News clipping on 24-07-2018

Date:24-07-18

Indore City Breaks New Fiscal Ground

ET Editorials

It is one small step in diversifying the instruments available in the debt market, but a significant stride for fuelling urbanising India’s engines of growth: our extant and future cities. The recent maiden debt listing of municipal bonds, or munis, on the NSE, of Indore Municipal Corporation, is path-breaking in that it creates a market for municipal bonds. Indore and a few other urban bodies in Madhya Pradesh reportedly plan to raise Rs 1,200 crore via munis. There’s a huge resource gap nationally when it comes to municipal bodies, and munis can be a viable financing option for well-structured urban development projects. Provided, local governments have the fiscal capacity to service the bonds they issue.

In fast urbanising India, the combined revenue receipts of all municipalities add up to under Rs 1,50,000 crore, less than 1% of GDP, with less than a third of the funds locally raised. Estimates suggest that the investment requirement is far higher, over 2% of GDP annually. The way forward is to use urban planning tools to renew and expand our cities, improve neighbourhoods and increase property values. The policy focus needs to be to boost municipal revenues from property tax collections, reasonable user charges and shares in the taxes collected by state governments. Besides, given the huge infrastructural deficit, say, for urban public transport, solid waste management and sewerage treatment, munis can provide stable long-term returns to create energy-efficient and climate-friendly infrastructure. But, in tandem, we need transparency in municipal finances and standardised norms for budgeting and disclosure.

There are over 4,000 urban local bodies nationally, and over 160 municipal corporations. These need capacity building as well as political reform and empowerment, complete with participative democracy in local government, so that there is the necessary political will for creating and running efficient towns and cities, to enhance liveability, creativity and economic output. Future prosperity depends on it.


Date:24-07-18

अनैतिकता की महामारी का इलाज

बाल-तस्करी और यौन शोषण के शिकार मासूम चेहरे आसभरी निगाहों से नए प्रस्तावित कानून की ओर देख रहे हैं।

कैलाश सत्यार्थी , (लेखक नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता हैं)

संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे कुछ ही अवसर आते हैं, जब सदियों पुरानी सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों से पनपे अपराधों को रोकने के लिए प्रभावी कानून पारित किए जाते हैं। संसद के इस मानसून सत्र में ऐसा ही अवसर आया है। गुलामी का एक घिनौना रूप मानव तस्करी यानी ह्युमन ट्रैफिकिंग हमारे समाज में कोढ़ की तरह फैला हुआ है। इसे खत्म करने के लिए पहली बार संसद में एक विधेयक ‘ट्रैफिकिंग ऑफ पर्सन्स (प्रिवेंशन, प्रोटेक्शन एंड रिहैबिलिटेशन) बिल 2018 पेश हुआ है। पूरे राष्ट्र को तकरीबन रोज ही शर्मिंदगी से भर देने वाली बच्चों के साथ दुष्कर्म और यौन शोषण की घटनाओं ने अब ‘अनैतिकता की महामारी का रूप ले लिया है। कुछ दिन पहले बच्चों के यौन शोषण और दुष्कर्म के खिलाफ सख्त सजा का प्रावधान करते हुए जो अध्यादेश लाया गया था, उसे भी कानून में बदलने का एक विधेयक ‘क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) बिल 2018 लाया जा रहा है। एक आंकड़े के अनुसार देश में प्रति आठ मिनट पर एक बच्ची गुम होती है। इसी तरह हर घंटे करीब आठ बच्चे अपनी मां के आंचल से बिछुड़ जाते हैं। ये बच्चे ह्युमन ट्रैफिकिंग के शिकार होकर बाल मजदूरी, भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति आदि के लिए खरीदे-बेचे जाते हैं। इनका बचपन छिन जाता है और वे भय और हिंसा के साए में जीने को मजबूर हो जाते हैं। इतना ही नहीं, भारत में हर घंटे कहीं न कहीं दो बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं। दुष्कर्मी इन बच्चों के कोमल शरीर को ही नहीं, उनकी आत्मा को भी रौंद डालते हैं। ये महज आंकड़े भर नहीं। हर एक संख्या एक चीखते हुए मासूम चेहरे का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा चेहरा जो दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में जीवन, स्वतंत्रता व सुरक्षा जैसे संवैधानिक अधिकारों को खो रहा होगा।

मैं ह्युमन ट्रैफिकिंग से बचाए-छुड़ाए गए ऐसे हजारों बच्चों से मिला हूं, जो जानवरों से भी कम कीमत पर खरीदे और बेचे गए थे। कुछ महीने पहले हमने बिहार से ट्रैफिकिंग कर लाए गए बच्चों को दिल्ली की एक जींस फैक्ट्री से मुक्त कराया। यह फैक्ट्री बेसमेंट में चल रही थी। ये बच्चे तीन साल तक इस बेसमेंट से बाहर नहीं निकले थे। लिहाजा जब वे मुक्त होकर बाहर आए तो उनकी आंखें सूरज की रोशनी सहन करने की क्षमता खो सी चुकी थीं। ऐसे मामलों में मुजरिमों पर बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी और किशोर न्याय से संबंधित कानूनों में कार्रवाई हो जाती है, लेकिन ट्रैफिकिंग के खिलाफ सख्त कानून के अभाव में दलालों पर कार्रवाई नहीं हो पाती।

पिछले कई दशकों से बाल दासता के खिलाफ अपने प्रयासों से मैंने जो सीखा है, उससे मैं महसूस करता हूं कि ये दोनों कानून इन अपराधों को मिटाने में सहायक होंगे। मैं इनका पुरजोर समर्थन इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि ये कानून सिर्फ ह्युमन ट्रैफिकिंग में लिप्त लोगों और दुष्कर्मियों को सजा दिलाने भर के लिए नहीं हैं, बल्कि ये न्याय के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं से भी जुड़े हैं। नया कानून ट्रैफिकिंग को एक संगठित आर्थिक अपराध मानते हुए हर जिले में विशेष अदालत गठित कर तय समयसीमा में सुनवाई करने और सख्त सजा का प्रावधान करता है। इसके साथ ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित मानव तस्करों की साठगांठ को तोड़ने के लिए उनकी संपत्ति की कुर्की-जब्ती और अपराध से प्राप्त धन को जब्त करने का प्रावधान है। साथ ही सीमा पर ट्रैफिकिंग रोकने के लिए नेशनल एंटी ट्रैफिकिंग ब्यूरो का गठन किया जाएगा। यह कानून केवल आपराधिक दंड तक सीमित नहीं है, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के आधार पर अपराध की रोकथाम और पीड़ितों को मुआवजा और पुनर्वास सुनिश्चित करता है। पीड़ितों को मुआवजे के लिए फैसला होने तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा, बल्कि मुकदमा दायर होते ही उन्हें तात्कालिक राहत मिलेगी, इसके बाद उनका आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पुनर्वास किया जाएगा। इसके लिए एक पुनर्वास कोष भी बनाया जाएगा। इन प्रावधानों से यह कानून बहुत प्रभावी हो जाएगा।

हमने हाल ही में किए अपने एक अध्ययन में पाया कि पॉक्सो कानून के तहत बच्चों के यौन शोषण के अब तक जितने मामले दर्ज हैं और जिस गति से इसके मुकदमों की सुनवाई हो रही है, उसकी सुनवाई पूरी होने में कई राज्यों में 50 से 100 साल तक लग जाएंगे। यानी आज जिस बच्ची के साथ दुष्कर्म हुआ है, उसे न्याय के लिए अपने नाती-पोतों के साथ अदालत के चक्कर लगाने पड़ेंगे। लेकिन नए कानून के बन जाने से ऐसी स्थिति नहीं आएगी और पीड़ितों को शीघ्र न्याय मिल पाएगा। ‘क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) बिल 2018 में बच्चियों के खिलाफ जघन्य अपराध होने पर कठोर सजा और त्वरित व समयबद्ध कार्रवाई का प्रावधान किया गया है। इसमें दुष्कर्मियों को फौरन सजा मिल पाए, इसके लिए फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना के साथ ही पुलिस की जांच और अदालती फैसले की भी समयसीमा तय की गई है।

संसद में इन दोनों विधेयकों का पेश होना सुखद है। इन कानूनों की मांग को लेकर हम लंबे समय से सड़क से लेकर न्यायालय तक संघर्ष करते रहे हैं। पिछले साल हमने ट्रैफिकिंग और बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ सख्त कानून बनाने और इस बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए देशव्यापी ‘भारत यात्रा का आयोजन किया था। यह यात्रा 11 हजार किलोमीटर की दूरी तय कर 23 राज्यों से गुजरी थी। हमने वर्ष 2007 में बाल-तस्करी विरोधी दक्षिण एशियाई यात्रा का और 2011 में असम में एंटी ट्रैफिकिंग मार्च का आयोजन किया था। सुप्रीम कोर्ट में दायर हमारे संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन की ही एक याचिका पर 2011 में पहली बार भारत में ट्रैफिकिंग को परिभाषित किया गया था।

ट्रैफिकिंग और यौन शोषण के शिकार मासूम चेहरे उम्मीद भरी निगाहों से इस कानून की तरफ देख रहे हैं, क्योंकि यह कानून देश के हजारों बच्चों की सिसकियों को मुस्कराहटों में बदल सकता है। इसलिए सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से मेरी विनम्र अपील है कि वे इस विधेयक को जल्द से जल्द संसद में पारित कराएं, ताकि एक आवश्यक कानून अस्तित्व में आए। ऐसे कानून की सख्त जरूरत है। नि:संदेह न्याय को एक कानून में समाहित करना मुमकिन नहीं है। इसलिए हो सकता है, इसमें कुछ खामियां हों। अगर ऐसा है तो इन खामियों को कानून के नियमों में दुरुस्त किया जा सकता है। जरूरत पड़ने पर अलग से कोई और अध्यादेश या विधेयक लाया जा सकता है। बच्चों के बचपन को खुशहाल बनाने के लिए यह विधेयक एक ऐतिहासिक अवसर की तरह है। इस अवसर को गंवाने का काम नहीं किया जाना चाहिए। हमारे बच्चे अब और इंतजार नहीं कर सकते।