वन-धन के द्वारा आदिवासियों का उत्थान

Date:11-07-18

आदिवासियों का जीवन जल, जंगल और जमीन से जुड़ा होता है। हमारे परंपरागत वन लकड़ी के अलावा अन्य वन्य-उत्पादों के स्रोत थे। इनमें पेड़ों के अलावा तिलहन, फल, फूल, जड़ों, पत्तियों, छालों और जड़ी-बूटियों का अस्तित्व और महत्व था। इनसे आदिवासियों को भोजन, दवाएं और सुरक्षित वातावरण मिलता था। अपनी जरूरतें पूरी करने के अलावा वे वन्य-उत्पादों को बेचकर आवश्यक नकद भी इकट्ठा कर लिया जाता था। यह सब नॉन-टिम्बर फॉरेस्ट प्रोडक्ट (एन टी एफ पी) के माध्यम से संभव हो पाता था।

वन पर ऐसा अधिकार केवल जीविका हेतु था। वन-भूमि पर कोई दावा नहीं करता था। वनवासियों की इस स्वतंत्रता को 1927 के वन अधिनियम ने छीन लिया। रातोंरात वन पर वनवासियों का अधिकार समाप्त हो गया। वन में रहने वालों के लिए उनका अपना घर ही पराया हो गया।

वनवासियों की समस्याओं को देखते हुए ग्राम संभाओं के स्वशासन हेतु पेपा (प्रोविजन ऑफ द पंचायत) अधिनियम, 1996 लाया गया।  इसका उद्देश्स अच्छा था। परन्तु इसमे अनेक तकनीकी खामियां थीं। लघु वन उत्पादों पर वनवासियों को अधिकार तो दे दिया गया, परन्तु लघु वन-उत्पादों को ही सही ढंग से व्याख्यायित नहीं किया गया। दूसरे, इन लघु वन-उत्पादों पर सीधे वनवासियों का अधिकार न होकर ग्राम-सभा का अधिकार रहा।

2006 में द शेड्यूल ट्राइब्स एण्ड अदर ट्रेडिशनल फॉरेस्ट डेवलपर्स अधिनियम लाया गया। वनवासियों के लिए यह कानून अत्यन्त सार्थक सिद्ध हुआ। अब चुनौती इस बात की है कि इसका उचित कार्यान्वयन कैसे किया जाए। एन टी एफ पी के समय के अधिकांश वनों का सफाया हो चुका है। इन्हें इमारती लकड़ी के काम में लिया जा रहा है।

वन-धन योजना

  • प्रधानमंत्री ने 14 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले से इस योजना की शुरूआत की है। इसके माध्यम से 30 आदिवासियों के दस स्वयंसेवी समूह बनाकर इनको लघु वन-उत्पादों को इकट्ठा करने एवं उनको बाजार में बेचने का प्रशिक्षण दिया जाएगा। यह एक ऐसी योजना है, जिसके माध्यम से आदिवासियों को अन्य तरह से भी समृद्ध किया जा सकता है।
  • बहुत से वनोपज का संग्रहण वनवासियों द्वारा किया जाता है। इनमें दवा या दवाओं में काम आने वाली जड़ी-बूटियां एवं अन्य प्रकार का कच्चा माल होता है। इनका मूल्य लगभग 2 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष आंका जाता है। यह आंकड़ा तब है, जब इन वनोपज को बढ़ाने के लिए कोई निवेश नहीं किया जा रहा है। अगर व्यवस्थित तौर पर इन उत्पादों को बढ़ाया जाए, तो इनसे 10 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष तक का व्यापार किया जा सकता है।
  • लघु वन उत्पादों को बेचकर आदिवासियों को अपनी मेहनत का लगभग 20 प्रतिशत प्राप्त होता है। उचित व्यापार नीति के द्वारा इसे लगभग 40-50 प्रतिशत तक किया जा सकता है। यदि प्राथमिक स्तर पर ही मूल्य वृद्धि को अपना लिया जाए, तो आदिवासियों के लिए जीविका के अन्य स्रोत ढूंढने की आवश्यकता ही नही पड़ेगी।
  • वनोपज के लिए एक राज्य स्तरीय कार्यक्रम प्रारंभ किया जाए, जिसमें उत्पाद संग्रहण से लकर बेचने तक के लिए बाजार की समझ के साथ एक तकनीकी तंत्र विकसित हो। इसके माध्यम से उन्हें सही मूल्य मिल सकेगा।

पूरे देश में 30,000 वन-धन स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जाना चाहिए। जन-धन को वन-धन से जोड़कर कच्चे माल, परिवहन और भंडारण के लिए धन की व्यवस्था हो सकेगी।

वन-धन को कार्पोरेट की साझेदारी के लिए खोला गया है। इससे बुनियादी ढांचे के निर्माण और विपणन में सहायता मिलेगी। इसका उद्देश्य 50 लाख आदिवासी परिवारों की आय को दो साल में तिगुना करना है। यह तो केवल शुरुआत है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित प्रवीर कृष्णा के लेख पर आधारित। 28 जून, 2018