित होने पर सारे गांव के एकजुट हो जाने का संवेदनशील रवैया। गांव के मूल चरित्र में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। मूल्य, परंपरा और संस्कृति के संरक्षण की दृष्टि से यह शुभ संकेत है। जबकि इस दौरान शहरों और नगरों की संस्कृति और सभ्यता में अनियोजित शहरीकरण के कारण आए बदलाव ने पूरी दुनिया ही बदलकर रख दी है। तेजी से हो रहे शहरीकरण और नगरीकरण का ही नतीजा है कि चार लेन वाली सड़कों पर सरपट दौड़ती गाडिय़ों, चौराहों पर चमचमाती तेज लाइटें और सड़कों पर रेंगती की भीड़ के बीच जीवन का असली मकसद जैसे कहीं खो गया है। मनुष्य मशीनों और शहर समस्याओं के केंद्र बन कर रह गए हैं।
नगरों, शहरों और महानगरों के आकर्षण में हर कोई गांव छोड़ कर शहर में आ बसना चाहता है, बगैर इस बात की पड़ताल किए कि शहर इसके लिए तैयार हैं भी या नहीं। यह प्रवत्ति स्वाभाविक और युगीन है। शहर विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अच्छी शिक्षा, अच्छा जीवन, अच्छे कामकाज, रोजगार और अच्छी चिकित्सा की तलाश में लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार एक करोड़ लोग हर हफ्ते रोजी-रोटी और तरक्की के सपने संजोए गांवों से शहरों की ओर चले आते हैं। चाहे शहरी चकाचौंध का आकर्षण हो या रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी, सच्चाई यह है कि दुनिया की करीब आधी आबादी शहरों में बसने लगी है। वातावरण में हर साल घुलने वाली अस्सी फीसद कार्बन डाई आसाइड इन्हीं शहरों से आती है। वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के मुताबिक विकासशील देशों में शहरी आबादी साढ़े तीन फीसद सालाना की दर से बढ़ रही है, जबकि विकसित देशों में यह वृद्धि दर मात्र एक फीसद है। संयुत राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक अगले बीस सालों में शहरी आबादी जितनी बढ़ेगी, उसका 95 फीसद बोझ विकासशील देशों पर पड़ेगा। यानी सन 2030 तक विकासशील देशों में दो अरब लोग शहरों में रहने लगेंगे। संयुत राष्ट्र का यह भी आकलन है कि अगर शहरों पर बढ़ रहे आबादी के बोझ और बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया गया तो एक करोड़ से च्यादा आबादी वाले बड़े शहरों पर भविष्य में बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ जाएगा।
शहरों पर ज्यों -ज्यों आबादी का बोझ बढ़ रहा है, लोगों को मिलने वाली सुविधाओं में कमी आ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों में सत्तर फीसद से च्यादा आबादी यानी करीब नब्बे करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ी में रहते हैं। ऐसे में जहां उनके लिए स्वास्थ्य संबंधी परेशानी बढ़ी है, वहीं पर्यावरण को भी गंभीर नुकसान पहुंचा है। शहरीकरण के कारण रोजमर्रा की समस्याएं भी बढ़ी हैं। इनमें जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, बेकारी, अपराध, बाल अपराध, महिला उत्पीडऩ, भीड़भाड़, गंदी बस्तियां, आवास की कमी, बिजली एवं जल आपूर्ति की कमी, प्रदूषण, मदिरा पान और अन्य मादक पदार्थों का सेवन, संचार एवं यातायात संबंधी समस्याएं प्रमुख हैं। शहरीकरण के कारण नगरों और महानगरों में आवास की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। यह कहावत प्रचलित है कि कामकाज की तलाश में आने वालों को नगरों-महानगरों में रहने के लिए घर के अलावा सब कुछ मिल जाएगा। नए-नए नगर-महानगर बनें, इससे भला किसे एतराज हो सकता है! लेकिन उसके अनुरूप सड़क, बिजली, पानी, आवास, यातायात, साफ-सफाई की व्यवस्था भी तो जुटाई जाए।