News clipping on 22-07-2018
Date:22-07-18
सूचना – अधिकार से डर क्यों ?
हरिमोहन मिश्र
शुक्र है कि फिलहाल सूचना के अधिकार कानून में संशोधन टल गया।इस संशोधन के जरिए सरकार केंद्र और राज्यों में सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन-भत्ते तय करने में अपना अधिकार चाहती है। अभी 2005 के सूचना का अधिकार कानून में उनका पांच साल का तय कार्यकाल है और वेतन-भत्ते चुनाव आयोग के बराबर हैं। इस तरह एक मायने में सूचना आयुक्त का पद सरकार की दखल से परे है। सरकारी दलील है कि सूचना आयुक्तों को चुनाव आयोग के बराबर दर्जा देना मुनासिब नहीं है। लेकिन इससे तो सूचना आयुक्तों के मामले में सरकारी दखलअंदाजी बढ़ जाएगी। आरटीआई कार्यकर्ताओं का विपक्षी दलों की ये शंकाएं बेजा नहीं कही जा सकतीं कि इससे आरटीआई कानून कमजोर हो जाएगा और एक मायने में सूचना आयोग का संवैधानिक दर्जा भी खत्म-सा हो जाएगा। दरअसल लंबी हीला-हवाली और इंतजार के बाद पिछली यूपीए सरकार के दौरान देश में लोगों को सूचना का अधिकार (आरटीआई) 12 अक्टूबर 2005 को हासिल हुआ। लेकिन बाद में पिछली सरकार को भी यह रास नहीं आ रहा था।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो 2013 में यह कहा भी कि सूचना के अधिकार का दुरु पयोग हो रहा है और यह सरकारी कामकाज में अडंगे की वजह बन रहा है। मनमोहन सरकार भी इसमें कुछ शतरे जोड़ने और कई मामलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर करने के लिए संशोधन लाने की बात करने लगी थी, लेकिन इस पर हंगामा उठा तो उसने अपनी वह योजना मुल्तवी कर दी थी। तब सूचना के अधिकार को ढीला करने की कोशिश का आरोप मढ़ने में भाजपा भी सबसे आगे थी। लेकिन आज सत्ता में होने पर उसकी बोली बदल गई है। हालांकि यह जरूर कहना होगा कि यूपीए और कांग्रेस नेतृत्व ने इस कानून का हमेशा पक्ष लिया और किसी तरह के फेरबदल से इनकार किया। मौजूदा एनडीए सरकार में तो सूचना देने से इनकार करने की कई मिसालें हैं।
जिस राफेल सौदे में विमानों के दाम में भारी इजाफे को लेकर विपक्षी दलों की ओर से शंकाएं उठ रही हैं, उसकी सूचना देने से इनकार करने की वजह फ्रांस से हुए गोपनीयता की संधि का हवाला दिया जा रहा है। यह दलील अगर जायज भी मान ली जाए तो ऐसी अनेक मिसालें हैं, जिसमें ऐसी सूचनाएं देने से भी संवेदनशीलता और गोपनीयता के नाम पर इनकार किया गया, जिनके लोगों की जानकारी में आने से लोकतंत्र की भावना ही मजबूत होगी। मसलन, सरकारी बैंकों के बड़े कर्जदारों के नाम क्यों नहीं जाहिर होने चाहिए। कुछेक जो मामले खुले भी हैं, वे घोटाले-घपलों के खुलने ही सार्वजनिक जानकारी में आ पाए हैं। असल में हर सार्वजनिक कामकाज पर लोगों की नजर रहने से वह अंकुश बना रहेगा, जो लोकतंत्र को सही रास्ते पर बनाए रखेगा। आरटीआई कानून को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में प्रदत्त बोली और अभिव्यक्ति की आजादी का ही विस्तार माना गया है। इस कानून के मौजूदा स्वरूप की जमीन तैयार करने में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों की अहम भूमिका रही है।
सुप्रीम कोर्ट 24 जनवरी 1975 में बहुचर्चित उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राजनारायण तथा अन्य मामले में ही इस पर जोर दे चुका था कि सूचना का अधिकार बोली और अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था,‘‘इस देश के लोगों को हर सार्वजनिक काम, वह सब कुछ जो सार्वजनिक दायरे में सार्वजनिक पदाधिकारियों द्वारा किया जाता है, उसे जानने का अधिकार है। उन्हें हर सार्वजनिक लेन-देन के हर ब्योरे जानने का अधिकार है। बोली की आजादी की अवधारणा से निकला जानकारकार अधिकार बिना शर्त तो नहीं है, लेकिन यह ऐसी वजह है कि जब भी लेन-देन को गोपनीय बताया जाए तो सतर्क हो जाना चाहिए क्योंकि उसका सार्वजनिक सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं हो सकता। सामान्य रोजमर्रा के कामकाज को गोपनीयता के पर्दे में छुपाना सार्वजनिक हित में नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट उसके बाद भी कई मामलों में ये बातें दोहरा चुका है। यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र भी कई बार अपने मानवाधिकार प्रस्तावों में सूचना का अधिकार मुहैया कराने की अपील करता रहा है।
दुनिया के कई देशों खासकर पश्चिमी यूरोप के देशों में सूचना के अधिकार को बेहद अहम माना जाता है। स्वीडन पहला देश है, जहां 1766 में लेखन और प्रेस की आजादी के रूप में सूचना के अधिकार पर अमल हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र ने सूचना के अधिकार को मान्यता दी। संयुक्त राष्ट्र ने 1948 में इस प्रस्ताव को अपना लिया। संयुक्त राष्ट्र में 14 दिसम्बर 1946 को कहा गया, ‘‘सूचना का हक एक बुनियादी मानवाधिकार है और उन नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए पारस पत्थर की तरह है, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिष्ठित किया है।’ 16 दिसम्बर 1948 को ऐलान किए गए सार्वजनिक मानवाधिकार उद्घोषणा का अनुच्छेद 19 कहता है, ‘‘हर किसी को अपनी राय बनाने के लिए सूचना और विचारों के आदान-प्रदान की आजादी है।’यह इतिहास याद करने की वजह सिर्फ यह है कि सूचना का अधिकार लंबी जद्दोजहद के बाद हासिल हुआ है, इसलिए हमेशा उसके विस्तार पर जोर देने की दरकार है, न कि उस पर किसी तरह की पाबंदी लादने की। हमारे राष्ट्र और संविधान निर्माताओं ने बार-बार इस पर जोर दिया है कि सूचनाओं और जानकारियों का निरंतर प्रवाह ही लोकतंत्र को मजबूत करने और लोगों को अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का अहम जरिया है।
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने तो मातृभाषा में सरकारी कामकाज की अनिवार्यता के पक्ष में इस दलील का विस्तार किया था। उन्होंने कहा था, ‘‘अदालतों में वकील अंग्रेजी में उसी तरह बोल देता है, जैसे कोई जादूगर अगड़म-बगड़म छू कह कर चमत्कृत कर देता है। अगर देश का आम आदमी की अपनी भाषा में ये सब काम होंगे तो वह समझ पाएगा कि क्या चल रहा है। संभव है कि वह भी कोई अनोखी दलील पेश कर सके। लेकिन वैसा होने पर हमारे सरकारी मुलाजिमों और वकील वगैरह का असर खत्म हो जाएगा, इसलिए वे अपने हित में पराई भाषा को बनाए रखना चाहते हैं।’जाहिर है, यह दलील वही है, जो लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अहम है। इसी वजह से तथाकथित संवेदनशील और गोपनीय विषयों की सूची बेहद छोटी होनी चाहिए। यह सूची जितनी लंबी होगी, समझिए लोकतंत्र का दायरा उतना ही छोटा होगा। यह तभी होगा, जब सूचना मुहैया कराने की व्यवस्था किसी तरह की दखलअंदाजी से मुक्त होगी।
इसलिए सूचना के अधिकार और सूचना आयुक्तों का दर्जा, न्यायालयों, चुनाव आयोग से कमतर महत्त्व का नहीं है। सूचना आयुक्तों को सरकार के रहमोकरम पर नहीं, बल्कि अधिक स्वतंत्र और स्वायत्त करने की दरकार है, ताकि वे हर सार्वजनिक कामकाज, सार्वजनिक लेन-देन की जानकारियां लोगों को मुहैया कराने में सक्षम हों और हर सरकार को उनके फैसलों और निर्देशों पर अमल करना अनिवार्य हो। दरअसल, संशोधन तो यह होना चाहिए कि सूचना के अधिकार से वंचित करने वालों को दंडित किया जा सके। बेशक उसकी शर्ते तय होनी चाहिए क्योंकि दुरुपयोग की संभावना भी हमेशा बनी ही रहती है। ऐसे प्रावधान भी किए जाने चाहिए कि किसी सरकार या संसद के लिए अपनी बहुसंख्या के बल पर सूचना के अधिकार को ढीला करने की प्रक्रिया असान न हो। ठीक उसी तरह जैसे इमरजेंसी के बाद आई जनता पार्टी की सरकार के दौरान संविधान संशोधन के जरिए इमरजेंसी लगाने और नागरिक स्वतंत्रताओं को मुल्तवी करने को लगभग असंभव-सा बना दिया गया था। क्या सरकार और तमाम राजनैतिक पार्टयिां इस ओर ध्यान देंगी!