टिकाऊ विकास के लिए जरूरी है निष्पक्ष नजरिया
टिकाऊ विकास के लिए जरूरी है निष्पक्ष नजरिया
एनडीए शासन के पांच वर्षों की बदहाली पर कोई क्या कह सकता है? बीजेपी के नेतृत्व वाले इस गठबंधन का कामकाज किसी आपदा जैसा ही रहा है। लेकिन यह कहना गलत होगा कि इसके पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए बहुत अच्छा काम कर रहा था। निश्चित रूप से कुछ बड़ी उपलब्धियां यूपीए के हिस्से आई थीं। जैसे आर्थिक वृद्धि की असाधारण दरें और सूचना का अधिकार तथा ग्रामीण रोजगार की गारंटी जैसे सामाजिक रूपांतरण वाले बदलाव। लेकिन प्राथमिक स्तर पर लोगों के स्वास्थ्य की देखरेख की व्यवस्था यूपीए सरकार नहीं कर पाई, न ही उस दिशा में कोई बड़ा कदम उठा पाई, जिसे महान आंबेडकर ने ‘जाति का उन्मूलन’ कहा था। एनडीए की विफलता का आकलन करने के लिए हमें समदर्शी होना पड़ेगा।
सांप्रदायिक विभाजन
मुश्किल यह है कि एनडीए ने पिछली कमियों को दुरुस्त करने के लिए कुछ नहीं किया। उल्टे समस्याओं को और पुख्ता किया और उन्हें बहुत बढ़ा दिया। दलितों-आदिवासियों की स्वतंत्रता को और कम करके इसने जाति की खतरनाक गिरफ्त को और बढ़ा दिया। सबके लिए स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लक्ष्य से देश को और दूर ले गया और अपने चुनावी वादे से पलटी मारते हुए बेरोजगारी को असाधारण स्तर पर लेजाकर गरीबों के लिए रोजगार पाना और मुश्किल कर दिया। एनडीए के शासनकाल में भारत बेरोजगारी में कोई आधी सदी के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया। इस तकलीफदेह नाकामी के साथ एक बुराई और जुड़ी है कि एनडीए के नेताओं ने देश को सांप्रदायिक दृष्टि से बहुत ज्यादा विभाजित कर दिया है और अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों की जिंदगी का जोखिम बहुत बढ़ा दिया है।
इसके अलावा भारत के नए शासकों ने अकादमिक संस्थाओं के नौकरशाहीकरण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन और असहमति को राष्ट्रद्रोह बताते हुए लोगों को जेल में डालने में भी खासी प्रगति की है। दरअसल, हिंदुत्व के रुझान वाले इन शासकों ने भारत को ‘गलत दिशा में क्वांटम छलांग’ लगाने के लिए मजबूर किया है (इसी शीर्षक वाली हाल की एक किताब में रोहित आजाद और अन्य युवा शोधार्थियों की एक टीम ने इस बात को बारीकी से रेखांकित किया है।) सुविचारित आर्थिक नीतियों पर चलने के बजाय हिंदुत्ववादी शासक ‘जादू से विकास’ पर भरोसा करके चल रहे हैं। जैसे, उन्होंने स्थापित मुद्रा के एक हिस्से को चलन से बाहर करके और प्रॉमिसरी नोट लाने का वादा पूरा न करके भी धन और खुशहाली लाने की कोशिश की।
इससे कालाधन गायब होने की इनकी भविष्यवाणी सही नहीं साबित हुई, उल्टे छोटे उद्यमियों और कारोबारियों को गहरा धक्का लगा। खेती भी प्रभावित हुई। जादू दिखाने का काम पीसी सरकार पर ही छोड़ दिया जाए तो अच्छा रहेगा। कोई असाधारण तरीका आजमाने के बजाय भारत को उन आर्थिक नीतियों को अपनाने की जरूरत है जो दुनिया भर में कारगर रही हैं। हमें सक्षम और न्यायसंगत सार्वजनिक सेवाओं का विकास करना होगा। निजी पहलकदमियों और चुनिंदा सार्वजनिक निवेश को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इसके साथ ही उत्पादन कार्यों में सहायक वास्तविक विज्ञान, तकनीक और कौशल को बढ़ावा देना होगा (काल्पनिक अतीत से जुड़ी परीकथाओं के गायन से बचना होगा।)
यूरोप और जापान ने उन्नीसवीं शताब्दी में जो करना सीखा और चीन व दक्षिण कोरिया ने बीसवीं में, वह सब आज भारत में भी हमारे लिए उपलब्ध है। अगर हम आधुनिक अर्थशास्त्र के पितामह एडम स्मिथ का अनुसरण करते हुए भारत में प्रोत्साहन का माहौल बनाना और सबको बराबरी के मौके देना चाहते हैं तो हमें सिर्फ अमीरों को हर तरह की सुविधा देने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी और लोगों के लिए व्यापक पैमाने पर अवसर पैदा करने होंगे। स्मिथ ने बाजार अर्थव्यवस्था के बेहतर इस्तेमाल के साथ-साथ सचेत ढंग से सार्वजनिक सेवाओं (जैसे प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य) की व्यवस्था करने की बात कही थी। लोगों के कल्याण और उनकी उत्पादकता में बढ़ोतरी के लिहाज से इन सुविधाओं का बुनियादी महत्व है। बाजार अर्थव्यवस्था का जैसा प्रभावी इस्तेमाल चीन ने कर दिखाया है, उसकी तारीफ जरूर की जानी चाहिए लेकिन ऐसा करते हुए भूलना नहीं चाहिए कि शिक्षित श्रमशक्ति और स्वस्थ आबादी के रूप में चीनी अर्थव्यवस्था को दो ऐसे कारक मिले हुए हैं जो उसे काफी बेहतर स्थिति में ला देते हैं। इनकी बदौलत वह दुनिया की किसी भी चीज का उत्पादन पूरी दक्षता से करने में सक्षम है।
आयुष्मान भारत योजना के जरिए महंगी दवाओं को भी आम लोगों की पहुंच में लाने संबंधी सरकारी दावों पर काफी बातें हो रही हैं। यह योजना खर्चीली इलाज प्रक्रिया को सब्सिडी के जरिए सस्ता बनाती है। लेकिन याद रहे कि ये खर्च मुनाफा कमाने वाली निजी कंपनियों से जुड़े हैं, जो मरीजों को आकर्षित करने के लिए अक्सर वेतनभोगी कर्मचारी रखती हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि आयुष्मान भारत योजना में सबको बेहतर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने
के लिए कुछ नहीं है, जबकि भारत में यही
सबसे ज्यादा उपेक्षित है। इसकी अनदेखी से दूसरे और तीसरे स्तर की चिकित्सा सेवा भी प्रभावित होती है। मुनाफा कमाने वाली निजी कंपनियों को भारी सबसिडी देकर कुछ लोगों की आयु बढ़ाना और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के लिए कुछ न करके ज्यादातर लोगों की आयु को उपेक्षित छोड़ देना एक गलती है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य
अच्छी स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए, यहां तक कि निजी स्वास्थ्य सेवाओं का कुशल इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए भी प्राथमिक सार्वजनिक स्वास्थ्य की मजबूत बुनियाद जरूरी है। अभी यूपीए पर कुछ बातों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया जा सकता है, लेकिन एनडीए ने तो उन बातों की परवाह ही छोड़ दी जिनकी आज भारत को सख्त जरूरत है। न्याय और कौशल, दोनों ही दृष्टियों से टिकाऊ विकास के लिए निष्पक्ष नजरिया बहुत जरूरी है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में ही नहीं, आर्थिक और सामाजिक नीतियों की दृष्टि से भी भारत को इस दिशा में एक बड़े सकारात्मक बदलाव की जरूरत है। इस जरूरत को समझने में देर नहीं होनी चाहिए।
(लेखक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं)