News Clipping on 18-08-2018
Date:18-08-18
Asian Test
Jakarta Games will set the tone for Tokyo 2020
TOI Editorials
Beginning today, the Asian Games in Indonesia are rightly being seen as a big test for Indian athletes ahead of the 2020 Tokyo Olympics. The multi-disciplinary sporting event will see a 572 member Indian contingent participating in 36 sports. Apart from traditional disciplines new sports such as kurash, pencak silat, roller skating and sepak takraw will witness Indian participation. The diverse contingent can be attributed to the slow but steady growth of non-cricket sports in India over the last few years. And with the likes of PV Sindhu in badminton, Sakshi Malik in wrestling and Dipa Karmakar in gymnastics, the country has a new crop of world beaters to look up to.
Moreover, India’s Asian Games participation comes after a strong showing at the Gold Coast Commonwealth Games earlier this year. India had won 26 gold medals and 66 medals overall then, laying the platform for a solid showing at the Asian-level event. Plus, many Indian athletes are in good form and have picked up medals at notable international tournaments in the run up to Indonesia. For example, Indian boxers have won medals at the Chemistry Cup and Ulaanbaatar Cup, Sindhu won silver at the Badminton World Championships, and Hima Das won gold at the World Under-20 Athletics Championships.
In fact, there are high expectations from the athletics contingent. With the likes of Neeraj Chopra (javelin), Dutee Chand and Tintu Luka (track), this is the best track and field squad India has fielded in many years. A good haul of medals from them will be the ideal boost for 2020 Olympic preparations. Add to this other medal prospects such as Shiva Thapa (boxing), Manika Batra (table tennis), the men’s and women’s hockey teams and double Olympic medallist in wrestling Sushil Kumar, the medal tally projection of 81 should be within reach. Given the high stakes, Indian athletes must make Indonesia count.
Date:18-08-18
चुनावी चिंता के बीच देश के विकास संबंधी वादे
संपादकीय
पंद्रह अगस्त को लाल किले से दिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण विकास के बड़े सपने दिखाने वाला था लेकिन, उस पर आगामी चुनाव की चिंता हावी थी। अच्छा होता वे यह भी स्पष्ट करते कि देश के तीव्र विकास के मार्ग में वास्तविक अड़चनें क्या और कहां हैं। प्रधानमंत्री ने वैसा करने की बजाय 2014 के पहले शासन करने वाले दलों और नेताओं पर दोषारोपण किया। उनके मानस में यह महत्वाकांक्षा बहुत मजबूती से बैठी है कि उन्हें दूसरा कार्यकाल मिलना चाहिए और इसीलिए अपने पहले कार्यकाल के आखिरी संबोधन में उन्होंने 2022 यानी भारत की 75 वीं जयंती के लिए अंतरिक्ष में पहले भारतीय को भेजने से लेकर किसानों की आय दोगुनी करने जैसे कई वादे किए। इस दौरान उन्होंने स्वास्थ्य बीमा के लिए आयुष्मान भारत जैसी योजना की घोषणा की और सेना में काम करने वाली महिला अधिकारियों को बराबरी देने के लिए एक स्थायी आयोग का एलान भी किया। उनकी घोषणा में तीन तलाक का विधेयक पास कराकर मुस्लिम महिलाओं को बराबरी देने का वादा भी निहित था।
अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने कश्मीर के लिए एक बार फिर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के सिद्धांत को अपनाने यानी सर्वानुमति बनाने पर जोर दिया है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री समाज के अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और कश्मीरियों की उन चिंताओं को दूर करने में सफल नहीं रहे जो इस समय देश को घेरे हुए हैं और जो संविधान को बदल देने की धमकियों तक जाती हैं। प्रधानमंत्री को लाल किले से दिया गया अपना पहला भाषण याद रखना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे सबका साथ और सबका विकास और कम से कम दस साल तक देश में जातिवाद, सांप्रदायिकता और हिंसा पर पूरी तरह से रोक चाहते हैं। आज देश इन्हीं समस्याओं से घिर गया है और इससे विकास के वे अच्छे काम प्रभावित हुए हैं, जिनसे देश में अच्छे दिनों की उम्मीद बन रही थी। जातिवाद, सांप्रदायिकता और उसके नाम पर होनी वाली हिंसा ने देश के भीतर गहरा विभाजन पैदा किया है और तरक्की में यकीन करने वाले नागरिकों के भीतर एक भय का निर्माण किया है। प्रधानमंत्री ने उस भय को दूर करने वाली बात न कह कर एक कसर छोड़ दी है।
Date:18-08-18
छोटे फायदे के फेर में बड़ा नुकसान
डॉ. भरत झुनझुनवाला (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं)
लोग अक्सर गांव से शहर इसलिए पलायन करते हैं कि वे वहां सुकून की जिंदगी बिता सकेंगे। उन्हें वहां सड़क, अस्पताल और बिजली आदि की सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन बरसात शहरों को नर्क बना दे रही है। सड़कों पर पानी भर जाता है, बिजली कट जाती है, आवागमन ठप हो जाता है, घरों में पानी भर जाता है। शहरों की यह दुर्गति वास्तव में हमारी ही बनाई हुई है। हमने बाढ़ से छुटकारा पाने के प्रयास में ऐसे काम किए हैं जिनसे बाढ़ की विभीषिका और बढ़ गई है। इन दिनों केरल की बाढ़ चर्चा में है। इसके पहले देश के दूसरे हिस्से बाढ़ के कारण चर्चा में थे। नदियों में बाढ़ का एक बड़ा कारण यह है कि हमने नदियों को खड़ी दीवारों के बीच में कैद कर लिया है जैसे लखनऊ में गोमती और मुंबई में मीठी नदी को। सामान्य परिस्थिति में जब तक नदी का स्तर दीवारों से कम रहता है तब तक नदी पानी को बहा ले जाती है और शहर बाढ़ से प्रभावित नही होता, लेकिन जब बाढ़ ज्यादा तीव्र हो जाए तब नदी को फैलने की जगह ही नहीं मिलती। सामान्यत: नदी के किनारों में एक कोण होता है। यह काफी कुछ अंग्रेजी के वी अक्षर जैसा होता है।
जैसे-जैसे नदी का जलस्तर बढ़ता है वैसे-वैसे नदी का क्षेत्रफल भी बढ़ता जाता है और नदी की पानी को बहा ले जाने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। हमने दीवार बनाकर नदी के पानी के फैलने के अवसर को कम कर दिया है। नदी का पानी जब दीवार से ऊपर उठता है तो वह चारों तरफ फैल जाता है जैसे कुछ दिन पूर्व मीठी नदी का पानी मुंबई के अगल-बगल के इलाकों में फैल गया था। हमारी नीति है कि पहाड़ी क्षेत्र के पानी को टिहरी जैसी झीलों में रोक लिया जाए। भीमगोड़ा जैसे बैराज से बरसाती पानी को निकालकर सिंचाई के लिए उपयोग कर लिया जाए। इन कोशिशों का सीधा फायदा यह है कि सामान्य वर्ष में नदी में पानी कम हो जाता है और हमें बाढ़ से छुटकारा मिल जाता है, लेकिन इसी कार्य का दीर्घकाल में दुष्प्रभाव पड़ता है। कई वर्षों के सामान्य बहाव में नदी पहाड़ से गाद लाकर अपने मैदानी इलाके में जमा करती रहती है। फिर पांच-दस साल बाद एक महाबाढ़ आती है जिस समय ज्यादा बहाव होने से पिछले पांच-दस साल में जमा की गई गाद को नदी अपने साथ एक झटके में बहाकर समुद्र तक ले जाती है। इस महाबाढ़ से नदी का पेटा पुन: साफ हो जाता है और अगले पांच-दस वर्षों में बाढ़ कम आती है।
अब हमने टिहरी और भीमगोड़ा के माध्यम से महाबाढ़ को रोक लिया। इस प्रकार नदी की जिस गाद को स्वाभाविक रूप से समुद्र तक बहाकर ले जाने का जो कार्य था वह अब रुक गया है। अब हर वर्ष गाद नदी के पेटे में जमा होती रहती है। नदी के पेटे का तल बढ़ता जाता है और सामान्य वर्ष में भी बाढ़ विकराल रूप धारण कर लेती है। हर वर्ष महाबाढ़ जैसी परिस्थिति बन जाती है। यदि नदी का पेटा खाली हो गया होता तो जान-माल का नुकसान नही होता, लेकिन हमने महाबाढ़ को रोकने में नदी के पेटे को ऊंचा कर दिया और सामान्य बाढ़ को भी और भयावह बना दिया है। नदियों के किनारे बंधे बनाने का भी ऐसा ही प्रभाव होता है। जब तक नदी में पानी सामान्य रहता है तब तक बंधे टिके रहते हैं और नदी का पानी नहीं उफनाता, लेकिन नदी ऊपर से लाई हुई गाद को बंधों के बीच में जमा करती रहती है। धीरे-धीरे नदी का पेटा ऊंचा होता जाता है और नदी आसपास की जमीन के ऊपर बहने लगती है। जब बारिश ज्यादा होती है तो बंधे टूट जाते हैं और नदी कहर बरपाती है। इस प्रकार मीठी नदी जैसी दीवारों, टिहरी जैसी झीलों, भीमगोड़ा जैसे बैराजों और बिहार के बंधों से हमने सामान्य बाढ़ पर कुछ हद तक ही काबू पाया है।
इस बीच हमने भारी वर्षा में नदी पर पड़ने वाले प्रभाव को नहीं समझा है। हमारी इसी अनदेखी के चलते बाढ़ और ज्यादा विनाशकारी साबित होती जा रही है। आर्थिक दृष्टि से देखें तो चार-पांच वर्ष में हम किसी भी संभावित नुकसान को बचा लेते हैं, लेकिन उससे ज्यादा नुकसान बाढ़ वाले वर्ष में हो जाता है। सामान्य बाढ़ को रोकने का एक और आर्थिक नुकसान होता है। आज देश के लगभग हर एक इलाके में भूमिगत जल का स्तर नीचे गिरता जा रहा है। हम पानी निकाल ज्यादा रहे हैं, जबकि उसका पुनर्भरण यानी रीचार्ज कम हो रहा है। जब नदी का पानी सामान्य बाढ़ में फैलता था तो उससे भूमिगत जल का पुनर्भरण होता था। नदी को दीवारों, बांधों और बंधों के बीच में रोककर हमने उस जल के पुनर्भरण को रोक दिया है। जिस समय महाबाढ़ आती है उस समय निश्चित रूप से पानी का पुनर्भरण होता है, लेकिन एक वर्ष में बाढ़ के फैलाव से जो लाभ होता है वह कम होता है। मेरे एक मित्र के नवजात शिशु की छोटी बीमारी को रोकने के लिए डॉक्टरों ने ज्यादा कड़ी एंटीबायोटिक दवाएं दीं। गलत उपचार में बच्चे की मौत हो गई। इसी प्रकार गलत तरीका अपनाने से सामान्य बाढ़ को बचाने के चक्कर में हमने नदी को ज्यादा कड़ी दवाई दे दी है।जरूरत है कि हम बाढ़ के सार्थक पक्ष विशेषकर भूमिगत जल के पुनर्भरण का सही आकलन करें और देखें कि इस लाभ की तुलना में नुकसान कितना हुआ है।
नदियों के प्राकृतिक रूप के साथ छेड़छाड़ करने की नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। इन दिनों उत्तराखंड में गंगा एवं उसकी सहायक नदियों पर विष्णुगाड पीपलकोटी और सिंगोली भटवाड़ी परियोजनाओं के विरोध में प्रख्यात पर्यावरणविद स्वामी सानंद आमरण अनशन पर बैठे हैं। ऐसे ही जो लोग शहरी जिंदगी को सुरक्षित रखना चाहते हैं उन्हें टिहरी जैसे बांधों को हटाने के लिए अनशन करने पर विचार करना चाहिए जिससे हमारी नदियां अपने नैसर्गिक रूप में प्रवाहमान हों और देश को बाढ़ जैसी आपदाओं से बचाया जा सके। वर्ष 1998 में मुझे गोरखपुर में आई बाढ़ का अध्ययन करने का अवसर मिला था। उस समय लोगों ने बताया था कि पूर्व में नदी का पानी लगभग हर वर्ष बाढ़ का रूप लेता था और खेतों के ऊपर एक पतली चादर की तरह बहता था। धान की ऐसी प्रजातियां थीं जो जलस्तर के साथ-साथ बढ़ती जाती थीं और उस बाढ़ में भी धान पैदा हो जाता था। बस्तियों को ऊंचे स्थानों पर बसाया जाता था जिससे बाढ़ में नुकसान न हो। हमें बाढ़ के साथ जीने की कला अपनानी होगी। शहरी नदियों को देवों से मुक्त करना होगा, वर्षा की निकासी को खोलना होगा। अन्यथा जिस प्रकार शिशु को छोटी बीमारी से छुटकारा देने के लिए कड़ी एंटीबायोटिक देकर उसकी मृत्यु हो गई उसी प्रकार छोटी बाढ़ से बचने के चक्कर में हम भयानक बाढ़ और बड़े नुकसान झेल रहे हैं।