News clipping on 17-08-2018

Date:17-08-18

मनरेगा मजदूरी तय करने के तरीके बदलने होंगे

रनेन बनर्जी पार्टनर एवं लीडर,पीडब्लूसी इंडिया

मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी में हुए ताजा संशोधन पर गौर करें तो एक बार फिर इसमें मामूली बढ़ोतरी ही हुई है। एक अप्रैल 2018 से लागू हुए नोटिफिकेशन के मुताबिक देश के 29 में से 15 राज्यों में यह पांच रुपए से भी कम बढ़ी है। मप्र, गुजरात, महाराष्ट्र में महज 2-2 रुपए बढ़ी है। इसका आंकड़ा क्रमश: 172 रुपए, 192 रुपए और 201 रुपए तक ही पहुंच पाया है। वहीं बिहार, झारखंड, राजस्थान और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां इसमें कोई इजाफा नहीं हुआ है। बिहार, झारखंड में यह 168 रुपए है। राजस्थान में 192 रुपए और यूपी में 175 रुपए पर स्थिर रही है। इसके बाद मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी तय करने की पद्धति में बदलाव करने की जरूरत बढ़ गई है। इस बारे में दो मुद्दे काफी अहम हैं। पहला, राज्यों के बीच न्यूनतम कृषि मजदूरी और मनरेगा मजदूरी में अंतर बहुत ज्यादा है। पिछले कुछ साल में यह अंतर तेजी से बढ़ा है। 2017 में कृषि मजदूरी की औसत दर 263 रुपए थी, जबकि मनरेगा मजदूरी की दर 198 रु. थी।

पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु़ जैसे राज्यों में तो यह अंतर 100 रुपए से भी अधिक है। 2009 में राज्यों की न्यूनतम कृषि मजदूरी की दर को मनरेगा के अनुरूप किया गया था। लेकिन राज्यों के बीच मजदूरी तय करने में एकरूपता नहीं होने से समय के साथ अंतर फिर बढ़ गया। मनरेगा की मजदूरी ‘ग्रामीण मजदूरों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ (सीपीआई-एएल) से जुड़ी हुई है। जबकि राज्य न्यूनतम कृषि मजदूरी तय करने के लिए विभिन्न सूचकांक इस्तेमाल करते हैं। मसलन, बिहार ने इसे सीपीआई-ऑल इंडिया से जोड़ रखा है। खेती से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों से भी मजदूरी में अंतर आ जाता है। इस कारण भी राज्यों के द्वारा मजदूरी तय करने के लिए एक समान तरीका अपनाने की जरूरत नजर आती है ताकि न्यूनतम कृषि मजदूरी और मनरेगा मजदूरी एक-समान हो पाएं।

दूसरा अहम मुद्दा मनरेगा मजदूरी की महंगाई दर का सीपीआई-एएल से जुड़ा होना है। इससे भी मनरेगा की मजदूरी में साल-दर-साल कम बढ़ोतरी हो रही है। सीपीआई-एएल एनएसएसओ सर्वे-1983 के खपत बास्केट पर आधारित है। यह इंडेक्स ग्रामीण परिवारों से संबंधित है जिनकी ज्यादातर आय कृषि से जुड़ी गतिविधियों से होती है। यह मनरेगा तय करने के लिए उचित आधार नहीं हो सकता क्योंकि मनरेगा के तहत सरकार वाटर हार्वेस्टिंग, सिंचाई, सड़क निर्माण आदि जैसे काम कराती है। सीपीआई-एएल के तहत खपत बास्केट का तरीका भी पुराना पड़ चुका है क्योंकि इसमें कई साल से खर्च के तरीकों में आए बदलाव को शामिल नहीं किया गया है। दूसरी तरफ, सीपीआई-रूरल इंडेक्स के तहत खपत बास्केट 2004-05 के आंकड़ों पर आधारित है। इसे सभी ग्रामीण परिवारों पर लागू किया जा सकता है। इसे अपनाने से ग्रामीण क्षेत्रों में महंगाई के बेहतर आंकड़े मिल सकते हैं। लेकिन पुराने तरीके की वजह से पिछले तीन साल के दौरान सीपीआई-एएल की महंगाई दर आंशिक रूप से सीपीआई-रूरल की महंगाई दर से कम रही है। मनरेगा मजदूरी में हुई मामूली बढ़ोतरी की एक वजह यह भी है। मनरेगा का उद्देश्य ग्रामीणों को उनके ही गांव में रोजगार से जोड़कर क्षेत्र से पलायन रोकना है। लेकिन पिछले कुछ साल में मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी में मामूली बढ़ोतरी होने से इस कानून का मुख्य उद्देश्य हासिल नहीं हो पाया है। यह सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ है जिसमें किसी श्रमिक को न्यूनतम मजदूरी से कम भुगतान को बंधुआ मजदूरी जैसा बताया गया है।


Date:17-08-18

राजनीति में इंसानियत के हिमायती अनूठे राजनेता

शशि थरूर, (शशि थरूर विदेश मामलों की संसदीय समिति के चैयरमैन)

सबसे लंबी आयु तक जीये देश के पूर्व प्रधानमंत्री 93 वर्ष की उम्र में हमसे विदा हो गए। लेकिन, उनके खराब स्वास्थ्य ने देश को उनकी संत जैसी सलाहों से करीब एक दशक तक वंचित रखा और अब तो वे रहे ही नहीं। जब से वे राष्ट्रीय मंच से ओझल हुए हैं वैसी मधुर वक्तृत्व कला, प्रखर हाजिरजवाबी और हंसती हुईं आंखें दिखाई नहीं दी है। कई लोग उनके प्रधानमंत्रित्व, पहले जनसंघ व बाद में भाजपा को दिए उनके राजनीतिक नेतृत्व, दोनों को उन्होंने कैसे राष्ट्रीय स्तर पर पूरी ऊर्जा के साथ ऊपर उठाया, इसकी बात करेंगे। किंतु । अटल बिहारी वाजपेयी को जो चीज अलग करती है वह है इंसानियत।

एक ऐसे वक्त जब भाजपा निष्ठुरता से पूरी तरह केंद्रित होकर सत्ता हासिल करने और दूसरों को दरकिनार कर सत्ता को आजमाने की पर्यायवाची हो गई है, वाजपेयी अधिक उदार व सौन्य युग की याद दिलाते हैं। उनके लिए ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसी कोई बात नहीं थी। जब वे 1977 में देश की पहली गैर-कांग्रेस सरकार में विदेश मंत्री बने तो उन्होंने पाया कि विदेश मंत्री के कक्ष से नेहरू का चित्र हटा दिया गया है। वे आजीवन कांग्रेस के आलोचक रहे पर उन्होंने नेहरू के चित्र को निर्धारित जगह पर वापस लगाने का आदेश दिया। यह अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का मूल था- उनका उदार हृदय होना। वे उन लोगों को भी गले लगा लेते थे, जिनसे वे असहमत होते। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जिन राष्ट्रीय राजमार्गों की कल्पना की, उनका निर्माण कराया, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने ग्रामीण क्षेत्र की कनेक्टिविटी बढ़ाने में जैसा योगदान दिया, वह हमेशा याद किया जाएगा। लेकिन, मैं उन्हें पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने के उनके असाधारण और अंत में नाकाम रहे प्रयासों के लिए याद करूंगा। मोरारजी देसाई की सरकार में अनपेक्षित रूप से विदेश मंत्री बनाए गए वाजपेयी ने पूरी गरिमा और संकल्प के साथ नेहरू युग की विदेश नीति को अमल में लाकर कई लोगों को चकित कर दिया था। इसी तरह फरवरी 1999 में लाहौर बस यात्रा की उनकी नाटकीय पहल और मिनार-ए-पाकिस्तान पर अपने पूर्वग्रह छोड़कर दिए उनके आंदोलित करने वाले भाषण ने कई लोगों को चौंका दिया। यह एक बहुत साहसी मुद्रा थी, जिसका जोखिम हिंदुत्व की बेदाग पहचान वाला नेता ही ले सकता। लेकिन, ‘लाहौर की वह भावना’ जल्दी ही करगिल की बर्फ में दफन हो गई, क्योंकि पाकिस्तानी फौज ने शांतिदूत को धोखा दे दिया। इससे विचलित हुए बगैर वाजपेयी ने नए सैन्य शासक जनरल मुशर्रफ को 2001 में आगरा में चर्चा के लिए आमंत्रित किया। लेकिन, संसद पर हुए हमले के बाद जब वह प्रयास भी नाकाम रहा तो भी 2003-04 में उन्होंने अंतिम राजनयिक प्रयास किया

जब वाजपेयी को पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने के लिए बार-बार के प्रयासों के लिए चुनौती दी गई तो उन्होंने स्मरणीय शब्दों में प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि आप इतिहास तो बदल सकते हैं पर भूगोल नहीं। पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है, आपको उसके साथ जीना होगा। इसी तरह उन्होंने कश्मीरी अलगाववादियों से भी संवाद शुरू किया था। जब कहा गया कि भारतीय संविधान के तहत वे किसी सुलह पर बातचीत नहीं करेंगे तो उन्होंने सुझाव दिया कि बातचीत ‘इंसानियत’ के तहत शुरू हो सकती है।

इंसानियत उनकी कविता, उनके व्यक्तिगत उद्‌गारों और गाहेबगाहे उनके भाषणों में दिखती थी, जो अपने आप में मास्टरपीस होते थे, जिन्हें बड़ी खूबी से बयान किया जाता था। यह मेरा दुर्भाग्य है कि उनके कॅरिअर के आखिर में उनसे मेरा परिचय हुआ, जब मैं संयुक्त राष्ट्र का उप महासचिव था तो संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक में उनके भाषण के पहले मेरे प्रधानमंत्री से मेरी वार्षिक मुलाकात होती थी। मैंने उन सालाना संक्षिप्त मुलाकातों का पूरा आनंद लिया। 2006 में संयुक्त राष्ट्र में महासचिव बनने के लिए जब मैंने फोन करके उनसे शुभकामनाएं मांगी तो उन्होंने जो आशीर्वचन व्यक्त किए उन्हें मैं हमेशा दिल में संजोकर रखूंगा।

अपने योगदान के कारण वाजपेयी भारत को बेहतर स्थिति में छोड़कर जा रहे हैं। उनके अनूठे सर्वशिक्षा अभियान ने प्राथमिक शिक्षा में महत्वपूर्ण निवेश किया, आर्थिक सुधारों में उनके नेतृत्व, अराजक से गठबंधन का कुशल प्रबंधन ने प्रधानमंत्री के रूप में उनके छह साल के कार्यकाल को स्मरणीय बना दिया। पर इन विशिष्ट उपलब्धियों से अधिक महत्व इस बात का है कि वाजपेयी ने उन्हें कैसे हासिल किया। उनका सौम्य, धैर्यशील रवैया, उनकी शाश्वत सौजन्यता, व्यवहार की गरिमा और सबको अपने दायरे में लेने वाली उनकी मानवीयता ने एक महान विरासत पीछे छोड़ी है। यह ऐसी विरासत है जिसे ऐसे युग में और भी अधिक याद करने, सराहने की जरूरत है, जिसमें ऐसे गुण हमारे सार्वजनिक जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं।


Date:17-08-18

रुपए का लगातार गिरता मूल्य और दुनिया के हालात

संपादकीय

स्वतंत्र भारत की 71वीं सालगिरह पर डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य 70.15 तक पहुंच गया। इसका अर्थ यही है कि अमेरिका जैसी महाशक्ति आर्थिक मामले में अपना साम्राज्य कायम रखना चाहती है और असंतुलित दुनिया का एक तनावपूर्ण ढांचा निर्मित रखना चाहती है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में रुपए के अवमूल्यन पर व्यंग्य करने वाले मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विपक्ष का यह व्यंग्य सुनना पड़ रहा है कि जो काम 70 सालों में नहीं हुआ वह इन्होंने कर दिया। भारत जब स्वतंत्र हुआ था तब एक डॉलर बराबर एक रुपया ही था। आज भले हम दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था बन गए हैं लेकिन, हमारी प्रति व्यक्ति आय, मानव विकास सूचकांक और अर्थव्यवस्था के दूसरे तमाम ब्योरे गर्व करने लायक नहीं हैं। ऐसे में हम सिर्फ यह कहकर नहीं बच सकते कि अमेरिकी व्यापार युद्ध के कारण तुर्की सर्वाधिक दिक्कत में है। तुर्की की मुद्रा लीरा डॉलर के मुकाबले 45 प्रतिशत गिर गई है और वहां महंगाई 16 फीसदी पर पहुंच गई है।

अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने निवेशकों से कहा है कि वे तुर्की समेत दुनिया के दूसरे बाजारों से धन खींचें और डॉलर को मजबूत करें। इसका प्रभाव यह हो रहा है कि विश्व के कई प्रगतिशील मुद्रा बाजार 8 फीसदी तक डुबकी लगा गए हैं। भारत में यह गिरावट उससे भी ज्यादा यानी 8.5 फीसदी तक चली गई है। भले ही हमारे पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली यह हौसला दिलाएं कि तुर्की के हालात पर नजर रखी जा रही है। वजह साफ है कि डॉलर के दाम बढ़ने के बाद रिजर्व बैंक उसे खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा का इस्तेमाल करता है और उससे उसमें गिरावट आती है। 3 अगस्त को हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1.49 अरब डॉलर घटकर 402.7 अरब डॉलर तक आ गया था, जो सात माह का सबसे निचला स्तर है। इस पतन की एक वजह पूरी दुनिया में चौबीसों घंटे चलने वाला एनडीएफ (नाॅन डिलीवरेबल फॉरवर्ड) बाजार भी है। सिंगापुर, दुबई, हांगकांग, लंदन, अमेरिका और यूरोप के कुछ हिस्सों में सक्रिय इस बाजार में मुद्रा का वायदा कारोबार होता है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि भारत अपना अतिरिक्त आत्मविश्वास छोड़कर जहां जरूरी हो वहां सार्थक हस्तक्षेप करे।


Date:17-08-18

विराट व्यक्तित्व की विदाई

संपादकीय

हाल के भारतीय इतिहास की सबसे लोकप्रिय और सर्व स्वीकार्य राजनीतिक शख्सियत अटल बिहारी वाजपेयी का अवसान एक ऐसे राजनेता की विदाई है जो जननायक के साथ-साथ महानायक की छवि से लैस हो गए थे। उनके निधन के साथ ही नेताओं की वह पीढ़ी ओझल होती दिखती है जिसने खुद को नेता से राजनेता यानी स्टेट्समैन में तब्दील कर लिया था। बीमारी के कारण वह एक अर्से से राजनीतिक तौर निष्क्रिय थे, लेकिन वह अपनी उपस्थिति का आभास कराते थे। इसका कारण यही था कि वह राजनीतिक जीवन में सक्रिय लोगों के लिए एक प्रेरक उदाहरण बन गए थे। यह उनके विराट व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि उनकी मिसाल उनके विरोधी भी देते थे।

आज जब यह अकल्पनीय है कि दूसरे दलों के लोग किसी अन्य दल के शिखर पुरुष का उल्लेख उसकी प्रशंसा करते हुए करें तब अटल बिहारी वाजपेयी का जाना एक राष्ट्रीय क्षति है। इस क्षति का अहसास इसलिए कहीं गहरा है, क्योंकि उनके जैसे समावेशी राजनीति के शिल्पकार दुर्लभ हैं। वह कितने विरले थे, यह इससे प्रकट होता है कि आज उनके जैसा भरोसा पैदा करने वाला नेता दूर-दूर तक नहीं नजर आता। उनके यश की कीर्ति जिस तरह फैली उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। उनकी लोकप्रियता दलगत सीमाओं से परे पहुंच गई थी तो केवल इसलिए नहीं कि वह भाजपा के कद्दावर नेता थे और उनकी भाषण शैली सभी को मंत्रमुग्ध करती थी। इसके साथ-साथ वह उस राजनीति के वाहक भी थे जिसके कुछ मूल्य और मर्यादाएं थीं।

भाजपा के शीर्ष नेता के तौर पर वह स्पष्ट तौर पर यह कहते थे कि हम एक राजनीतिक दल हैं और सत्ता में आना चाहते हैं, लेकिन उन्होंने यह भी साबित किया कि सत्ता ही सब कुछ नहीं है। आखिर कौन भूल सकता है उस क्षण को जब उनकी सरकार एक वोट से गिरी थी? यह इसीलिए गिरी थी, क्योंकि तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने विरोधी दल के एक ऐसे सांसद को भी मतदान में भाग लेने की अनुमति दे दी थी जो मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने इस फैसले का प्रतिवाद नहीं किया। इस प्रसंग के पहले उनकी 13 दिन की सरकार के विश्वास मत के समय उनका संबोधन कालजयी इसीलिए बना कि उन्होंने सत्ता के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाली राजनीति की राह पकड़ने से इन्कार किया।

आम के साथ-साथ खास लोग उन्हें सुनने के लिए इसलिए लालायित नहीं रहते थे कि वह उस दौरान हास-परिहास भी करते थे। वह अपने संबोधन के जरिये लोगों के मर्म को भी छूते थे और नीतियों और नजरिये को नई धार भी देते थे। जब यह स्थापित मान्यता थी कि कश्मीर समस्या का समाधान तो संविधान के दायरे में ही संभव है तब उन्होंने कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का मंत्र दिया। अटल जी भले ही स्थापित परंपराओं को पुष्ट करने वाले राजनेता के तौर पर जाने जाते हों, लेकिन उन्होंने नए प्रतिमान गढ़े और नई परंपराओं की आधारशिला रखी।

उन्होंने न केवल गठबंधन राजनीति को बल और संबल प्रदान किया, बल्कि विदेश नीति को भी नया आयाम दिया। तमाम कटुता भुलाकर उन्होंने एक राजनेता की तरह व्यवहार किया और कारगिल के खलनायक परवेज मुशर्रफ को वार्ता की मेज पर आने का अवसर दिया। मुशर्रफ के बुलावे पर वह पाकिस्तान गए तो वहां से अमन का एक टुकड़ा लेकर ही लौटे। कमजोर समझी जाने वाली गठबंधन सरकारों का नेतृत्व करने के बावजूद उन्होंने देश को परमाणु हथियार संपन्न बनाया और पूरी दुनिया को दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता से परिचित कराया। वह ऐसा इसीलिए कर सके, क्योंकि एक सांसद के तौर पर वह विदेश नीति के ऐसे विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते थे जो भरी संसद में नेहरू जी से भी असहमति प्रकट करने में आगे रहते थे। यह तब था जब वह नेहरू को एक आदर्श नेता के तौर पर देखते थे।

उन्होंने यह दिखाया कि राजनीति में मतभेद किस तरह मनभेद तक नहीं जाने चाहिए। उनका एक अन्य बड़ा योगदान सुशासन को सार्थकता प्रदान करना रहा, जिसके लिए राष्ट्र उनका ऋणी रहेगा। उनका व्यक्तित्व महज एक लोकप्रिय राजनेता का ही नहीं, कवि हृदय वाले व्यक्ति का भी था। वह हिंदी प्रेमी ही नहीं हिंदी सेवी भी थे। उनकी विशिष्ट शैली की हिंदी ने उन्हें लोकप्रिय बनाया तो हिंदी को लोकप्रियता प्रदान करने का एक बड़ा श्रेय उन्हें जाता है। वह राजनीति में डूबे होने के बाद भी राजनीति से इतर गतिविधियों में मग्न दिख जाते थे।

पत्रकारिता से करियर शुरू करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे तो इसीलिए कि वह देश की नब्ज पहचानते थे और यह भी जानते थे कि लोकतांत्रिक भारत का लक्ष्य क्या है और उसे कैसे हासिल किया जा सकता है? उनका जाना हमारे राष्ट्रीय जीवन में इसलिए एक बड़ा रिक्त स्थान कर गया कि अब उनकी जगह लेते हुए कोई नहीं दिखता। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि वह जिन राजनीतिक और लोकतांत्रिक आदर्शो के प्रति समर्पित रहे उन्हें आगे बढ़कर अपनाया जाए। राजनीति और राष्ट्र का हित इसी में है और यही अजात शत्रु सरीखे अटल बिहारी वाजपेयी सदैव चाहते रहे।