News Clipping on 09-08-2018
Date:09-08-18
Curb Child Abuse
Deoria, Muzaffarpur shelter home abuse cases highlight governance deficit
TOI Editorials
Coming on the heels of the Muzaffarpur shelter home abuse case – which has elicited sharp comment from the Supreme Court on the culpability of the Bihar government – a women’s shelter home in Deoria, UP, has proved to be another house of horror after a 12-year-old inmate escaped and reached the police. The child indicated that girls at the shelter were being physically and sexually abused with the complicity of the manager. Further, the home was running illegally as the state’s women and child welfare department had suspended its licence in July last year after a CBI report found financial irregularities.
Many of these homes are run by NGOs with political connections. As exemplified by the Muzaffarpur case, the home was run by someone who also owned a few local newspapers and used his contacts to get grants for his NGO. In Deoria it’s extraordinary that the home was allowed to function, and local police continued to send girls to it, despite its licence being suspended. All of this points to a nexus between those running such homes, police and government officials. It also exposes a glaring lack of administrative oversight that homes have become tools to obtain government grants while inmates are abused and exploited.
This calls for a thorough review of the shelter home system in the country. Homes should be places where destitute children find succour in a protective environment. They ought to be linked to schools, run by trained staff and have access to qualified counsellors, doctors and educators. The unfortunate part is that provisions exist, but due to lack of proper supervision most homes have become places of despair. Hence the problem can’t be solved through enacting new laws. Implementation, administrative action and proper oversight by concerned ministries are the need of the hour. The Centre has done well by calling for a social audit of all 9,000 child shelters in the country.
What we are witnessing with shelter homes is symptomatic of India’s poor governance in general. It’s not a coincidence that both Bihar and UP where the horror homes were unearthed score poorly on the administrative index. It’s time authorities did the heavy lifting, reformed internal processes and established a clear chain of administrative accountability. Otherwise, horror homes will continue to mushroom and unscrupulous elements continue to exploit children.
Date:09-08-18
Indra Nooyi: Lone Star or Role Model?
ET Editorials
In 2006, when Indra Nooyi took over as the CEO of PepsiCo, she shattered the glass ceiling for immigrants and women, becoming one of the world’s most powerful corporate executives heading a business with a billion-plus dollar revenue. At that time, Nooyi was one of fewer than a dozen women at the helm of America’s 500 largest companies. Under her stewardship, PepsiCo navigated an economic recession, withstood challenges from activist investors, and increased public and policy awareness on issues such as obesity and environmental protection.
Even as she navigated through these challenges, the company’s revenues rose from $35 billion to more than $63 billion, and its share price increased by about 80%. Nooyi led PepsiCo to environmental responsibility: reducing water usage and the carbon footprint, and increasing recycling. She also pioneered the embrace of healthier products — expanding the range from ‘fun’ to ‘better and good’. Those achievements notwithstanding, Nooyi’s rise has not pushed a crowd of women to the pinnacle of corporate America.
Nooyi’s exit comes close on the heels of the departure of several other women CEOs. Inspirational as her rise has been for Indians and for women in particular, there is no easy route to greater woman power at the top of company boards. Nooyi is famous for saying that a woman cannot have it all, meaning women have to sacrifice personal life for achieving professional success. This would remain the case, so long as stereotypes of men’s and women’s roles within the family remain intact. Women do far more of housework, looking after children and aged relatives than men do. If men could bring themselves to take on half the load of such work, we could see more Nooyis rise.
Date:09-08-18
गलत सलाह
संपादकीय
दूरसंचार विभाग ने कहा है कि वह आपातकालीन परिस्थितियों में व्हाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम और टेलीग्राम आदि ऐप्स को ब्लॉक करने पर विचार कर रहा है। खासतौर पर उस समय जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा और सामान्य व्यवस्था को किसी तरह का जोखिम हो। इस विषय में विभाग ने दूरसंचार सेवा प्रदाताओं और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को पत्र लिखा है और यह लक्ष्य प्राप्त करने के विषय में उनका नजरिया जानना चाहा है।
आमतौर पर विभाग वेबसाइट या यूआरएल ब्लॉक करने के निर्देश तब भेजा करता है जब उसे अदालतों द्वारा इस बारे में निर्देश दिया जाता है या फिर जब इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय उसे ऐसा करने को कहता है। ब्लॉक करने की कार्रवाई सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और टेलीग्राफ अधिनियम के अधीन की जाती है। विभाग द्वारा ऐसे ऐप्लीकेशन पर प्रतिबंध लगाए जाने की सोच के पीछे ताजा वजह देश भर में हो रही लिंचिंग (भीड़ द्वारा लोगों को मारा जाना) की घटनाएं जिम्मेदार हैं। इन घटनाओं के लिए आमतौर पर सोशल मीडिया माध्यमों पर प्रसारित फेक न्यूज जिम्मेदार हैं।
ऐसी घटनाएं त्रासद तो हैं ही, ये हमें देश में कानून व्यवस्था की खराब स्थिति के बारे में भी बताती हैं। बहरहाल, यह केवल कानून व्यवस्था का मसला नहीं है। अगर इससे निपटने के लिए सरकार सेंसरशिप अपनाती है, वेबसाइटों या ऐप्स पर प्रतिबंध लगाती है तो यह कतई सही नहीं होगा। फेक न्यूज भडक़ाने का काम करती है और जहां ये खबरें तेजी से फैलती हैं, वहां इन मंचों पर करीब नजर रखना जरूरी है लेकिन हिंसा की इन घटनाओं के लिए ऐसे तकनीकी मंचों को जिम्मेदार ठहराए जाने का अर्थ यह है कि सरकार हमारे समाज में बढ़ती कट्टïरता की अनदेखी कर रही है। इन सामाजिक कमियों को दूर करने की शुरुआत राजनीतिक संदेशों से होनी चाहिए। इसके बजाय सरकारी विभाग अगर तकनीक और उससे जुड़ी कंपनियों को निशाने पर लेते हैं तो इसे कतई सही नहीं कहा जा सकता है। इसकी भी कई वजह हैं।
मिसाल के तौर पर ऐसा प्रतिबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हनन करता है। इसके अलावा यह देश की आधुनिक समाज होने की छवि को भी धक्का पहुंचाएगी। एक ऐसा समाज जो लोकतांत्रिक सिद्घांतों की कद्र करता है और उनका संरक्षण करता है। अगर सरकार प्रतिबंध लगाती है तो वह संकट पैदा करने वाले चंद लोगों को रोकने के लिए उन लाखों उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचाएगी जो इन माध्यमों का समुचित इस्तेमाल करते हैं। उद्योग जगत के अनुमानों के मुताबिक वर्ष 2012 से 2017 के बीच इंटरनेट बंद किए जाने से देश की अर्थव्यवस्था को 3 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। जम्मू कश्मीर तथा राजस्थान में लगे प्रतिबंध कुछ ताजा उदाहरण हैं। कड़वी हकीकत यह भी है कि मौजूदा दौर में ऐसे प्रतिबंध को लागू करना आसान नहीं है। इनमें से अधिकांश ऐप्स की होस्टिंग देश के बाहर है। बाजार में वर्चुअल प्राइवेट नेटवक्र्स (वीपीएन) की बाढ़ है जिनकी मदद से उपभोक्ता ब्लॉक की गई सामग्री को आसानी से खोल सकते हैं। यह भी सच है कि ऐसे प्रतिबंध से सबसे अधिक नुकसान आम लोगों को होगा जिनका शायद फेक न्यूज या हिंसा से कोई लेनादेना नहीं होगा।
ऐसे कदम उठाते वक्त इस बात की अनदेखी कर दी जाती है कि उद्योग जगत स्वनियमन और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के दुरुपयोग को रोकने के लिए कितनी मेहनत कर रहा है। उदाहरण के लिए व्हाट्स ऐप ने कुछ सुधार किए हैं जिनके बाद फेक न्यूज का प्रसार करना कठिन होगा। सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह ऐप्स पर प्रतिबंध लगाने के बजाय संबंधित कंपनियों के साथ मिलकर काम करे।
Date:09-08-18
मरीना का समुद्र तट और करुणानिधि की जगह
अन्नाद्रमुक सरकार नहीं चाहती थी कि करुणानिधि को वहां दफनाया जाए, जहां जे. जयललिता को दफनाया गया है
संपादकीय
अच्छा हुआ कि मद्रास हाई कोर्ट ने भारतीय राजनीति के दिग्गज मुत्तूअल करुणानिधि को चेन्नई के मरीना समुद्र तट पर दफनाए जाने की इजाजत दे दी और तमिलनाडु अप्रिय घटनाओं से बच गया। राज्य की अन्नाद्रमुक सरकार नहीं चाहती थी कि करुणानिधि को वहां दफनाया जाए, जहां उनके नेता सी. अन्नादुराई और सहयोगी और प्रतिद्वंद्वी मरुदूर गोपालन रामचंद्रन और जे. जयललिता को दफनाया गया है। राज्य सरकार मौजूदा और पूर्व मुख्यमंत्री के अंतर की दलील देकर कह रही थी कि यह प्रोटोकाल तो स्वयं करुणानिधि ने तय किए थे।
बात सिर्फ पूर्व और मौजूदा मुख्यमंत्री होने की ही नहीं उस विचारधारा की भी थी, जिसका प्रतिनिधित्व करुणानिधि करते थे। सरकार उन्हें सरदार पटेल रोड पर गांधी मंडपम के पास जगह देने को तैयार थी, जहां गांधीवादी आंदोलन के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सी. राजगोपालाचारी, के. कामराज और भक्तवत्सलम की समाधियां हैं। जबकि द्रमुक कार्यकर्ता चाहते थे कि उन्हें वहां दफनाया जाए जहां ब्राह्मणवाद, आस्तिकता और उत्तर भारतीय प्रभुत्व के विरोधी नेता अन्नादुराई दफनाए गए थे। हालांकि इस कतार के सबसे बड़े नेता और सबके गुरु रामास्वामी नाइकर को वहां नहीं दफनाया गया था। विवाद में संविधान में दिए गए समानता के अधिकार के अनुच्छेद 14 की मदद ली गई, जो कि अपने में बेमतलब था। असली सवाल उस प्रतीकात्मकता का है, जिसे द्रविड़ आंदोलन की विरासत के तौर पर द्रमुक के नेता और उनके बेटे एमके स्तालिन जिंदा रखना चाहते हैं। हालांकि मूर्ति पूजा, अंधविश्वास और पाखंड विरोधी उस आंदोलन की विरासत में दफनाए जाने की जगह को लेकर कोई खास आग्रह होना नहीं चाहिए था।
वे हिंदू धर्म और उसकी जातियों के संस्कार को नहीं मानते थे और कहते भी थे कि क्या हिंदू नाम का कोई धर्म भी है? इस तरह करुणानिधि अपने जीवन और मृत्यु में भी उस हिंदू राष्ट्रवाद के लिए एक चुनौती प्रस्तुत करते हैं जो सभी को हिंदू संस्कृति में रंग कर भारतीय राष्ट्रवाद का सृजन करना चाहता है। वह चुनौती अगर लिंगायतों में है तो द्रविड़ आंदोलनों में भी रही है। करुणानिधि की राजनीति में जहां सामाजिक परिवर्तन का आह्रान था, वहीं सामाजिक कल्याण की योजनाओं के माध्यम से एक राज्य को समता और समृद्धि देने का स्वप्न भी था। तमिलनाडु में उस मॉडल की चमक बनी रहे यही उन्हें सच्ची श्रध्दांजलि होगी।