News Clipping on 03-08-2018
Date:03-08-18
Naya Pakistan?
New Delhi should be cautiously optimistic about what Imran can deliver
TOI Editorials
With Imran Khan preparing to take oath as the next PM of Pakistan, there have been reports about former Indian cricket stars Kapil Dev, Sunil Gavaskar and Navjot Singh Sidhu being on the guest list. As also Bollywood celebrity Aamir Khan. Although speculations were rife that Khan was also looking to invite Indian PM Narendra Modi for his swearing-in, the tantalising possibility of such a photo-op has been quashed. Nonetheless, the very fact that Khan was planning to invite his Indian cricket contemporaries and friends indicates some willingness to script a fresh chapter in India-Pakistan ties.
But the two countries have been here before. After former Pakistan PM Nawaz Sharif attended Modi’s swearing-in ceremony in 2014, there were similar hopes that the two countries would chart a new modus vivendi. However, things quickly took a downward turn thereafter … until the surprise Modi stopover in Pakistan in December 2015 appeared to provide a huge fillip to the engagement process. Then it was the terror attack on India’s Pathankot airbase in January 2016 and the Uri terror attack on an Indian army base in September of that year – impelling the Indian military to conduct retaliatory surgical strikes across the LoC – that seriously (and understandably) soured the mood.
Add to this the role of agents from across the border in the widespread unrest in Kashmir following militant Burhan Wani’s death in the summer of 2016, and the engagement process once again came off the rails. It’s against this backdrop that Khan takes over as the new Pakistan PM. And while he has talked about boosting trade with India, he has also stuck to the Pakistan army’s position of Kashmir being the core issue in bilateral relations. Given that Rawalpindi GHQ is the real author of Pakistan’s India policy, it will be interesting to see how Khan manages the generals.
That said, Khan’s connections with India are better than most in Pakistan. He has an opportunity to break the mould in bilateral ties. Telephoning Khan to congratulate him Modi reportedly said, “We are ready to enter a new era of relations with Pakistan.” Khan talked a moderate line in his victory speech too but none of this can paper over how his party flirted with radical positions during the campaign. So New Delhi will be cautiously optimistic.
Date:03-08-18
Innovative Solutions in Education Funding
ET Editorials
Improving quality and offerings of higher education institutes requires money. For the bulk of the country’s higher education institutions, augmenting revenues will mean, at least in the short run, increasing tuition fees. While established universities, colleges and institutions can access alumni contributions and industry partnerships, and use their considerable corpus, these options are not open to newer institutions. Higher education institutions, therefore, need to explore innovative financing schemes that will augment revenues without curtailing access.
Increasing budgetary support is an option, but even the most ambitious government budget cannot match rising demand. Besides, public money is better utilised in pre-schools/schools, and research and development. Budgetary constraints limit the quantum of scholarships, which are therefore reserved for the poorest. Education loans, though available, are expensive; the government’s interest subvention schemes and waiving of collateral requirements are restricted to technical education.
Income-sharing agreements (ISAs) are an option — ensuring revenues without limiting access. Under ISAs, students agree to pay a fixed percentage of their income for a fixed period, in return for the educational institution funding their education. Purdue University, in the US, offers ISAs, funded with its own corpus. Others rope in co-investing financial firms. This system’s collateral benefit is that institutions have a stake in ensuring the employability of their students and their ability to garner high salaries. Such innovative financing options will need oversight and regulation, besides enabling laws. Indian institutions must explore such options to become the engines that power the nation’s transformation.
Date:03-08-18
महंगाई और विकास दर में संतुलन का छोटा कदम
एसोचेम ने बैंक को चेताया है कि उसे यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि यह वृद्धि हर हाल में जारी ही रहेगी
संपादकीय
भारतीय रिजर्व बैंक ने बुधवार को दो महीने के भीतर लगातार दूसरी बार रेपो रेट में 25 बीपीएस की बढ़ोतरी करके उसे 6.5 करने का फैसला उम्मीदों के मुताबिक ही किया है। घरेलू मोर्चे पर उर्ध्वमुखी महंगाई, मानसून की लुका छिपी के बीच अच्छे खरीफ की घटती उम्मीदें, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के उछलते दाम और बढ़ते व्यापारिक युद्ध के बीच केंद्रीय बैंक के पास इसके अलावा कोई उपाय भी नहीं था। हालांकि मुद्रा नीति समिति ने ब्याज दरें बढ़ाने का निर्णय जून के महीने की तरह सर्वसम्मति से नहीं लिया है। कम से कम एक सदस्य ने इसके विरुद्ध मत दिया।
ऐसे भी विशेषज्ञ थे, जिनका कहना था कि भारत को ब्याज लिए जाने पर होने वाले व्यय को बढ़ाने की बजाय उसे घटाना चाहिए, क्योंकि देश के कई राज्यों में वित्तीय संकट है और उसका मुकाबला करने के लिए कर्ज लेना ही पड़ेगा। रिजर्व बैंक ने महंगाई के मौजूदा आकलन में केंद्र सरकार द्वारा खरीफ की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में की गई 150 प्रतिशत वृद्धि को भी रखा है। इससे भी मंहगाई पर असर पड़ेगा। हालांकि, कुछ वस्तुओं पर जीएसटी घटाए जाने का सकारात्मक प्रभाव भी पड़ना है। बैंक चाहता है कि महंगाई की दर चार प्रतिशत पर कायम रहे लेकिन, जून में वह पांच प्रतिशत तक पहुंच गई थी। यह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) है, जबकि मूल महंगाई की दर तो 6.4 के पास बताई जाती है। दूसरी ओर थोक मूल्य सूचकांक (डब्लूपीआई) 5.8 प्रतिशत है। उधर जीडीपी की दर 2018-19 में 7.4 प्रतिशत रहने की उम्मीद है।
रिजर्व बैंक ने महंगाई और विकास दर के बीच संतुलन कायम करने के लिए ही यह छोटा कदम उठाया है। कॉर्पोरेट जगत इसे अर्थव्यवस्था में वृद्धि और ऋण की बढ़ती मांग के रूप में देखता है लेकिन, एसोचेम ने बैंक को चेताया है कि उसे यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि यह वृद्धि हर हाल में जारी ही रहेगी। एसोचेम ने निजी क्षेत्र को भी आगाह किया है कि उन्हें संसाधनों के लिए बाजार पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं रहना चाहिए। रिजर्व बैंक ने अपने नीतिगत रवैए में किसी रुझान का प्रदर्शन न करते हुए उसे तटस्थ रखा है। यानी वह दरें बढ़ाते जाने का संकल्प लेकर नहीं बैठा है। अगर आंकड़े बढ़ाए जाने के पक्ष में आएंगे तो वैसा हो सकता है वरना अब अक्तूबर में दरें नहीं बढ़ने वाली हैं। लगता है कि रिजर्व बैंक अब अंतरराष्ट्रीय स्थितियों के साथ मानसून की भी धैर्य के साथ निगरानी करने की रणनीति अपनाएगा।
Date:03-08-18
आर्थिक संतुलन साधने की कोशिश
सुषमा रामचंद्रन, (लेखिका वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक हैं)
भारतीय रिजर्व बैंक ने लगातार दूसरी बार नीतिगत ब्याज दर में इजाफा करते हुए अर्थव्यवस्था के उन अहम तत्वों को लेकर चिंताओं को रेखांकित किया है, जिनके कारण महंगाई बढ़ रही है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से ब्याज दरों में गिरावट का दौर चल रहा था। लेकिन अब रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति समीक्षा की पिछली लगातार दो बैठकों के बाद ब्याज दरें बढ़ाने का एलान किया। पहले जून में ब्याज दर बढ़ी और फिर इसी हफ्ते इसमें पुन: इजाफा किया गया। हालांकि यह उछाल तीव्र नहीं है और दोनों ही बार 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी की गई, लेकिन इसके चलते रेपो दर (जिस दर पर आरबीआई बैंकों को उधार देता है) 6.50 फीसदी के स्तर तक पहुंच गई है। इसके नतीजतन बैंक भी उन ब्याज दरों को बढ़ाएंगे, जिन पर वे लोगों को कर्ज या उधार देते हैं। इसका मतलब है कि लोगों के लिए आवास, शिक्षा, कार या ऐसी अन्य निजी जरूरतों की खातिर कर्ज और महंगे हो जाएंगे। ग्राहकों के लिए कर्ज की मासिक किस्त या ईएमआई भी बढ़ जाएगी, जिससे ऐसे अनेक लोगों की मुश्किलें बढ़ेंगी, जिन्होंने मौजूदा ब्याज दरों के आधार पर अपनी दीर्घकालीन योजनाएं बनाई होंगी।
दूसरी ओर यह भी है कि वरिष्ठ नागरिक जैसा तबका, जो ज्यादातर जमाओं से प्राप्त निश्चित आय पर निर्भर रहता है, उनके लिए जमाओं पर ब्याज दरें स्वत: नहीं बढ़ेंगी। यह भी अजीब है कि बैंक नीतिगत ब्याज दरों में बढ़ोतरी के मुताबिक कर्ज या उधार की दरें तो तुरंत बढ़ा देते हैं, लेकिन जमाओं पर इस बढ़ोतरी का प्रभाव अमूमन नजर नहीं आता या इसमें काफी वक्त लग जाता है। हालिया दौर में कर्ज बांटने की रफ्तार सुस्त होना और बैंकों का बढ़ता एनपीए (फंसे कर्ज) भी इसके लिए जिम्मेदार है। फिर भी बैंकों को अगले कुछ महीनों में जमाओं पर ब्याज दरों में कुछ बढ़ोतरी तो करनी ही चाहिए, ताकि उन लोगों के चेहरों पर मुस्कान आ सके, जो ब्याज की आय पर निर्भर हैं। आखिर रिजर्व बैंक ने लगातार दूसरी बार ब्याज दरें बढ़ाने का यह कदम क्यों उठाया? इसके लिए कुछ ऐसे कारक भी जिम्मेदार हैं, जो हमारे नीति-नियंताओं को पिछले कुछ महीनों से परेशान किए हुए हैं। इसमें पहला और सर्वप्रमुख कारक है अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों का सख्त बने रहना। यदि एक साल की अवधि में ही अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें 50 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाएं तो उस देश की चिंताएं बढ़ाना लाजिमी है, जो अपनी जरूरतों का 80 फीसदी से ज्यादा तेल आयात करता है।
तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उछाल के चलते देश का आयात बिल भी तेजी से बढ़ा, जिससे राजकोषीय घाटे को निश्चित लक्ष्य तक सीमित रखना मुश्किल हो गया। हालांकि अब तक सरकार तेल आयात की लागत को घरेलू कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में उपभोक्ताओं तक स्थानांतरित करती रही है, लेकिन रिजर्व बैंक इसे बढ़ती महंगाई का एक बड़ा कारण मानता है और ब्याज दर में इजाफे की यह एक मुख्य वजह है। पर ऐसा लगता नहीं कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी से खास फर्क पड़ेगा, क्योंकि तेल की कीमतें तो बाहरी माहौल द्वारा नियंत्रित होती हैं। इसके अलावा, जहां तक ऊर्जा जरूरतों का सवाल है तो कीमतों में उतार-चढ़ाव से मांग में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।इसका दूसरा कारण मानसून से जुड़ा है, जिससे यह निर्धारित होता है कि कृषि पैदावार कैसी रहेगी। भले ही मौसम विभाग द्वारा पहले इस तरह की भविष्यवाणियां की गई हों कि इस साल मानूसन ‘सामान्य रहेगा, लेकिन हालिया कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि बारिश कुछ कम रह सकती है। हालांकि केंद्रीय बैंक ने इंगित किया कि शुरुआत में कुछ कसर रहने के बाद अब मानसून में सुधार नजर आ रहा है, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है।
लेकिन साथ ही साथ उसने सरकार द्वारा अनेक खाद्य फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में तीव्र इजाफे को भी रेखांकित किया। इसका खाद्य महंगाई पर सीधा असर पड़ सकता है और महंगाई एक बार फिर सुर्खियों में आ सकती है। इन तमाम पहलुओं पर गौर करते हुए रिजर्व बैंक ने दूसरी तिमाही (जुलाई से सितंबर) में खुदरा महंगाई 4.4 फीसदी, दूसरी छमाही (अक्टूबर से अगले साल मार्च) में 4.7-4.8 फीसदी और अगले वित्त वर्ष में 5 फीसदी रहने का अनुमान व्यक्त किया है। ये अनुमान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर व्यक्त किए गए हैं, जो मई में 4.9 प्रतिशत था और जून में बढ़कर 5 फीसदी तक पहुंच गया, खासकर तेल की उच्च कीमतों के चलते। इसके अलावा मैन्युफैक्चरिंग फर्म्स की भी उत्पादन लागत बढ़ने की खबरें आ रही हैं, जबकि कृषि लागतें भी बढ़ रही हैं। इन तमाम कारणों ने रिजर्व बैंक को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह ऐसे कदम उठाए, जिससे महंगाई के चक्र को नियंत्रित करना सुनिश्चित हो सके।यहां पर यह गौरतलब है कि इन तमाम चिंताओं के बावजूद रिजर्व बैंक इस बात को लेकर आश्वस्त है कि अर्थव्यवस्था इस साल रफ्तार पकड़ रही है और धीरे-धीरे सुधार आ रहा है।
उसने वर्ष 2018-19 के लिए 7.4 फीसदी विकास दर का अनुमान नहीं घटाया है। इसके पीछे एक प्रमुख वजह तो यही लगती है कि हालिया दौर में कई फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया गया है, जिसके चलते ग्रामीण मांग में उछाल आ सकता है और कृषि अर्थव्यवस्था के भीतर आमदनी बढ़ सकती है। उम्मीद यही है कि इस सबके चलते साल के बाकी हिस्से में मैन्युफैक्चरिंग गतिविधियों को भी संबल मिलेगा। बहरहाल, रिजर्व बैंक ने घरेलू आर्थिक विकास पर बाहरी कारकों के प्रभाव का बारीकी से अध्ययन किया है और इस क्रम में वैश्विक ट्रेड वॉर गहराने का परिदृश्य भी केंद्रीय बैंक की चिंता की एक प्रमुख वजह है। हालांकि यह अच्छी बात है कि पिछले दो माह के आंकड़ों के मुताबिक निर्यातों में पर्याप्त सुधार आया है। ऐसा कुछ हद तक रुपय के मूल्य में गिरावट की वजह से भी हुआ है। इससे खासकर ऐसी कंपनियों को काफी मदद मिली है, जो सेवाओं का निर्यात करती हैं, जैसे कि सॉफ्टवेयर कंपनियां। एक और प्लस प्वाइंट है। मौजूदा वित्त वर्ष की शुरुआत में शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंतर्प्रवाह में बढ़ोतरी हुई है।
साल-दर-साल के हिसाब से औद्योगिक विकास भी रफ्तार पकड़ रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो जहां तक समग्र आर्थिक विकास की बात है तो इस मामले में रिजर्व बैंक जबर्दस्त आशावादी नजरिया पेश करता नजर आता है, लेकिन साथ ही साथ वह यह भी सुनिश्चित करना चाहता है कि महंगाई की वजह से कहीं रंग में भंग न पड़ जाए। यही वजह है कि इसका फोकस पूरी तरह महंगाई को चार फीसदी के दायरे तक ही सीमित रखने पर केंद्रित है और तभी इसने लगातार दो बार ब्याज दरें बढ़ाने से गुरेज नहीं किया। लेकिन उसने यह भी देखा है कि आर्थिक गतिविधियों में मजबूती आ रही है और लगता नहीं कि विकास पर कोई असर पड़ेगा। लिहाजा यह उम्मीद की जा सकती है कि जहां तक ब्याज दरों में इजाफे की बात है तो अगली बैठक में इस पर विराम लगेगा। अन्यथा, लोगों में यह चिंता गहरा सकती है कि क्या निम्न ब्याज दरों का दौर बीत चुका है। बेहतर यही है कि केंद्रीय बैंक ज्यादा यथार्थवादी नजरिया अपनाए और इस तथ्य को स्वीकार करे कि ब्याज दरों में इजाफे से तेल व खाद्यान्न् संबंधी महंगाई पर खास असर नहीं पड़ने वाला। ऐसा नजरिया दीर्घकाल में इंडस्ट्री और आम आदमी दोनों के लिए मददगार होगा।
Date:03-08-18
नियंत्रण केंद्रित नीति
संपादकीय
राष्ट्रीय ई-कॉमर्स नीति के मसौदे में कुछ ठोस बातें कही गई हैं। उदाहरण के लिए इस क्षेत्र के लिए एक अलग नियामक का गठन तथा वस्तु एवं सेवा कर फाइलिंग का केंद्रीकरण करना ताकि कागजी कार्यवाही को काफी हद तक कम किया जा सके। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को निपटाने के लिए अलग इकाई का गठन करके निवेश की गति को भी तेज किया जा सकता है। बहरहाल, इस नीति की मुख्य कमी इसका स्वरूप है। इसे कुछ इस तरह तैयार किया गया है कि यह इस क्षेत्र में वृद्घि को बल देने के बजाय इस पर कड़े नियंत्रण थोपे। रियायती मूल्य को लेकर तथाकथित सनसेट क्लॉज का विचार अपने आप में एक गलत विचार है और यह लाइसेंस राज के दिनों की याद दिलाता है, खासतौर पर सरकार द्वारा सूक्ष्म प्रबंधन किए जाने के मामले में। सरकार के पास ऐसी कोई दलील नहीं है जो मूल्य नियंत्रण व्यवस्था लागू करने को सही ठहरा सके या छूट पर उत्पाद बेचने की अवधि तय कर सके। ऐसा करना मुक्त बाजार के सिद्घांतों का उल्लंघन तो है ही, साथ ही यह अन्य प्रमुख क्षेत्रों की नीतियों के साथ भी विसंगतिपूर्ण है।
उदाहरण के लिए दूरसंचार सेवा प्रदाताओं को यह इजाजत दी गई कि वे भारी भरकम रियायत वाली योजनाएं पेश कर सकें। यहां तक कि उन्होंने एक तय अवधि तक नि:शुल्क सेवाएं भी मुहैया कराईं। यह दलील दी जा सकती है कि ई-कॉमर्स का क्षेत्र दूरसंचार की घटी कीमतों से लाभान्वित होने वाला एक प्रमुख क्षेत्र है और अगर उनकी बदौलत ई-कॉमर्स को मदद मिली है तो बाजार को यह लाभ आगे बढ़ाने देने में क्या हर्ज है? बुरी बात तो यह है कि इस नीति के आगमन से ई-कॉमर्स क्षेत्र की लागत में काफी इजाफा हो सकता है क्योंकि उसे डेटा भंडारण और प्रसंस्करण का काम स्थानीय स्तर पर करना होगा। डेटा और बिग डेटा एनालिसिस का काम ई-कॉमर्स को सफलतापूर्वक चलाने के लिहाज से अहम है। लेकिन हमारे देश में न तो सर्वर की क्षमता है और न ही जरूरी गति का ब्रॉडबैंड है जो कम लागत में प्रभावी और किफायती डेटा भंडारण और प्रसंस्करण सुविधाएं दे सके। जहां डेटा का स्थानीयकरण करना है उनसे जुड़ी मूल्य शृंखलाओं पर नए सिरे से काम करने की लागत भी कम नहीं है। इनमें से कोई सुरक्षा से जुड़े उन मसलों का हल नहीं करता है जो स्थानीयकरण से उभरेंगे।
इन्वेंटरी आधारित मार्केटिंग भी सही विचार नहीं है, हालांकि यह प्रथम दृष्टया प्रगतिशील नजर आता है लेकिन इसके साथ कई किंतु-परंतु जुड़े हुए हैं। इसमें कुछ अच्छी बातें भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए मूल्य शृंखलाओं का 100 फीसदी भारतीय होना। इन्वेंटरी आधारित विपणन की इजाजत केवल उन कंपनियों को देने की बात भी समझ से परे है जिनका स्थानीय प्रबंधन भारतीय हो और जिनमें 51 फीसदी अंशधारिता स्थानीय हो। भारतीयों के हित प्राथमिकता आधारित वोटिंग इक्विटी का प्रस्ताव भी पिछड़ा हुआ है। भुगतान की बात करें तो रुपे को बढ़ावा देना समझा जा सकता है लेकिन उपभोक्ताओं को यह इजाजत होनी चाहिए कि वे चाहें तो किसी भी अन्य पारदर्शी माध्यम से भुगतान कर सकें। देश के 700 अरब डॉलर के खुदरा बाजार में ई-कॉमर्स क्षेत्र की हिस्सेदारी बहुत मामूली है। अगर आर्थिक समीक्षा को संकेत मानें तो ई-कॉमर्स का आकार करीब 33 अरब डॉलर का है यानी खुदरा बाजार के 5 फीसदी से भी कम का। यह जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में है जहां हल्के नियमन अपनाए जाएं, बजाय कि इस क्षेत्र पर तमाम प्रतिबंध और सीमाएं लाद देने के। मसौदा नीति ऐसे प्रतिबंधों को बढ़ावा देती है।