News Clipping on 02-09-2018
Date:02-09-18
शिक्षा और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया
डा. सतीश कुमार
पिछले चार वर्षो में शिक्षा के क्षेत्र में कई बुनियादी परिवर्तन हुए हैं। एक नई सोच और ऊर्जा का संचार भी देखने को मिला है। यह अलग बात है कि ‘‘जियो विविद्यालय’ की स्थापना और विवाद ने मीडिया और सोशल मीडिया पर सरकार की किरकिरी भी खूब हुई है। कई विविद्यालयों में नियुक्ति का न हो पाना और चंद कुलपतियों की अकर्मण्यता ने सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। इसके बावजूद कई ऐसे आयाम जुड़े हैं, जिनकी चर्चा जरूरी है। महज 103 नये केंद्रीय विद्यालय, 62 नवोदय विद्यालय और सात नये आईआईटी ही नहीं खोले गए, बल्कि ‘‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ योजना के जरिए देशकी क्षेत्रीय विषमताओं को समेटने की कोशिश भी की गई है। महिलाओं की शिक्षा में तेजी से बदलाव आया है। 2014 से 2017 के बीच करीब 7 प्रतिशत बालिकाओं की उच्च शिक्षा बढ़ी है। ‘‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना के तहत उन क्षेत्रों में पहुंचने की कोशिश की गई है, जहां पर बालिकाओं का ड्रॉप आउट रेट बहुत अधिक था।
मोदी सरकार ने शिक्षा की सार्थकता को बहाल करने की भी शुरुआत की है। शिक्षा का उद्देश्य महज रोजगार और विलासिता नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत गुणों का सर्वागीण विकास भी है। खेल और अध्ययन एक दूसरे के विरोधाभासी बनते चले गए। खेल जगत के विशेषज्ञ, जिन्होंने कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं, रिचर्ड बेली का मानना है कि खेल सकल घरेलू उत्पाद का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यूरोपीय देशों में खेल जगत करीब 3.5 प्रतिशत जीडीपी में सहयोग करता है। करीब इतना रोजगार पैदा करता है। बुद्धि को भी विकसित करता है। दशकों पहले विवेकानंद ने भी यही बात कही थी। कहा था कि ‘‘18 वर्ष के बच्चे को खेल और गीता पढ़ने के बीच चुनाव की चुनौती हो तो मैं युवक को यही सलाह दूंगा कि फुटबॉल खेले।’ विवेकानंद पुन: कहते हैं कि शारीरिक कमजोरी हमारे देश की एक तिहाई मुसीबतों को जन्म देती है। जब तक युवा वर्ग शारीरिक रूप से मजबूत नहीं होगा, देश मजबूत नहीं होगा। सरकार ने विवेकानंद की सोच को साकार करने के लिए ‘‘खेलो भारत-पढ़ो भारत’ योजना की शुरुआत की है, जिसमें सरकारी विद्यालय को प्रति माह 5 से 20 हजार रुपया केवल खेल सामग्री खरीदने के लिए दिया जाएगा।आधुनिक शिक्षा के विस्तार के साथ शारीरिक श्रम को ओछा एवं तुच्छ समझा जाने लगा।
पहले स्कूलों की सफाई का काम बच्चे और अध्यापक मिलकर करते थे। अब यह सब कुछ कहानियों में सिमट गया। कोरिया और जापान में बच्चे स्कूल की सफाई और निगरानी का काम करते हैं। चीन में भी यह व्यवस्था है। हमने शारीरिक श्रम को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया। नतीजा खतरनाक बनता गया। चरित्र और मूल्य टूटते चले गए। गांधी जी 1925 में लिखते हैं कि ‘‘शिक्षा का मूल अर्थ व्यक्ति को हर तरह से स्वावलंबी बनाना है, जो समाज को कुछ दे सके।’ विवेकानंद ने भी यही कहा कि ‘‘अगर शिक्षा चरित्र निर्माण नहीं कर पाती, परोपकार और राष्ट्र निर्माण में सहायक नहीं हो पाती, तो ऐसी शिक्षा किस काम की।’ सर्वोच्च शिक्षा और परीक्षा में सफल होकर कोई आईएएस अधिकारी आत्महत्या कर लेता है, तो शिक्षा कहां हुई? इस सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान को स्कूली पाठय़क्रम में जोड़कर एक बेहतरीन काम किया है। शहरों से गांवों को जोड़ना भी इस प्रयास का हिस्सा है। भूमंडलीकरण की दौड़ में शिक्षा को क्षेत्रीय खूंटे में नहीं बांधा जा सकता लेकिन यह भी इतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे यहां पर ‘‘ब्रेन ड्रेन’ एक मुसीबत बन गया है।
भारतीय संसाधन विदेशों की ओर जाने लगे। पिछले 7 दशकों में होड़ मची रही कि रोजगार या उच्च शिक्षा के लिए कैसे अमेरिका या यूरोप की दूरी तय की जाए। यह प्रवृत्ति पूरे भारत की है। सरकार ने इस ‘‘ब्रेन ड्रेन’ को ‘‘ब्रेन गेन’ में बदलने के लिए प्रधानमंत्री फेलोशिप की शुरुआत की है, जिसमें हजार योग्य विद्यार्थियों को फेलोशिप दी जाएगी। फेलोशिप की रकम 80 हजार रुपये प्रति माह तय की गई है। इसका उद्देश्य भारतीय बुद्धि पलायन को रोकना और उस पूंजी का उपयोग राष्ट्र निर्माण में करना। इसके अलावा, सरकार की कई अन्य योजनाएं शिक्षा की शक्ल को बदलने की कोशिश में हैं, लेकिन कई बुनियादी चुनौतियां भी हैं। शिक्षा जगत के बजट में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, फिर भी रकम बहुत कम है, जो जीडीपी का मात्र 6 प्रतिशत है। पश्चिमी देशों की तुलना में भारत की स्थिति काफी नीचे है। शिक्षा मंत्री के शब्दों में शिक्षा का क्षेत्र किसी भी अन्य मंत्रालय से बड़ा है। इसमें महज 35.35 लाख स्कूल, 26 करोड़ विद्यार्थी और 87 लाख शिक्षक ही नहीं हैं, अगर इसमें माता-पिता, जो अपने बच्चों की शिक्षा के लिए बेचैन होते हैं, को जोड़ दिया जाए तो देश की 60 प्रतिशत आबादी इसमें समा जाती है। पहले 5 और 8 कक्षा का बैरिकेट था, कांग्रेस की सरकार ने तोड़ दिया। मोदी सरकार उसको पुन: बहाल करने जा रही है। सरकार आधुनिकता और भारतीय परंपरा के मिश्रण से भारतीय चरित्र निर्माण की कोशिश में भी जुटी हुई है। अगर नीतियों का अनुपालन सही रहा तो इस देश की शक्ल बदल सकती है।
Date:02-09-18
अतिवादी कदमों के दोतरफा खतरे
हरिमोहन मिश्र
विधि आयोग ने अपनी हालिया सिफारिश में हमारे लोकतंत्र में विरोध की अहमियत पर नए सिरे से बल दिया है। संभव है, उसे देश में मौजूदा वक्त में जारी गतिविधियों और बहस के चिंताजनक पहलुओं का एहसास हो। जाहिर है, विधि आयोग की यह राय बहस को संतुलित बनाने में काम आएगी और देश के लोगों को नई राह दिखाएगी। यह राय शायद अदालतों के लिए भी हालिया मामलों में मददगार हो सकती है और सरकार तंत्र को भी पुनर्विचार पर मजबूर कर सकती है। न्यायमूर्ति (रिटायर) बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता में विधि आयोग ने राजद्रोह कानून (भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए) के संबंध में कहा,‘‘लोकतंत्र में एक ही धारा का राग अलापना देशभक्ति का मानक नहीं होना चाहिए। लोगों को देश के प्रति अपने तरीके से आस्था जाहिर करने की छूट होनी चाहिए। ऐसा करते कोई भी सरकार की नीतियों की खामियों और नाकामियों की सकारात्मक आलोचना कर सकता है। यह आलोचना तल्ख और कुछ के लिए अप्रिय हो सकती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उसे राजद्रोह की श्रेणी में डाला जाना चाहिए।धारा 124ए के तहत राजद्रोह के कड़े प्रावधानों का प्रयोग वहीं होना चाहिए जहां नीयत सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने या सरकार को अवैध या हिंसक तरीके से हटाने की हो।’ इसके साथ आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि विरोध की अहमियत को अगर हम कमजोर करेंगे तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।
यह पहली बार नहीं है कि विधि आयोग ने ऐसी राय जाहिर की है। इसके पहले भी कई आयोग इस संबंध में बेहद संजीदा ढंग से कार्रवाई करने की सलाह दे चुके हैं। देश में यह बहस भी आजादी के कुछ समय बाद ही तीखे ढंग से शुरू हो गई थी। असल में कई कानूनों की तरह यह भी हमारी औपनिवेशिक विरासत का हिस्सा है। अंग्रेजों ने अपने प्रति विरोध के दमन का इन्हें हथियार बनाया था। संविधान सभा में भी इस पर बहस हुई थी। इसी के साथ अवमानना और मानहानि संबंधी कानूनों पर भी बहस हुई थी। अवमानना और मानहानि के मामलों से फौजदारी की धाराओं को अलग करने की दलीलें भी बेहद पुरानी हैं। असल में ये दोनों ही कानूनी प्रावधान अभिव्यक्ति की आजादी पर कुछ अंकुश जड़ देते हैं, जिसे लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है। हालांकि संविधान सभा में कुछ शतरे के साथ इन प्रावधानों को रहने दिया गया था। लेकिन साठ-सत्तर के दशक में ही सुप्रीम कोर्ट अपने कई फैसलों में इन दोनों प्रावधानों को बेहद असाधारण मामलों में ही लागू करने की हिदायत दे चुका है। उसके बाद भी कई फैसले इस मामले में नजीर है।
लेकिन मौजूदा दौर में जिस तरह इन प्रावधानों का इस्तेमाल आम हो गया है, वह वाकई चिंता का विषय है। हाल में कई वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कथित तौर पर माओवादियों के साथ सांठगांठ के मामले में गिरफ्तार किया तो कई जाने-माने बुद्धिजीवियों की सख्त प्रतिक्रिया भी यही जाहिर करती है कि सिर्फ चिट्ठियों, ई-मेल या लेखों के आधार पर यह कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। हालांकि पुलिस की दलील है कि उसके पास हिंसक गतिविधियों में मदद करने के साक्ष्य मौजूद हैं। मुंबई पुलिस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कुछ साक्ष्यों को सार्वजनिक करने की कोशिश भी की। मगर, खासकर जानी-मानी मानवाधिकार वकील सुधा भारद्वाज का खंडन भी आ गया कि उनके ई-मेल वगैरह के साथ छेड़छाड़ की गई है और जिनसे उनके संवाद बताए जा रहे हैं, उन्हें वे जानती तक नहीं। खैर! इस खंडन-मंडन के बावजूद यह तो कहा ही जा सकता है कि ऐसे आरोप मढ़ने के पहले पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए। बहरहाल, मामला सर्वोच्च अदालत में है, इसलिए इस बहस में उतरने से पहले इंतजार करना ही बेहतर है।बड़ा सवाल देश के बड़े बुद्धिजीवियों की वह चिंता है कि हमारे राज्य का ढांचा पुलिस तंत्र में बदलता जा रहा है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा तो यहां तक कह गए कि ‘‘आज अगर महात्मा होते तो वे फौरन अपना वकील का जामा पहनकर बचाव में खड़े हो गए होते।’
यह भी गौर करने लायक है कि सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वालों में इतिहासकार रोमिला थापर और समाजशास्त्री सतीश देशपांडे सरीखी शख्सियतें हैं। ये बुद्धिजीवी ऐसे हैं, जो किसी चीज को बिना जांचे-परखे कोई रवैया नहीं बनाते क्योंकि उनका अकादमिक अनुशासन इसकी इजाजत नहीं देता। इसलिए हमेशा ऐसे लोगों की राय संजीदा ढंग से लेनी चाहिए वरना हम देश में तर्कसंगत सोच-समझ से च्युत हो जाएंगे।बुद्धिजीवियों का मान-सम्मान बेहद जरूरी है और उनके कदम अगर विरोध में भी उठे हों तो उस पर शांत होकर विचार करने की दरकार होती है। यहां एक घटना का जिक्र करना गैर-मुनासिब नहीं होगा। सत्तर के दशक में यूरोप और खासकर फ्रांस में ऐतिहासिक छात्र आंदोलन हुआ, जिसकी आंच पूरी दुनिया में महसूस की गई। तब फ्रांस के राष्ट्रपति डी‘‘गाल की दुनिया भर में तूती बोलती थी। कहते हैं डी‘‘गाल ने पुलिस के आला अधिकारियों की बैठक बुलाई कि बेकाबू छात्र आंदोलन से कैसे निपटा जाए। अधिकारियों ने उन्हें बताया कि दुनिया भर में मशहूर बुद्धिजीवी ज्यां पाल सार्त् छात्र को भड़का ही नहीं रहे हैं बल्कि वे प्रदर्शनों और पोस्टर वगैरह चिपकाने के दौरान भी मौजूद रहते हैं। अधिकारियों की सलाह थी कि सार्त् को गिरफ्तार कर लिया जाए तो आंदोलन पर काबू पाया जा सकता है।
इस पर डी‘‘गाल बिफर पड़े। उन्होंने कहा, सार्त् को गिरफ्तार करने का मतलब है कि फ्रांस को सीखचों में जकड़ देना, फ्रांस को गिरफ्तार करने का हमारे पास अधिकार कहां है। फिर सार्त् भी तो फ्रांस है। उसका नागरिक है। तो, जाहिर है, बुद्धिजीवियों की राय को अनसुना करना और बड़े संकट की ओर ले जा सकता है।लेकिन हमारे देश में ही राज्य सत्ता इसके उलट एकाधिक बार रु ख दिखा चुकी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण इमरजेंसी का वह दौर है, जब विपक्षी नेताओं के साथ कई बुद्धिजीवियों को भी जेल में डाल दिया गया था। हाल ही में महान पत्रकार और संपादक कुलदीप नायर का निधन हुआ। उन्हें भी जेल में डाल दिया गया था। लेकिन इमरजेंसी का खमियाजा इंदिरा गांधी सरकार को भुगतना पड़ा था। दरअसल, बुद्धिजीवियों पर जब आप डंडा चलाते हैं या उनकी बात की अनदेखी करते हैं तो कहीं न कहीं आप राष्ट्र की मूल भावना पर भी चोट कर रहे होते हैं। और देश के लोग इस मूल भावना पर चोट कतई बर्दाश्त नहीं करते।बहरहाल, उस मूल बहस पर लौटते हैं कि राजद्रोह जैसे कानून पर कैसे बेहद संजीदा होकर कार्रवाई करने की दरकार है।
और यह संजीदगी कोई अव्याख्यायित नहीं है। इसमें तल्ख और तीखे विरोध या सिर्फ सोचने या बात करने भर से आरोप नहीं बन जाता है, न कुछ आपत्तिजनक साहित्य पकड़ा जाना कोई साक्ष्य बन सकता है। अगर वाकई हिंसक कार्रवाई में लिप्त रहने या वैसी ही कोई साजिश का हिस्सा होने का वास्तविक प्रमाण मिलता है, तब अलग बात हो सकती है। हमें भी और पूरे सरकार तंत्र के साथ-साथ निचली अदालतों को भी यह ध्यान में रखना चाहिए, जो सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा। रोमिला थापर वगैरह की याचिका पर विचार करते हुए प्रधान न्यायाधीश की अगुआई वाली पीठ ने कहा कि विरोध या असहमति को रोकेंगे तो प्रेशर कूकर फट जा सकता है। इसी संदर्भ में विधि आयोग की मौजूदा राय भी खास अहमियत रखती है। इसलिए विरोध की अहमियत को कम करके मत आंकिए। ऐसा करके हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहे होंगे। ऐसी ही भावनाओं का इजहार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्णस आडवाणी भी कई बार कर चुके हैं।
Date:02-09-18
राजनीति का अपराधीकरण
रीता सिंह
राजनेताओं, सांसदों और विधायकों के खिलाफ देश के विभिन्न न्यायालयों में लंबित आपराधिक मामलों का ब्योरा केंद्र सरकार द्वारा न दिए जाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी जताई है। न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इस पर सख्त टिप्पणी की, जिसमें दोषी सांसदों और विधायकों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है। याचिका में आपराधिक मामलों में आरोपित सांसदों-विधायकों के मामलों की सुनवाई के लिए अलग से विशेष न्यायालयों के गठन की भी मांग की गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी याचिका की सुनवाई करते हुए राजनीति के अपराधीकरण पर केंद्र सरकार से पूछा था कि क्यों न आपराधिक मामलों के आरोपियों को चुनाव का टिकट देने वाले राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द कर दिया जाए? न्यायालय ने यह भी जानना चाहा था कि क्या चुनाव आयोग को ऐसा करने का निर्देश दिया जा सकता है?
इस याचिका में कहा गया है कि वर्ष 2014 में चौंतीस प्रतिशत से अधिक सांसद और विधायक दागी थे, इस कारण विधायिका चुप है। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को ताकीद किया था कि वह 2014 में नामांकन भरते समय आपराधिक मुकदमा लंबित होने की घोषणा करने वाले विधायकों और सांसदों के मुकदमों की स्थिति बताए। इनमें से कितनों के मुकदमें सर्वोच्च न्यायालय के 10 मार्च, 2014 के आदेश के मुताबिक एक वर्ष के भीतर निपटाए गए और कितने मामलों में सजा हुई और कितने बरी हुए। 2014 से 2017 के बीच कितने वर्तमान और पूर्व विधायकों और सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हुए। जवाब में केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में कुल अठाईस राज्यों का ब्योरा दिया गया है, जिसमें उत्तर प्रदेश के सांसदों-विधायकों के खिलाफ सबसे ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। 2014 में कुल 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे। इसमें लोकसभा के 184 और राज्यसभा के 44 सांसद शामिल थे। इनमें महाराष्ट्र के 160, उत्तर प्रदेश के 143, बिहार के 141 और पश्चिम बंगाल के 107 विधायकों पर मुकदमे लंबित थे।
सभी राज्यों के आंकड़े जोड़ने के बाद कुल संख्या 1581 थी। यहां ध्यान देना होगा कि चुनाव-दर-चुनाव दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। मसलन, 2009 के आम चुनाव में तीस प्रतिशत प्रत्याशियों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की थी। आम चुनाव 2014 के आंकड़ों पर गौर करें तो 2009 के मुकाबले इस बार दागियों की संख्या बढ़ गई। दूसरी ओर ऐसे जनप्रतिनिधियों की भी संख्या बढ़ी है, जिन पर हत्या, हत्या के प्रयास और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। 2009 के आम चुनाव में ऐसे सदस्यों की संख्या तकरीबन 77 यानी पंद्रह प्रतिशत थी जो अब बढ़ कर इक्कीस प्रतिशत हो गई है। कुछ अरसा पहले सर्वोच्च न्यायालय ने दागी नेताओं पर लगाम कसने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों से कहा था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए, क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। पर विडंबना है कि न्यायालय की इस नसीहत का पालन नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में हस्तक्षेप के बजाय इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दी है। दरअसल, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक संवैधानिक है और उन्हें इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। जब कानून में गंभीर अपराधों या भ्रष्टाचार में अभियोग तय होने पर किसी को चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं माना गया है, तो फिर मंत्रिमंडल गठन के मामले में उन्हें अयोग्यता कैसे ठहराया जा सकता।
वैसे भी उचित है कि व्यवस्थापिका में न्यायपालिका का अनावश्यक दखल न हो। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि कार्यपालिका दागी जनप्रतिनिधियों को लेकर अपनी आंखें बंद किए रहे और न्यायपालिका तमाशा देखे। कुछ अरसा पहले जब सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगाई, तो राजनीतिक दलों ने वितंडा खड़ा किया। उस समय सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें कैबिनेट से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों को हटाने की मांग की गई थी। शुरू में न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका दायर किए जाने पर 2006 में इस मामले को संविधान पीठ के हवाले कर दिया। इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में राजनीतिकों और अतिविशिष्ट लोगों के खिलाफ लंबित मुकदमे एक साल के भीतर निपटाने का आदेश दिया था। दूसरे फैसले में उसने कानून के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था, जो दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को अपील लंबित रहने के दौरान विधायिका का सदस्य बनाए रखता है।
अब चूंकि केंद्र सरकार ने दागी जनप्रतिनिधियों के मामले की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय के गठन को हरी झंडी दिखा दी है, राजनीति के शुद्धीकरण की उम्मीद बढ़ गई है। अगर दोषी नेताओं पर कानून का शिकंजा कसता है तो राजनीतिक दल ऐसे लोगों को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करेंगे। अकसर राजनीतिक दल सार्वजनिक मंचों से कहते हैं कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है। वे इसके खिलाफ कड़े कानून बनाने और चुनाव में दागियों को टिकट न देने की भी हामी भरते हैं। लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने का मौका आता है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बनते हैं। दरअसल, राजनीतिक दलों को विश्वास हो गया है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है। पिछले कुछ दशक से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। हैरान करने वाली बात यह कि दागी चुनाव जीतने में सफल भी हो रहे हैं। पर इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता भी बराबर की कसूरवार है। जब देश की जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाय जाति-पांति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रूप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे।
नागरिक और मतदाता होने के नाते जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह ईमानदार, चरित्रवान, विवेकशील और कर्मठ उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि चुने। यह तर्क सही नहीं कि कोई दल साफ-सुथरे लोगों को उम्मीदवार नहीं बना रहा है इसलिए दागियों को चुनना उनकी मजबूरी है। यह एक खतरनाक सोच है। देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना एक स्वाभावगत प्रक्रिया है। लेकिन उन पर निगरानी रखना और यह देखना कि बदलाव के दौरान नेतृत्व के आवश्यक और स्वाभाविक गुणों की क्षति न होने पाए, यह जनता की जिम्मेदारी है। देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तरक्की के लिए जितनी सत्यनिष्ठा और समर्पण राजनेताओं की होनी चाहिए उतनी ही जनता की भी। दागियों को राजनीति से बाहर खदेड़ने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता।