News Clipping on 06-04-2019

क्या जरूरी है टीवी में औरतों को नागिन-चुड़ैल दिखाना ?

संपादकीय

मनोरंजन की भी अजीब परिभाषा है। या यूं कहें कि पैमाना है। ऐसी चीज, जिसमें घटना, कहानी सबकुछ शामिल है, जिसे देखकर या तो आपको बेहद खुशी महसूस हो या फिर आप अपनी भावनाएं रोक न पाएं और रोने लगें तो वह मनोरंजन है। लेकिन क्या इस मनोरंजन के लिए जरूरी है वो सबकुछ दिखाना जो बेहद नाटकीय हो और जिसका सच से कोई वास्ता ही नहीं है। वह जो दिमाग और दिल पर सिर्फ नकारात्मक असर डालता है? अफसोस यह है कि आज एक भी मनोरंजन चैनल ऐसा नहीं जिस पर कम से कम दो ऐसे धारावाहिक न आते हों जिनमें महिलाएं नागिन, चुड़ैल या भूत का किरदार न निभा रही हों। टीवी से सबसे बड़ी शिकायत यह है कि औरत के किरदार को अब भी 90 के दशक के मानकों में दिखाता है। जैसे अच्छी लड़की के रोल में सीधी सादी, चुप रहने वाली लड़कियां, जबकि तेज तर्रार महिलाओं को निगेटिव रोल में। यही नहीं यदि कोई लड़की कुछ मुकाम हासिल करती है तो उसके पीछे पति परमेश्वर या माता-पिता, सास-ससुर के सहयोग को बढ़ा चढ़ाकर दिखाते हैं।

क्या यह सचमुच जरूरी है? और यह क्यों संभव नहीं कि वह अपने बूते कुछ बड़ा लक्ष्य हासिल कर डाले। सवाल यह कि महिलाओं को जिस प्रोफेशनल रोल में ये बुद्धू बक्सा दिखाता है वे हमेशा सॉफ्ट रोल जैसे टीचर, डॉक्टर, डांसर या फैशन डिजायनर क्यों होते हैं। क्यों नहीं उन्हें सीईओ, जज के रोल दिए जाते हैं। और यदि दिए भी जाते हैं तो क्यों उस रोल के कहानी में आगे बढ़ने के लिए किसी पुरुष के सहारे की जरूरत होती है। जब किसी मजबूत फीमेल किरदार को हारता हुआ दिखाना होता है तो उस महिला किरदार के साथ दुष्कर्म की घटना को कहानी में लाया जाता है। क्या किसी महिला किरदार को कमजोर सिर्फ दुष्कर्म की घटना से ही दिखाया जा सकता है? क्यों टेलीविजन पर टीआरपी लूटने के लिए सेक्स और दुष्कर्म जैसी चीजों का सहारा लिया जाता है। कॉमेडी सीरियल्स की कामयाबी क्या ये साबित करने को नाकाफी है कि लोग हंसना चाहते हैं। भला हो कुछ ऑनलाइन सीरीज का जो इस लीग से हटकर कुछ अच्छा कंटेंट दिखा रही हैं। तो क्यों न हम वो चुने जो भावनाओं और मनोरंजन के लिए बेहतर हो। अगर हम सचमुच महिलाओं को आगे आता देखना चाहते हैं और उनकी भावनात्मक आजादी की कद्र करते हैं तो टेलीविजन सीरियल से इन किरदारों को मिटाना बेहद जरूरी है।


Date:06-04-19

चीनी चक्रव्यूह तोड़ने की जुगत

भारत को चाहिए कि वह वैश्विक महाशक्तियों व छोटे देशों के साथ सामरिक साझेदारी बढ़ाते हुए चीन के मंसूबे ध्वस्त करे।

डॉ. रहीस सिंह , (लेखक विदेश संबंधी मामलों के जानकार हैं)

चीन निरंतर अपनी आर्थिक ताकत के जरिए अपनी सैन्य शक्ति का दुनिया भर में विस्तार कर रहा है। वह विभिन्न् इनिशिएटिव्स के जरिए खासकर छोटे देशों को अपने कर्ज जाल में फंसा रहा है। उसकी इस ‘चेक डिप्लोमैसी के दक्षिण एशिया में दो प्रमुख उद्देश्य नजर आते हैं। पहला, उन देशों की अर्थव्यवस्था को चीन की अर्थव्यवस्था से जोड़ना और द्वितीय, इनके जरिए भारत को घेरना। ऐसे में अहम सवाल यही उठता है कि भारत चीन की इस घेरेबंदी को ध्वस्त करते हुए उसे किस तरह चुनौती दे सकता है? भारत को ऐसा क्या करना चाहिए, जिससे वह चीन की रणनीति को काउंटर करने में सफल हो सके?

आज यह चर्चा इसलिए क्योंकि चीन अब पाकिस्तान के ग्वादर और श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह से आगे बढ़कर बांग्लादेश के पायरा डीप-सी पोर्ट के जरिए भी भारत को रणनीतिक रूप से घेरने की तैयारी कर रहा है। उल्लेखनीय है कि उसने बांग्लादेश के साथ 60 करोड़ डॉलर (लगभग 4300 करोड़ रुपए) की एक बड़ी डील की है, जिसका उद्देश्य बांग्लादेश के पायरा बंदरगाह का निर्माण करना है। यह बंदरगाह सामरिक दृष्टि से बेहद अहम माना जा रहा है। कारण यह है कि इसके जरिए चीन भारतीय समुद्र तट के बेहद करीब पहुंच जाएगा। इस दिशा में संकेत तो उसी समय मिल गया था जब चीन ने दिसंबर 2016 में अपने जियोपॉलिटिकल इकोनॉमिक कॉरिडोर यानी ‘वन बेल्ट, वन रोड के साथ बांग्लादेश को जोड़ने हेतु एक समझौता किया था। दरअसल यह चीन की ‘चेक डिप्लोमैसी का परिणाम है जिसके जरिए वह दक्षिण एशियाई देशों से लेकर पूर्वी एशिया, मध्य एशिया और यहां तक कि अफ्रीका में अपनी घुसपैठ बना रहा है। हालांकि ऊपरी तौर पर चीन इन देशों के समक्ष अधोसंरचनात्मक विकास की काफी खुशनुमा तस्वीर पेश कर रहा है, लेकिन उसके झांसे में आते हुए ये देश ऐसे वित्तीय कुचक्र में फंसते जा रहे हैं, जिससे बाहर निकल पाना शायद उनके लिए संभव न हो।

मसलन, भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका पूरी तरह से चीन कर्ज जाल में फंस चुका है। अपनी आर्थिक बदहाली के चलते वह हम्बनटोटा सहित कई परियोजनाओं हेतु चीन से लिए गए ऋण को चुका पाने में असमर्थ है। फलत: चीनी ब्याज अब इक्विटी में बदल रहा है, जिससे श्रीलंका की घरेलू परियोजनाओं में चीन की हिस्सेदारी बढ़ रही है। इन परियोजनाओं में हिस्सेदारी से चीन को श्रीलंकाई आर्थिक संसाधनों से जुड़ने के साथ-साथ हिंद महासागर में अपनी सामरिक ताकत बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो रहा है। यही स्थिति नेपाल की है। चीनी ऋण पर ब्याज न चुका पाने के कारण नेपाल के एक बड़े बांध में चीन की कंपनी ने 75 प्रतिशत हिस्सेदारी (इक्विटी) खरीद ली है। पाकिस्तान का तो कहना ही क्या। पाक का यह सदाबहार दोस्त वहां ग्वादर बंदरगाह को पा चुका है और चीन-पाक आर्थिक गलियारे (सीपेक) के जरिए अपने दोहरे उद्देश्य को पूरा करने की स्थिति में पहुंच रहा है।

चीन इसी प्रकार कंबोडिया, म्यांमार, लाओस, थाईलैंड आदि से लेकर अफ्रीकी देशों को भी अपना शिकार बना रहा है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों को ऋण जाल में फंसाकर वह दक्षिण चीन सागर में अपनी स्थिति मजबूत करना करना चाहता है ताकि वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत-अमेरिका-जापान के सामरिक त्रिकोण और इसमें ऑस्ट्रेलिया को भी शामिल कर लें तो इनके चतुष्कोण से से निपट सके। चीन हिंद महासागर में स्थित जिबूती में सैन्य अड्डे के निर्माण के साथ अधोसंरचनात्मक विकास कर रहा है और इसके लिए उसने जिबूती को 14 बिलियन डॉलर का कर्ज दिया है। दरअसल मंडेब स्ट्रेट (जलडमरूमध्य) और स्वेज नहर के कारण जिबूती रणनीतिक एवं व्यापारिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है या यूं कहें कि हिंद महासागर में वैश्विक शक्ति-संतुलन में यह निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

ऐसा नहीं कि भारत चीनी रणनीति को काउंटर करने में सक्षम नहीं है। लेकिन भारतीय विदेश नीति का गहराई से अध्ययन करें तो पाते हैं कि यह ट्रैक बदलती रहती है। कभी-कभी यह ‘फॉरवर्ड ट्रैक पर चलते-चलते ‘ट्रैक बैकहो जाती है। इधर प्रधानमंत्री द्वारा चीन और रूस की औपचारिक यात्राओं को देखकर लगा कि भारत फॉरवर्ड ट्रैक से ‘पॉलिसी ऑफ रीसेटका अनुसरण करने लगा है। बीते कुछ वर्षों में भारत ने कई फॉरवर्ड स्टेप लिए, जिससे चीन दबाव महसूस करते हुए दिखा, विशेषकर डोकलाम के मामले में। दूसरा दबाव तब देखने को मिला जब उसने ब्रिक्स सम्मेलन में कुछ आतंकी समूहों (जिनमें जैश-ए-मोहम्मद भी शामिल था) की आलोचना वाले संयुक्त घोषणा-पत्र पर दस्तखत किए। भारत ने अमेरिका के साथ लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (लिमोआ) हस्ताक्षरित किया, जिसके बाद अमेरिका ने यह घोषणा की कि भारत उसका बड़ा डिफेंस पार्टनर है। इसके अलावा भारत ने ईरान के चाबहार और सेशेल्स के एजंप्शन बंदरगाह को हासिल कर चीन के ग्वादर-जिबूती लिंक को कुछ हद तक कमजोर करने में सफलता पाई। भारत की कूटनीति के फलस्वरूप श्रीलंका में मैत्रीपाला सिरिसेना सत्ता में आए और महिंदा राजपक्षे की चीन-समर्थक नीति पर विराम लगा। हालांकि अब सिरिसेना भी चीन की गोद में जाते दिख रहे हैं। मालदीव में अवश्य ही मुहम्मद इब्राहिम सोलिह की नई सरकार अभी भारत को तरजीह देने की राह पर चल रही है, लेकिन हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आगे भी उसका यही रुख बरकरार रहे।

चीन को घेरने के लिए जो सबसे जरूरी पक्ष है, वह है महाशक्तियों और छोटे देशों के साथ सामरिक साझेदारी। भारत छोटे देशों के साथ सामरिक साझेदारी में चीन के मुकाबले इसलिए कमजोर पड़ जाता है, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था चीन की तुलना में काफी छोटी है। स्वाभाविक है कि भारत छोटे पड़ोसी देशों की आर्थिक जरूरतें उस तरह से पूरी नहीं कर सकता, जिस तरह से चीन करने में सक्षम है। ऐसे में भारत के लिए जरूरी है कि भारत बड़ी शक्तियों के साथ साझेदारी करे विशेषकर अमेरिका, ईयू और रूस के साथ। इस दिशा में भारत का हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वैड (सामरिक चतुर्भुज) निर्माण बेहद महत्वपूर्ण है, जो भले ही घोषित तौर पर कनेक्टिविटी और मैरिटाइम सिक्योरिटी अथवा यूनिवर्सल एक्सेस ऑफ ब्लू वाटर इकोनॉमी संबंधी उद्देश्य रखता हो लेकिन हकीकत यह है कि इसमें शामिल चारों देश भारत, अमेरिका, जापान व ऑस्ट्रेलिया एक ‘बिग जियो-स्ट्रेटेजिक कोऑपरेशन का निर्माण कर सकते हैं, जिसका एक मकसद चीन को घेरना हो। हालांकि भारत एक तरफ शंघाई सहयोग संगठन में शामिल हुआ है और दूसरी तरफ इस क्वैड में, जबकि दोनों के उद्देश्य एक-दूसरे के विपरीत हैं। भारत को ऐसे विरोधाभासों से निपटना होगा।

बहरहाल, जैश के सरगना मसूद अजहर पर अमेरिकी प्रयास और भारत की कूटनीति इतनी तो सफल दिख रही है कि चीन दुनिया के सामने स्पष्ट जवाब देने की नैतिकता नहीं दिखा पा रहा है। यह तस्वीर और बड़ी हो, इसलिए जरूरी है कि भारत सामरिक व रणनीतिक कूटनीति के ऐसे स्थायी आयामों का विकास करे जिससे भारत को ‘ट्रैक बैक या रीसेट का सहारा न लेना पड़े। फिलहाल इतना समझ लें कि अमेरिका ‘जियो-स्ट्रेटेजिक बॉन्डिंग के लिए और पश्चिमी दुनिया ‘लुक ईस्ट के लिए भारत की ओर देख रही है।


Date:06-04-19

विदेश नीति की गतिशीलता का तकाजा

हर्ष वी पंत , (लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं )

भारत में चुनाव अभियान गति पकड़ रहा है। वैसे तो चुनाव में तमाम मुद्दे उठाए जा रहे हैं, लेकिन उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुद्दा ही सभी पर हावी है। वह जिन लोगों की आंखों में खटकते रहे हैं वे एक बार फिर उनके विरोध में लामबंद हो रहे हैं तो दूसरी ओर जो लोग उन्हें अपना आदर्श मानते हैं वे उन्हें दोबारा सत्ता तक पहुंचाने के लिए पूरी कोशिशों में जुटे हैं, मगर इन चुनावों को दुनिया टकटकी लगाए देख रही है। भारत में भले ही लोग मोदी को पसंद या नापसंद करें, लेकिन इस तथ्य को नहीं झुठलाया जा सकता कि उन्होंने भारतीय विदेश नीति को ऐसी नई दिशा दी जो पहले कभी नहीं दी जा सकी। भारत को वैश्विक फलक पर आगे बढ़ाने में मोदी कितने प्रभावशाली रहे हैं, इसकी तुलना जवाहरलाल नेहरू से की जा सकती है।

प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को एक नई आवाज दी है। यह आवाज भी पुराने भारत की आवाज से अलग है। इस तरह मोदी ने यह सुनिश्चित किया कि पूरी दुनिया भारत की उमीदों और आकांक्षाओं पर ध्यानपूर्वक गौर करे। वह वैश्विक जगत को आतंकवाद जैसे मुद्दों पर सोचने के लिए उन्मुख करने में सफल रहे हैं। यह मसला भारत के लिए बेहद अहम रहा है। इसी तरह वह जलवायु परिवर्तन जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी भारत की संकोची किस्म की प्रतिक्रिया को भी भारतीय हितों के हिसाब से आत्मविश्वास के भाव से भरने में सक्षम रहे हैं। मोदी ने एक तरह अकेले अपने दम पर भारत की उस खोई जमीन को फिर से हासिल किया जो संप्रग के दूसरे कार्यकाल में नीतिगत पंगुता के कारण दरक गई थी। अगर किसी अन्य बात के लिए नहीं तो कम से कम इस महत्वपूर्ण उपलब्ध के लिए ही उन्हें श्रेय दिया जा सकता है। पांच साल पहले दुनिया भारत से एक तरह नाउमीद सी हो गई थी, लेकिन वह भारत में फिर से संभावनाएं देखने लगी है। उमीद है कि भारत जमीनी स्तर पर कदम उठाकर इस मोर्चे पर खरा उतर सकता है।

चुनावी दौर में चर्चा मुख्य रूप से पाकिस्तान के इर्दगिर्द ही रहेगी, लेकिन मोदी की विदेश नीति व्यापक रूप से चीन के उभार से निपटने पर ही केंद्रित रही है। भारत जिन हकीकतों से दो-चार है उनमें चाहे कोई भी सरकार रहे, उसे चीन की चुनौती का तोड़ निकालने पर मजबूर होना ही पड़ेगा। समय के साथ इसमें और तेजी आएगी। चुनाव के बाद चाहे जिसकी भी सरकार बने उसे चीन के उभार की चुनौती से निपटना ही होगा। चाहे भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में प्रवेश का मसला हो या फिर संयुत राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा जैश ए मुहमद के मुखिया मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कराने का प्रस्ताव हो, उनमें चीन लगातार अड़ंगा लगाकर यही दर्शाता आया है कि भारत के रणनीतिक परिदृश्य को वह कितने नाटकीय रूप से प्रभावित कर रहा है। चीन की पहेली सुलझाने में मोदी ने दक्षता दिखाई है। उन्होंने डोकलाम में चीन के खिलाफ डटे रहने और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ का दुनिया में सबसे पहले विरोध करने का दम दिखाया। इसके बाद उन्होंने वुहान में चीनी नेतृत्व से वार्ता भी की। जब भारत अपने रणनीतिक परिदृश्य पर गौर करता है तो सत्ता में चाहे जो दल मौजूद हो तो उसके नेतृत्व के लिए चीन की चुनौती की अनदेखी आसान नहीं दिखती। बीते दो दशकों में समय से इसका आकलन न करने के कारण नई दिल्ली पहले ही काफी समय बर्बाद कर चुकी है। भारत इसे लेकर और लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर सकता। पूरब और पश्चिम की ओर भारत के बढ़ते कदम मुख्य रूप से चीन की बढ़ती पैठ से निपटने का ही परिणाम हैं। इसके लिए उसे समान विचार वाले देशों के पूर्ण सहयोग की दरकार होगी।

मोदी ने पश्चिम विशेषकर अमेरिका को लेकर भारत की परंपरागत तटस्थता वाली नीति को तिलांजलि दी। अमेरिका के साथ उनकी सरकार की सक्रियता इसी विचार के साथ आगे बढ़ी कि भारत और अमेरिका अतीत की हिचक को पीछे छोड़कर आर्थिक-सामरिक रिश्तों को नई ऊंचाई देने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इसी तरह चीनी आक्रामकता को जवाब देने के लिए अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे देशों की चौकड़ी का फिर से उभार भी इन देशों के नेताओं की उस हिचक को दूर करता है कि ऐसा करने से कहीं चीन कुपित न हो जाए। चीनी भावनाएं आहत करने वाली दलील अब व्यावहारिक नहीं रह गई है।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आसियान पर जोर को लेकर मोदी इसी बात को अभिव्यत कर आसियान देशों की उसी चिंता को दूर करने की कोशिश करते हैं कि अगर उन्होंने सही रणनीति नहीं अपनाई तो उनका यह इलाका बड़ी शतियों के बीच खींचतान का अखाड़ा बन जाएगा। इस कड़ी में पूर्वी एवं दक्षिणपूर्वी एशिया के साथ भारत की सक्रियता बढ़ाने को लेकर वह भारत के पूर्वी पड़ोसियों के साथ सांस्कृतिक जुड़ाव पर भी जोर देते हैं। जहां बंगाल की खाड़ी की ओर भारत अपने रणनीतिक भौगोलिक पहलुओं पर नए सिरे से विचार कर रहा है तो इससे पूर्वोत्तर भारत के माध्यम से दक्षिणपूर्व एशिया को निर्बाध रूप से जोड़ा जा सकता है। इससे भारत के अनूठे भूगोल और दक्षिणपूर्व एशिया की वृद्धि की रफ्तार का लाभ उठाया जा सकता है।

भारत के लिए अभी भी पश्चिमी हिंद महासागर सर्वाधिक महत्व वाला है। विशेषकर अमेरिका जैसी शतियों की तुलना में भारत के लिए इसकी कहीं अधिक अहमियत है। मोदी इस क्षेत्र में भारत की केंद्रीय भूमिका चाहते हैं। यह क्षेत्र उनके अनुसार अफ्रीका के तटों से लेकर अमेरिका तक फैला हुआ है। पश्चिमी एशिया में भारत की गहरी होती पैठ और बढ़ती कूटनीतिक सक्रियता के साथ ही दक्षिणपूर्व एशिया एवं अफ्रीका के बीच संपर्क बढ़ाने की कोशिशों से यह रणनीति जाहिर भी होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी की विदेश नीति बड़ी असरदार और गतिशील रही है। बड़ा सवाल यही है कि या चुनाव नतीजों के बाद भी यह निरंतरता कायम रह सकती है? क्षमताओं में कमी और नतीजे देने को लेकर उठने वाले सवालों से भारत का जूझना जारी रह सकता है। अगर विदेश नीति में मौजूदा गतिशीलता को कायम रखना है तो नई सरकार को एकनिष्ठ होकर इन पहलुओं पर काम करना होगा।