News Clipping on 22-08-2018
Date:22-08-18
विदेशी मोर्चे पर चहुंओर बढ़ाई साख
मोदी सरकार ने अपनी कारगर विदेश नीति के जरिए उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में भारत की साख को बढ़ाने का काम किया है।
विवेक काटजू , (लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
विदेश नीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस आकलन को दुरुस्त ही कहा जाएगा कि ‘हम तेजी से बदलती दुनिया में रह रहे हैं, जहां अनिश्चितताओं की भरमार है। इसमें संदेह नहीं कि दुनिया व्यापक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक और इन सबसे भी बढ़कर तकनीकी बदलाव के दौर से गुजर रही है। सभी देश अपनी घरेलू और विदेश नीति के जरिए इस बदलाव से ताल मिलाने की कोशिश में हैं। अपने अब तक के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने पूरी ऊर्जा के साथ उन देशों से रिश्ते मजबूत बनाने के सार्थक प्रयास किए हैं, जिनके साथ भारत के रिश्ते अच्छे रहे हैं या अतीत में उनकी अनदेखी होती रही। ऐसे कुछ देशों का दौरा करने वाले वह पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। वह कुछ ऐसे देशों में भी गए, जहां किसी भारतीय पीएम को गए लंबा अरसा हो गया था। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने भारत की कूटनीतिक सक्रियता की गति और दायरा बढ़ाया है। उनकी व्यापक पहुंच ने उभरती हुई वैश्विक शक्ति के रूप में भारत की साख को बढ़ाने का काम किया है।
बीते चार वर्षों में मोदी ने भारत के पड़ोसी देशों, दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और पश्चिम एशियाई देशों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया है। इन क्षेत्रों में भारत के महत्वपूर्ण सामरिक एवं आर्थिक हित जुड़े हैं। मोदी की ‘एक्ट ईस्ट नीति की सफलता को इससे मापा जा सकता है कि इस साल गणतंत्र दिवस पर आसियान के सभी दस देशों के शासनाध्यक्ष दिल्ली में मौजूद थे। पश्चिम एशिया में भारी उथल-पुथल मची है। वहां तमाम देशों में तरह-तरह की खाइयां बन गई हैं। इन विरोधाभासों को मात देकर भारत अपने हित कुशलतापूर्वक साधने में सफल रहा है। इसके चलते सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ईरान, इसरायल और फलस्तीन जैसे अलग-अलग धड़ों वाले देशों से भारत के संबंध समय के साथ और बेहतर हुए हैं। यह वाकई एक बड़ी उपलब्धि है। अब जरूरत इसकी है कि भारत खासतौर से आसियान देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते बेहतर बनाने पर विशेष ध्यान दे।
अफ्रीका और दक्षिण प्रशांत के देशों के साथ रिश्तों को नया आयाम देने में भी मोदी ने सराहनीय काम किया है। इंडिया-अफ्रीका सम्मेलन के दौरान सभी अफ्रीकी देशों की भारत में मौजूदगी ने यही दर्शाया कि वे भारत के साथ अपने संबंधों में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष वाले पचास एवं साठ के दशक वाली गर्मजोशी वापस चाहते हैं। दक्षिण प्रशांत देशों की बैठक को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि भारत को विकासशील देशों के साथ भी अपने संबंधों में निरंतरता कायम रखने की दरकार है।
दुनिया के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ निजी रिश्ते बनाने में भी मोदी ने काफी मेहनत की है। इस फेहरिस्त में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं। कूटनीति की राह आसान करने वाले ऐसे रिश्ते राष्ट्रीय हितों से अहम नहीं हो सकते। भारत-चीन संबंधों में यह नजर भी आता है। मोदी ने चीन को लेकर भारत के रवैये को स्पष्ट करते हुए सभी संभावित क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम किया और असहमतियों को विवादों की शक्ल भी नहीं लेने दी। भारत के लिए महत्वपूर्ण है कि भारत-चीन सीमा पर शांति कायम रहे, लेकिन इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि चीन उलझे हुए मुद्दों को जल्द सुलझाने का उत्सुक भी नहीं है।
पिछले साल डोकलाम विवाद के दौरान उससे दृढ़तापूर्वक निपटकर मोदी ने बढ़िया किया। चीन के साथ पाकिस्तान की बढ़ती नजदीकियां गंभीर चिंता का विषय हैं। चीन-पाकिस्तान गठजोड़ भारत के खिलाफ ही काम करेगा। इसके अलावा चीन भारत के सभी पड़ोसी देशों के साथ भी आक्रामक रूप से संबंध मजबूत बना रहा है। इसमें उसका आर्थिक रुतबा भी मददगार बना हुआ है। इसकी वजह से मालदीव और नेपाल जैसे देशों के साथ भारत के रिश्ते और जटिल हुए हैं। इन देशों को संदेश देने की जरूरत है कि भारत अपने हितों के साथ कोई समझौता नहीं चाहेगा। चीन के उदय से चिंतित जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ रिश्तों को धार देकर मोदी ने एकदम सही रणनीति अपनाई, लेकिन इस मोर्चे पर और प्रयास करने की आवश्यकता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के कुछ अस्थिर बयानों और फैसलों ने उन क्षेत्रों में भारत-अमेरिकी रिश्तों की थाह का अनुमान लगाना मुश्किल कर दिया है, जो भारत के हितों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इनमें व्यापार और आव्रजन जैसे मुद्दे शामिल हैं। हालांकि अमेरिका व्यापक संदर्भों में भारत को एक महत्वपूर्ण साझेदार मानता है और मोदी को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वह अमेरिका से रक्षा और अंतरिक्ष जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में उच्च तकनीक हासिल करने में सफल हुए हैं, लेकिन ईरान पर लगाए गए ट्रंप के प्रतिबंध भारत की ऊर्जा सुरक्षा और कनेक्टिविटी पर संकट के बादल खड़े कर रहे हैं। पुराने वफादार दोस्त रूस के साथ रिश्तों को निभाने में भी मोदी सफल रहे हैं, लेकिन भारत को इस पर ध्यान देना होगा कि मास्को अब पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते बढ़ा रहा है। बदलते समीकरण अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक खास पहलू होता है और कोई भी देश अतीत की स्मृतियों के सहारे नहीं रह सकता।
जलवायु परिवर्तन, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसी चुनौतियों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुधारों के माध्यम से वैश्विक मंचों पर नई दिल्ली की भूमिका व्यापक बनाने जैसे मुद्दों पर बीते चार वर्षों में भारत ने अहम भूमिका निभाई है। वैश्विक स्तर पर भारत की साख का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश के लिए उसने ब्रिटेन के उम्मीदवार को मात दी। भारत की विकास गाथा में योगदान के लिए दुनियाभर में फैले भारतवंशियों को जोड़ने में भी मोदी सफल हुए हैं। अमेरिका में प्रवासी भारतीयों का तबका भारत के लिए प्रभावी लॉबी का काम करता है। आने वाले दिनों में यह तबका अमेरिकी राजनीति में अहम भूमिका अदा करेगा। पाकिस्तान की बात करें तो उसे लेकर मोदी की नीतियों ने एक चक्र पूरा कर लिया है। उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों की ही तरह इस उम्मीद के साथ शुरुआत की कि पाकिस्तान को अक्ल आएगी और वह भारत के प्रति अपने नकारात्मकता के भाव को तिलांजलि देगा। मोदी के तमाम प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आया और पठानकोट से लेकर उरी में हमलों को अंजाम देता रहा। यथार्थवादी मोदी ने इसके जवाब में सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देकर पाकिस्तान से संवाद बंद कर दिया। अब भारत यह प्रक्रिया तभी शुरू करेगा, जब पाकिस्तान आतंक का रास्ता छोड़ने की पहल करेगा। इमरान खान द्वारा सकारात्मक संकेत देने के बावजूद भारत को अपना रवैया नरम करने की जरूरत नहीं। उम्मीद कभी भी विदेश नीति का आधार नहीं हो सकती।
Date:22-08-18
Icing on the Moon
Chandrayaan-supported discovery of lunar surface water will boost space exploration
TOI Editorials
In a significant discovery, scientists have found water ice in the shadowy craters of the Moon’s poles for the first time. The discovery was confirmed using data from Nasa’s Moon mineralogy mapper instrument, on board India’s Chandrayaan-1 spacecraft. What makes this discovery special is that the water ice is surface exposed as opposed to previous discoveries locating water beneath the lunar surface. Thus, from a technical point of view, the surface water could be more easily exploited for future lunar missions.
This in turn opens up an array of possibilities. We could carry out longer manned missions to the Moon. An accessible source of water bolsters the idea of constructing a Moon base which could, among other things, serve as a launchpad for manned missions to other parts of the solar system. It should also excite those toying with the idea of a Moon colony – given over-exploitation of resources on Earth, that idea is no longer purely in the realm of fantasy. It’s noteworthy that the surface water ice discovery, though made by Nasa’s instruments, had a strong Indian hand. This highlights how far the Indian space programme has come in the last few decades.
Today, Isro’s satellite launching facilities are respected globally. Recall how Isro launched 104 satellites with one rocket last year. It’s this stellar record of the Indian space agency that allowed Prime Minister Narendra Modi to announce during his Independence Day speech that the country would launch a manned space mission by 2022. Such a mission would showcase Isro’s technical capabilities to the world and garner further contracts for it. With foreign space programmes also looking to up their game, it’s clear that space technology will be the next big area of focus. India should play its role here.
Date:22-08-18
WTO on the Brink
By invoking national security clause, Trump goes for nuclear option in trade war
Arvind Panagariya , [The writer is Professor of Economics at Columbia University.]
A trade war is now in progress on two fronts. The United States opened the first front by imposing a 25% tariff on steel imports and 10% tariff on aluminium imports from a large number of its trading partners. That led many damaged parties to take retaliatory actions. China was the first to respond with a 25% tariff on $3 billion worth of food imports from the US. Mexico, Turkey, European Union and Canada followed suit once it became apparent that the US would not grant them the exemption from tariff they had sought.
On the second front, the US has exclusively targeted China by slapping 25% tariff on a wide variety of imports worth $34 billion from it. China hit back in this instance as well, imposing 25% tariff on $34 billion worth of imports from the US. The US has threatened China with 25% tariff on another $200 billion worth of imports. China has said it will respond in kind. Imposition of tariffs by members of the World Trade Organization (WTO) is not unusual. The General Agreement on Tariffs and Trade (GATT), which governs goods trade among WTO members, contains numerous “safeguard” provisions allowing member countries to raise tariffs under specified circumstances. What is unusual about these tariffs is that they do not fall within the domain of any of these safeguard provisions.
Instead, the US has justified steel and aluminium tariffs under the rarely invoked GATT Article XXI, otherwise known as the national security clause. It has not spelt out the GATT article under which it has imposed the tariffs targeting China, but with no other provision applicable these too will have to be justified under the national security clause. As it stands, each party engaged in the trade war has formally complained against the offending party in the WTO dispute settlement body (DSB). The critical question facing DSB is how to approach the disputes involving the national security clause. The relevant provision in this clause says, “Nothing in this Agreement shall be construed … to prevent any contracting party from taking any action which it considers necessary for the protection of its essential security interests.” Accordingly, a member country may violate any WTO rule if such violation is necessary to protect its national security interests.
More importantly, according to many leading legal scholars of the WTO, the member country has the sole right to decide what actions are necessary to protect its national security interests. This means that actions under this clause are beyond review by the DSB. To date, there have been very few disputes under this clause and not a single one of them has reached the review stage in the DSB or its equivalent under GATT. The dilemma the DSB faces is that if it allows a review, the US may simply walk out of WTO on the ground that such a review is forbidden under the clause. At the same time, if US actions are allowed to stand without a review, it will signal to member countries that anything is fair game so long as it is played under the national security clause. In either case, the multilateral trading system will be seriously damaged.
The question then is whether the matter can be resolved through negotiations among the affected parties. Unfortunately, prospects for this are not bright either. Both the key players in this conflict, the US and China, seem determined not to give ground. From being the architect of the open world trading system in the post-Second World War era, today the United States has descended into a state in which it feels it is a victim of that same system. It aggressively seeks redress from large trading partners, notably China.
The president’s 2018 Trade Policy Report to the Congress expresses his determination on the matter in these words, “The United States will not allow the WTO – or any other multilateral organization – to prevent us from taking actions that are essential to the economic well-being of the American people.” China, the other major party in the conflict, is a young but equally aggressive power. Judging by its assertive posturing in South China Sea and Belt and Road Initiative, prospects that it will retreat from the battle are bleak. It has already made good on its promise of retaliation in both cases involving it and has made clear that it will respond in kind to any further actions by the US.
In the immediate future, the only hope is that after midterm elections in November, President Trump would return to a more conciliatory position. If not, serious damage to the trading system is inevitable. A Panglossian may still argue that the vast damage that a wider trade war would inflict would at last convince political leaderships that trade openness is not the enemy, protectionism is. If so, this would be a replay of history that saw the highly prosperous First Globalisation from 1870 to 1914 descend into escalating protection during inter-war years. Lessons learned from that phase of protectionism brought the global leadership together to build what came to be known as the GATT-WTO system.